सुनीता प्रहलाद को लेकर ऊपर कमरे में चली गई थी। पर सुनीता को सासु-माँ का बर्ताव बहुत ही अजीब और घटिया लगा था, जो कि पहले दिन से ही लग रहा था। घी, राशन और कपड़े जो सुनीता लाई थी, वो सभी चीजें देखकर बजाय खुश होने के.. कि” देखो! बहु कितने अच्छे घर से है, और लोग भी कितने संस्कारवान हैं”।

“ इन सब चीजा की के ज़रूरत थी”। दर्शनाजी मुकेशजी के भेजे हुए सौदे को देखकर बोलीं थीं।

विनीत सुनीता और रमेश को इंदौर स्टेशन लेने जब पहुँचा था, तब गाड़ी में बैठकर कहने लगा था,” अरे! इतने सामान की क्या ज़रूरत थी, मिलता तो है, यहाँ सब”।

दअरसल बात यह थी, कि जो कुछ कमा रखा था.. केवल रामलालजी की ही मेहनत का था.. बाकी तो रामलालजी और दर्शनाजी कोई खानदानी रईस थोड़े ही थे। खून में रईसी की एक अलग बात और छाप होती है.. जो छुपाए नहीं छुपती। अब दर्शनाजी भी पीछे की गरीब घर की महिला थीं, और कहना तो अच्छा सा नहीं लगता है, पर रमा तो दर्शनाजी से भी ज़्यादा ग़रीब परिवार से थी.. गरीबी तो चलो एक बात होती है.. वक्त और कर्मो का खेल होता है, जिसमें इंसान कुछ भी नहीं कर सकता.. पर ये दोनों महिलाएँ संस्कारों से भी खानदानी भूखी ही थीं। हर तरह से नंगा-भूखा इन्सान खतरनाक होता है। इन दोनों महिलाओं को सुनीता का अच्छा परिवार और संस्कार देख उससे शुरू में ही जलन हो गई थी, जो कि महिलाओं की फ़ितरत होती है। और अब तो सुनीता के बेटा भी आ गया था.. बस! तो अब क्या था, जलन ने नकारात्मकता का रूप लिया था। नकारात्मक भाव और विचार उस घर की हर चीज़ में आने लगे थे.. जिसका परिणाम आगे आता ही चला गया।

खैर! सुनीता सासु-माँ के तानों पर कुछ भी न बोली थी, खानदानी सीधी-भोली लड़की जो थी.. पीछे माँ से दाव-पेच सीख कर तो आई न थी.. चुप-चाप सारा खाने-पीने का सामान रसोई में मायके से लाया हुआ सारे परिवार के लिये रख दिया था। कोई चालक सी लड़की होती तो अपने पतिदेव से कह-कर मायके का सामान कमरे में भरवा लेती और उसे पकाने के लिये लाख नाटक और बहाने कर एक चूल्हा भी रखवाती.. पर सुनीता के मन में भी दूर-दूर तक यह विचार न थे.. अब पीछे कोई नाटक तो देख कर आई न थी.. नाटकों से साक्षत्कार तो रामलालजी के परिवार में ही हुआ था.. हर बात को नाटकीय रूप देना परिवार के खून में शामिल था।

अच्छा-ख़ासा खाता-पीता घर होते हुए, और किसी बात की कमी न होते हुए भी दर्शनाजी ने एक अजीब सी दहशत और भूखा पन परिवार में मचा रखा था। सुबह अपनी बक़वास शुरू कर दोपहर तक करती ही चली जाती थी। खैर! होती होंगी हरियाणे में ऐसी औरतें। सुनीता प्रहलाद को लेकर ऊपर कमरे में ही रहती थी। इंदौर में शिशु का लालन-पालन तो सुनीता ने अच्छे ढँग से शुरू किया था.. अब पैसे वाले लोग तो थे ही, तो छोटे बच्चे के लिये जो भी चाहिए होता था, सब आ ही जाता था। सुनीता ने अपने-आप को प्रहलाद के लालन-पालन में पूरी तरह से व्यस्त कर लिया था। लेकिन सुनीता का ध्यान प्रहलाद के साथ-साथ रमेश पर भी जाता था,” कैसा सिस्टम है, ये सुबह की चाय पीकर आराम से दोपहर के बारह बजे तक सोते रहते हैं, और फ़िर माँ के साथ सबकी चुगली करते हुए मुश्किल से खाना-वाना खाकर फैक्ट्री में पहुँचते हैं”।

सुनीता खुद से रमेश के बारे में सोच रही थी। सुनीता को रमेश को इंदौर में देखकर कभी भी एक बिसनेस मैन वाली फीलिंग न आई थी। रमेश का कहना था.. “ जितना मेरा काम होता है, मैं वो पूरा कर के आता हूँ”।

