विनीत की दो बेटियों के बाद घर में पोता हुआ था.. न ही प्रहलाद का कोई नामकरण ही करवाया गया था, और अब जब बच्चे का पहला जन्मदिन आ रहा था. तो घर में कोई भी जन्मदिन को लेकर उल्लास और रौनक ही नज़र नहीं आ रही थी। अनिताजी के बार-बार सुनीता के लिये फ़ोन आ रहे थे,” बेटा! प्रहलाद का पहला जन्मदिन है, रमेशजी से पूछ कर बता दो, कि प्रहलाद के लिये सोने की चैन के अलावा और क्या-क्या भेज दें”।

सुनीता ने बिना सोचे-समझे और बिना यह जाने कि आगे माँ की कही हुई बात का क्या असर होने वाला है.. और किस  प्रकार के सोच के लोगों से वो घिरी हुई है.. रमेश के आगे अपनी माँ के प्रहलाद के तोहफ़ों की कही हुई बात बता दी थी। और सुनीता ने रमेश से सवाल भी किया था,” माँ! पूछ रहीं थीं, कि जन्मदिन पर क्या फंक्शन कर रहें हैं.. आप लोग!”।

सुनीता के पूछने पर तो रमेश ने कोई भी जवाब नहीं दिया था.. पर प्रहलाद के लिये सोने की चैन देने की बात सुनकर लालच ज़रूर आ गया था।फंक्शन के विषय में कुछ भी न बोलकर रमेश ने तोहफ़ों के लिये सुनीता के सामने ज़रूर हाँ! भर ली थी। सुनीता ने भी अपनी माँ को तोहफ़े लाने के लिये फ़ोन पर हामी तो भर दी थी, पर जन्मदिन के फंक्शन के विषय में कुछ भी न बताया था। प्रहलाद का जन्मदिवस आ चुका था.. मुकेशजी और अनिताजी हिसाब से ज़्यादा शरीफ़ होने के कारण बिना ही किसी भी प्रकार का अपनी सोच पर ज़ोर देते हुए.. अपने छोटे सुपुत्र बबलू को सुनीता के यहाँ प्रहलाद के लिये खरीदे हुए.. कुछ सुन्दर खिलौने और सोने की चैन के साथ इंदौर भेज दिया था। रमेश की ससुराल से घर में, घर के पोते के जन्मदिन पर दिल्ली से तोहफ़े सहित मेहमान आ रहे थे.. इस बात का रमेश पर भी कोई फर्क न था.. चलो! बाकी परिवार की तो बहुत बाद में बात आती है। रमेश भी कम न था.. समेटने और खाने में अपने परिवार से कहीं से भी अलग न था.. पर पता नहीं क्यों सुनीता कौन सा चश्मा आँखों पर लगाकर रमेश को देख रही थी। या तो सुनीता की कमज़ोरी और डर सुनीता को बोलने नहीं दे रहा था.. या फ़िर वाकई में बेवकूफ़ ही थी। रमेश का शातिर दिमाग़ दिन रोज़ सुनीता से चार कदम आगे चल रहा था.. और सुनीता अपनी खुद की सोच को बंद कर डब्बे में डाल जो कोई कुछ भी बोल देता था.. उस के पीछे चल पड़ती थी।

खैर! दिल्ली से बबलू, प्रहलाद अपने भानजे के लिये माँ और पिताजी द्वारा भेजे गए सुन्दर तोहफ़े लेकर आ गया था.. चलो! सुनीता को तो छोड़ो उसकी तो चलती न थी.. पर दर्शनाजी तो घर की मालकिन हुआ करती थीं..  और अपने-आप को किसी भी रियासत की मलिका आलिया से कम न समझती थीं.. फ़िर प्रहलाद के जन्मदिन पर यह क्या! …

चलो! कोई बाहर का आदमी नहीं बुलाया वो तो परिवार की मर्ज़ी होती है.. पर घर में तो शगुन कर ही लेतीं.. अब वैसे तो राजा के घर में मोतियों की कमी न थी.. पर राजा के वंशज के जन्मदिन पर रियासत की महारानी ने घर आये अतिथि के सत्कार में आलू की अजीब सी सब्जी और झाड़ कर रोटियाँ पेश कर दी थीं.. और महारानी का ख़ास आदमी रमेश भी कुछ न बोला था। ऐसा नहीं था.. कि ये लोग अतिथि के आदर सत्कार से अनजान थे.. पर हर शख़्स दर्शनाजी और घर के घटिया रीति-रिवाज़ के हिसाब से नाटक के अपने-अपने किरदार निभाने में प्रवीण था। यहाँ पर मुकेशजी को भी अपनी सज्जनता न दिखाते हुए.. प्रहलाद के लिये कोई भी तोहफ़ा नहीं भेजना चाहये था। जब कोई जन्मदिवस का समारोह रामलालजी कर ही नहीं रहे हैं… तो तोहफ़े की ज़रूरत ही कोई नहीं है। आजकल के ज़माने में हिसाब से ज़्यादा सज्जनता पर लोग हँसते हैं.. व इन्सान की कीमत करना भूल जाते हैं। अपनी कीमत सामने वाले को जतानी पड़ती है।

चलो! आया गया हुआ था, प्रहलाद का जन्मदिन। दर्शनाजी के मुताबिक,” नाना देते हैं”।

अब फ़ॉर्मूला तो वही था.. दर्शनाजी के मुताबिक हरियाणे में केवल बेटे का ब्याह आपको करना होता है.. वो भी ससुराल वालों को बेवकूफ़ बनाकर उन्हीं के ख़र्चे पर.. और बाकी की आने वाले पीढ़ी को भी नाना ही देते हैं.. अब भई! मानना पड़ेगा.. कोई बिसनेस करना दर्शनाजी से सीखे। आख़िर बेटा खाते-पीते घर में ब्याहा था, तो हिसाब-किताब तो पूरा रखना ही था।

