दर्शनाजी के नाटक तो रंग पकड़ ही रहे थे.. और रंग पकड़ न रहे थे.. रंगीन पहले से ही थे। सुनीता के आने से पहले रमा के साथ तो और भी भयंकर नाटक हो चुके थे। अब दर्शनाजी का दूसरा निशाना सुनीता ही थी। दर्शनाजी ने अपने दोनों सुपुत्रों का ब्याह तो कर दिया था.. पर भगवान का दिया सब-कुछ होने के बाद भी विनीत और रमेश के घर बसाने की प्लांनिंग नहीं करी थी। दर्शनाजी के नज़रिए से केवल वो उनके पतिदेव और उनके दो बेटे बस! वही उनका परिवार था.. आने वाली लड़कियाँ अपनी खुद की ज़िम्मेदारी पर उनके घर में रह सकतीं थीं। दूसरों की बेटियों को ब्याह कर तो ले आयीं थीं.. सासू-माँ पर चाहतीं थीं, कि आने वाली बहू उनकी फुल टाइम बाई बनकर रहें.. और बेटे तो उनके बेटे हैं, ही। अब जब लड़के का ब्याह हो गया है.. तो साधरण सी बात है.. कि उसका एक अलग परिवार बनेगा ही.. और यही तो प्रक्रति का भी नियम है। पर दर्शनाजी वाले मसले में तो यही कहा जा सकता था.. कि मूर्खों से कौन सिर मारे। पर कुछ भी कहो नई- नवेलियों की तो भई! महिला ने आफ़त ही खड़ी कर रखी थी.. जैसे ही बंदी को शक भी होता था.. कि उसके लड़के के साथ दोनों में से कोई सी भी बहु घर बसा सकती है, फटाक से कोई भी हरियाणे का नियम लागू हो जाता था। हालाँकि रामलालजी की इस मामले में सोच थोड़ी ठीक थी. .. पर बेचारों की चलती कहाँ थी। रामलालजी ने तो सुनीता के लिये भी कह दिया था,” बालकां के ख़ातिर अलग फ्लैट ले देते हैं, मन मिल जांगे”।

रामलालजी ने अपनी श्रीमती जी से कह दिया था.. सामने वाली बिल्डिंग में रमेश और सुनीता के लिये अलग से फ्लैट ले देते हैं..  दोनों बच्चों के आपस में मन मिल जायेंगे। यह सुनते ही पत्नी जी पूरे जोश और ग़ुस्से में आकर बोलीं थीं,” या बक़वास ना कर दिये.. तू! यो भी तो घर से.. मन तो आढ़े भी मिल सकें हैं”।

पत्नी जी के इस प्रकार के जुमलों और उनको पेश करने के तरीकों पर अक्सर हँसी आ जाया करती थी। हरियाणे में बात-बात पर इसी प्रकार के जुमले पेश होते रहते हैं। अब रामलालजी ने तो रमेश और सुनीता के लिये अलग से फ्लैट लेने और उसमें दोनों के मन मिलने का सुझाव दे ही दिया था..  और फ़ौरन ही इस बात पर डांट भी खा ली थी.. दर्शनाजी का कहना था.. कि मन-वन सब इसी घर में रहकर मिल जायेंगे.. किसी भी अलग फ्लैट की बिल्कुल कोई भी ज़रूरत नहीं है।चलो! खैर! बात आई-गई हुई थी। अब रामलाल विला में दर्शनाजी के हर बात में ख़ौफ़ की काट करते हुए.. ज़िन्दगी सामान्य रूप से चल रही थी। अभी सासु-माँ के सिस्टम का पूरे घर में डंका बज रहा था।

“ तू मने इसने गोद दे-देगी.. यो मेरा जीतू से!”।

दर्शनाजी ने सुनीता से प्रहलाद को अपना जीतू बताते हुए.. गोद लेने की बात बोली थी। जिसमें रमा ने तुरन्त ही टोकते हुए कहा था,” अम्माजी आप तो जब हमारे बड़ी छोरी हुई थी, उसने भी गोद लेने के लिये कह रहे थे”।