अब क्या होता है, हर घर का अपना ही सिस्टम होता है.. परिवार संयुक्त हो और कमाना खाना भी शामिल कोई हिस्सेदारी न होते हुए, ऐसे में पता लगाना कि कौन क्या तीर मार कर आ रहा है.. बहुत ही मुश्किल हो जाता है। बात का पता तो तब ही चलता है, जब दौड़ अलग-अलग लगाई जा रही हो।

खैर! दर्शनाजी ने रमेश को अपनी पूरी सपोर्ट दे रखी थी। रामलालजी से जितनी ज़रूरत हो उतने ही पैसे दिलवाना और ख़ुद भी देना.. क्योंकि खुद दिये हुए पैसे दर्शनाजी बाद में रामलालजी से ही वसूल कर लिया करतीं थीं। असल में बात यह थी, कि रामलालजी ने परिवार और फैक्टरी को खड़ा करने में बहुत मेहनत की थी, रमेश परिवार में सबसे छोटा लड़का रहा था, और दूसरा यह कि दर्शनाजी के अनुसार उनके छोटे बेटे जीतू के गुज़र जाने के बाद उन्होंने रमेश को ही अपने साथ रखा था। रमेश अपनी माँ की ही शागिर्दी में शुरू से रहा था। पिता और बड़े भाई के साथ माँ ने कभी भी रमेश को शामिल ही नहीं होने दिया..और क्योंकि रमेश के खाने-उड़ाने का इंतेज़ाम हमेशा दर्शनाजी ने ही चारों तरफ़ से करके दिया, इसीलिये रमेश को अपनी माँ ही हमेशा से सर्वोपरि लगती रही। दर्शनाजी और विनीत दो लोगों ने रामलालजी की संपत्ति और फैक्ट्री को देखते हुए राजनीति का खेल शुरू से ही खेला। इस संपत्ति की राजनीति में दर्शनाजी ने रमेश को पूरी तरह से अपने साथ अपने इस्तेमाल के लिये शामिल कर लिया था। अब माँ रमेश के खाने-पीने का इंतेज़ाम बैठा कर, कर ही रही थी, तो रमेश ने भी ज़्यादा ध्यान न दिया। रामलालजी तो दर्शनाजी के पूरे काबू में रहा ही करते थे।

खैर! सुनीता अब परिवार का हिस्सा हो ही गई थी.. रमा के साथ-साथ रामलालजी भी दर्शनाजी की गालियों का शिकार थे। “ ले! ओ आ गया कुत्ता! गधा किते का”।

अब ऐसे पतिदेव को कुत्ता और गधे की उपाधि से सम्मानित करना तो सुनीता ने इसी परिवार में सुना था.. बहुत ही अजीब और बेहूदा लगा करता था, सुनीता को। आख़िरकार सुनीता ने एक दिन पूछ ही लिया था, रमेश को,” ये अम्माजी! बाबूजी को इतना गन्दा क्यों बोलती रहतीं हैं, अच्छा नहीं लगता सुनने में”।

“ बाइयों के पीछे घूमता है, आवारा”। रमेश का अपने पिता के लिये कहना था।

“ क्या!” सुनीता के मुहँ से रामलालजी के लिये सुनकर निकला था।

सुनीता को रमेश का अपने पिता के लिये कहे हुए ये शब्द बिल्कुल भी न जम रहे थे। रामलालजी इस तरह के इन्सान तो लग न रहे थे। सुबह ही फैक्ट्री के लिये निकल जाना.. दोपहर का भोजन कर फ़िर फैक्ट्री भागना और शाम होते ही परिवार में लौट आना। कुछ जम न रही थी, यह बात ससुरजी को लेकर सुनीता के दिमाग़ में। रामलालजी को लेकर यह बात तो सभी बोलते थे, परिवार में।

एक बार दर्शनाजी और रमा साथ में बैठी हुईं थीं, तब दर्शनाजी के मुहँ से निकला था,” मेरे से पापे फ़ोन कर-कर पुछ्या करता रमेश कहाँ है!”।

दर्शनाजी बताने लगीं थीं, कि रामलालजी फैक्ट्री से फ़ोन करा करते थे, और पूछा करते थे.. कि रमेश कहाँ है, और क्या कर रहा है।

क्या होता था, फैक्ट्री में जो रामलालजी को रमेश के बारे में फ़ोन कर-कर बार-बार पूछना पड़ता था। अब ये कौन सा नया राज़ था, रामलालजी को लेकर जो परिवार में उछाला गया था।

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