साल भर का हो गया था.. प्रहलाद और घर में नाटकों की रेल भी आगे सरक रही थी। जैसी परिस्थिति होती थी, उसी हिसाब का रोल दर्शनाजी किरदारों को सौंप दिया करतीं थीं। रमा सुनीता के दर्शनाजी को लेकर कान भरने लगी थी.. जो कि थोड़ा बहुत हर घर में महिलाओं के बीच में होता है। इधर रमेश की माँ! रमेश के रोज़ के हिसाब से सुनीता के रमा के लिये कान भर रही थी। रमेश का ग़ुस्सा सुनीता पर दिन रोज़ बढ़ता ही चला जा रहा था। सुनीता रमेश के गुस्से पर काबू पाने में असमर्थ थी.. वो रमेश की बात को हर बार काटकर सही और गलत का भाषण देने में व्यस्त हो गई थी.. जो की समय की माँग न थी। सुनीता बार-बार रमेश को यही समझाती जा रही थी, कि,” अम्माजी को देखो! वो भी तो रमा से हँस-हँस कर बात करतीं हैं.. दोनों तरफ़ चल रहीं हैं”।

हालांकि सुनीता का कहना सही था.. पर रमेश के बात करने का सुनीता से पहलू दूसरा था। रमेश और रमेश के घरवाले रामलालजी को फिलहाल छोड़कर रिश्तों को नहीं बल्कि संपत्ति को लेकर खेल, खेल रहे थे। अब इस घर के नन्हें फ़रिश्ते भी इस गेम से अछूते न थे.. प्रहलाद के जन्मदिन वाले दिन आए नए खिलौनों से टीना खेल रही थी.. टीना को भी खेलता देख दर्शनाजी ने रमेश को सीखा-पढ़ा घर में नाटक करवा दिया था। अब घर फिलहाल दो गुटों में पूरी तरह से बंटा हुआ था.. रमेश और दर्शनाजी, उधर रामलालजी और विनीत। रमा घर में हो रहे पूरे दिन की गतिविधियों की चुगली जिसमें बच्चे तक शामिल थे.. विनीत द्वारा घर से फैक्ट्री पहुँचा रही थी। सुनीता का खिलाड़ियों और खेल के मुताबिक कोई भी रोल न होकर आउट ऑफ द गेम रोल था.. वो सही गलत के खिलाफ झण्डा लहराना चाह रही थी.. जिसकी यहाँ चल रहे गेम में कोई भी ज़रूरत न थी। पर फ़िर भी रमा जैसी शातिर दिमाग़ औरत ने सुनीता को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। अब खुद के यानी के रमा के ब्याह को तो आठ साल हो आए थे.. और अब अन्दर ही अन्दर विनीत के साथ अलग घर बसाना चाह रही थी.. पैसा-धेला भी ठीक ही जमा कर लिया था.. दोनों पति-पत्नी ने, बस! सासू-माँ के डर के कारण उड़ान भरने में डर लग रहा था.. तो रमा जी ने अब प्लान ये किया था.. कि सुनीता जैसी बेवकूफ़ का सहारा लेते हुए क्यों न इसी पिंजरे में चुपके से बसेरा किया जाए और हरियाणा के रिवाज़ों के तहत जो दर्शनाजी के लागू किये हुए थे.. कब्ज़ा कर लिया जाए। अब प्लांनिंग के मुताबिक रमा का बहुत धीरे-धीरे काम भी शुरू हो ही गया था,” वो भी तो ऐसे करती है, आप मुझे ही क्यों रोकते हो”।

रमा का दर्शनाजी के लिये अब यह नया फ़ॉर्मूला बन गया था। क्योंकि सुनीता को दर्शनाजी छोटी-मोटी बातों के लिये मना न करतीं थीं.. दर्शनाजी जानती थीं, कि सुनीता पीछे की दबंग परिवार से है.. और ख़ास बात यह थी, कि अपनी ससुराल वालों से रमेश को भी डर लगता था.. इसीलिए सुनीता को परिवार में थोड़ी-बहुत आज़ादी मिली हुई थी.. जिसका फ़ायदा अब रमा ने अपनी घर बसाने वाली सीढ़ी की तरह उठाना शुरू कर दिया था।

इधर सुनीता और रमेश की आपस की तू-तू , मैं-मैं रमा से बात करने वाले मुद्दे को लेकर बढ़ती ही जा रही थी। रमेश और सुनीता के रिश्ते में प्यार तो खैर! पहले दिन से ही न था.. लेकिन अब यह नाम का पति-पत्नी वाला रिश्ता भी कुछ हिलने सा लगा था.. जिसकी सुलगती हुई आग को लगातार पीछे से हवा दे रहीं थीं.. दर्शनाजी।

रमेश एक करोड़पति परिवार का हिस्सेदार होने की हैसियत से तेज़ी से बिना ख़र्चे-पानी की फ़िक्र किये पैसे उड़ाने वाला घोड़ा बन तेज़ी से दौड़ रहा था। सुनीता को रमेश की लगाम कसनी आई ही नहीं थी, और घोड़ा बेकाबू हो गया था।

क्रेडिट कार्ड और बहुत सीधी-साधी है। क्या था.. क्रेडिट कार्ड का रहस्य और कौन थी.. बहुत सीधी-साधी.. अब कौन से नए नाटक पर से पर्दा उठना था.. यह देखना था।