दर्शनाजी ने बात को सँभालते हुए बोला था,” हाँ! हाँ! वा भी मेरी ही है”।

घर में अब तीन बच्चे थे, और तीनों ही बच्चे रामलालजी यानी के दादा को बेहद प्यारे थे। रामलालजी विनीत की लड़कियों और रमेश के लड़के में कोई भी भेद-भाव नहीं किया करते थे। लेकिन दर्शनाजी ने मासूमों के बीच में भी हल्की-फुल्की राजनीति खेलनी शुरू कर दी थी। दर्शनाजी प्रहलाद को विनीत की दोनों लड़कियों से अधिक महत्व देने लगीं थीं.. बच्चों में फर्क डालना शुरू कर दिया था.. दर्शनाजी ने। बच्चों के दादाजी कोई भी चीज़ घर में लाया करते थे, तो उसे अलग से छुपा कर रमेश या फ़िर प्रहलाद के लिये ही रमेश को पकड़ा दिया करतीं थीं। हालाँकि शुरू में रमेश इस तरह से चोरी से माँ से किसी भी चीज़ को लेने में हिचकिचाया करता था, पर दर्शनाजी ने “ ले जा! ले! जा!” हर बात में कहकर रमेश को पक्का करतीं ही रही थी। सुनीता को चोरी से सामान का ऊपर कमरे में आना कुछ जमता नहीं था.. सुनीता ने अपने संस्कारों के हिसाब से रमेश को चलाने की बहुत कोशिश भी कर के देखी थी.. पर रमेश पर माँ का प्रभाव ज़्यादा होने के कारण सफ़ल न हो सकी थी।

परिवार में किसी भी प्रकार की कमी न होने के कारण पता नहीं क्यों हर चीज़ में भूख झलकती थी। धीरे-धीरे अब प्रहलाद बड़ा हो रहा था.. और छह महीने का होने को आया था। सुनीता एक बार फ़िर प्रहलाद को लेकर मायके जाने वाली थी। सुनीता के भइया-भाभी सुनीता और प्रहलाद को लेने आने वाले थे।

भई! पैसे वाली पार्टी थे.. सुनीता के ससुराल वाले.. हवाई-जहाज से भेज देते सुनीता को और प्रहलाद को दिल्ली.. अब लोगों को भी तो पता चले कि भई! आख़िर प्रहलाद करोड़पतियों का वंशज है.. पर यह क्या! दर्शनाजी ने तो यहाँ भी पैसे बचाने के लिये अपना ही रिवाज़ लगा दिया था.. के जी! हरियाणे में भाई लेने आते हैं। चलो! एक-आध बार भाई लेने आ गए..  पर यहाँ तो ठप्पा ही लगा दिया गया था.. कि सारी उम्र मायके ले जाने की ड्यूटी भाई की ही है।

अब पढ़ी-लिखी बहु एक अच्छे पढ़े-लिखे परिवार से लाए हो.. तो वह अपना आना-जाना खुद भी कर सकती है। पर क्या कर सकते थे.. परिवार की सोच जो पिछड़ी हुई थी। चलो! परिवार की सोच पिछड़ी हुई थी, पर सुनीता तो एक पढ़ी-लिखी लड़की थी.. उसने इस पिछड़ी हुई सोच और रिवाज़ों को क्यों बढ़ावा दिया.. क्यों नहीं इनके खिलाफ आगे आकर कोई खुद की आवाज़ उठाई। क्योंकि सुनीता की शक्सियत ख़ुद भी कहीं कमज़ोर पड़ रही थी.. अपनी कमज़ोरी का दोष दूसरों पर थोपना ग़लत होता है.. दर्शनाजी परिवार के सदस्यों की कमज़ोरी का ही तो फ़ायदा उठाये चल रहीं थीं.. जो उनकी ताकत बनती जा रहीं थीं।