ब्याह से पहले सुनीता के पिताजी ने जो कुण्डली बनवाई थी,सुनीता को अच्छी तरह से याद है..उसमें साफ-साफ लिखा था,कि होने वाले जीवन साथी के कोई आदर्श असूल नहीं होंगें। सुनीता ने मन में ही कहा था,”हाँ!यह लाइन तो बिल्कुल रमेश से मैच खाती है,वाकई कोई आदर्श असूल तो लगते ही नहीं हैं, इसके”।

हाँ! तो घर में कुत्तों को बहुत महत्व दिया जाता था..यहाँ तक की विनितजी की दोनों बेटियों को कुत्तों की जगह रखती थी..दर्शनाजी। यानी के इन लड़कियों को फ्रिज में या फ़िर घर में रखे फल-फ्रूट छूने की इजाजत भी नहीं थी। अगर गलती से हाथ भी लगा दिया करतीं थीं, तो दर्शनाजी उन लड़कियों और माँ की बुरी हालत कर दिया करतीं थीं। रमेश ने अपनी माँ की करनी पर हमेशा ही उसका पूरा-पूरा साथ दिया था। एक बात तो नोट करने की थी,और वो यह कि विनीत जी ने कभी अपनी पत्नी और अपनी बेटियों के लिए अपनी आवाज़ उठाई ही नहीं।

शुरू-शुरू में जब सुनीता को इंदौर में आये हुए केवल एक दो दिन ही हुए थे..तो रमा ने सीधा ही सुनीता से कह डाला था,”हरियाणे में बहुओं को कुछ भी नहीं देते सब कुछ पूरी उम्र का मायके से ही करना पड़ता है”। उस वक्त सुनीता नई थी, और दूसरे रहन-सहन व परिवेश की लड़की थी.. यह सब सुनते ही घबरा गई थी,”अरे!सब कुछ मायके से करना पड़ेगा..यहाँ तो वाकई मुश्किल है”। पर यहाँ पर एक बात गहराई से सोचने वाली थी..और वो यह कि रमा कोई करोड़पति खानदान की तो न थी..फ़िर उसका और उसकी लड़कियों का खर्चा पानी क्या मायके से चल रहा था.. जमने वाली बात तो लग न रही थी,जिसमें के रमा के ब्याह को भी आठ साल हो गए थे,सुनीता के ब्याह के वक्त।आठ साल एक लम्बा अरसा होता है..रमा पूरी तरह से विनीत के साथ खुश थी.. माजरा कुछ और ही था.. ऐसा लग रहा था, जैसे सुनीता के लिए किसी नाटक का रंगमंच तैयार किया जा रहा हो..जिसमें सभी परिवार के सदस्य भूमिका निभाएंगे।

युहीं दिन बीतना शुरू हो गये थे,और सुनीता ने एक अच्छी बहु की तरह पारिवारिक कामों में हिस्सा लेना भी शुरू कर दिया था। सुनीता ने अपने मायके में कभी कोई काम न किया था..पर ससुराल में किसी भी तरह के काम के लिए कभी मना नहीं किया था। एक बार सुनीता अपनी सास और जेठानी के साथ दोपहर के वक्त गेहूँ साफ़ करवा रही थी.. कि सुनीता ने अपनी जेठानी के पैर के बिछियों की तारीफ़ करते हुए कहा था”आपके बिछिया बहुत सुन्दर हैं.. कहाँ से खरीदे?”। जिसका जवाब रमा ने देते हुए कहा था”, मायके गयी थी,तो भाभी ने दिए थे”।

दर्शनाजी वहीं बैठी दोनों की बातें सुन रहीं थीं,और फटाक से बोलीं थीं,”रहन दे सुनारा के सुई ना बेचे.. बगल में दाब के ले जा है,और सिर पर धर कर ले आवे है”।उन्होंने हरियाणवी में रमा से कहा था। उनका कहने का मतलब यही था,कि पैसा इसी घर का है,बस नाम अपने मायके का कर रही है।

केवल यही बात नहीं, अब सुनीता के आगे रमा को लेकर दर्शनाजी कई मसले उठाने लगीं थीं… जैसे ही सुनीता दोपहर के अपने भोजन के लिए नीचे आया करती थी..दर्शनाजी और रमा की तू-तू , मैं-मैं चालू मिलती थी।अक्सर दर्शनाजी ज़ोर-ज़ोर से रमा को चिल्लाते हुए कहा करती थीं,”तू लायी ही क्या थी, अपने घर से सब कुछ तो यहीं का है,शादी करने के पैसे तक नहीं थे, तेरे भाइयों के पास.. गले मे पतली सी सुतली डाल के भेजा था..तुझे,बल्कि किसी ने हमसे यह तक कह दिया था, कि शादी करने के दस हज़ार लड़की के घर वालों को दे देना”।

दर्शनाजी को जितनी भी बेज़ती रमा की करनी होती थी..दिल खोल कर करती ही चली जाती थीं। अक्सर रमा को भी बराबर बहस करते सुना था सुनीता ने दर्शनाजी के साथ,रमा यही बात दोहराया करती थी,”आप सुनीता को सुनाने के लिए क्यों शुरू हो जाते हो,यही बात आप बाद में भी कर सकते हो”। रामलालजी की कोई खास न चला करती थी,दर्शनाजी के आगे, कोई ख़ास क्या बिल्कुल भी न चलती थी..सास बहू की हो रही लड़ाई को रोकने की हिम्मत किसी में भी नहीं हुआ करती थी।

सुनीता ने एक ही बात पर गौर किया था,कि इतनी लड़ाई और छींटाकशी के बावजूद रमा उस घर में विनीत के साथ दुखी नहीं खुश दिखाई दिया करती थी।

बल्कि सुनीता के उस घर में आने के बाद रमा के पहनने ओढ़ने के तरीकों में काफ़ी बदलाव आया था…जब सुनीता नई-नई उस घर मे आई थी…तो रमा अजीब ढँग के कपड़े पहन कर तैयार हुआ करती थी,कहने का मतलब एकदम सस्ते और बड़े-बड़े छापेदार..फ़िर एकदम महँगे और कई हज़ारों के कपड़े और जूते लाने लगी थी..एकदम इतना बदलाव कैसे आ गया था..जबकि मायका भी इतना पैसे वाला नहीं था।

दर्शनाजी के हिसाब से रमा के पास पैसा ससुराल का ही था..और हो भी क्यों नहीं भई!आख़िर बहु जो थी..रमा उस घर की।बल्कि दर्शनाजी को रमा को पैसों को लेकर ताने मारने ही नहीं चाहये थे। सासें यह बात क्यों भूल जातीं हैं,कि बहुएँ उन्हीं के घर की लक्ष्मी होती हैं.. वो भी किसी की बेटी किसी का सम्मान होतीं हैं.. खैर!इसमें दर्शनाजी की कोई गलती नहीं है..

जब विनीत अपनी बीवी को अपने दम पर रखने की हिम्मत रखता था,और ब्याह के भी गरीब घर की लड़की को इसलिए ही लेकर आया था..क्योंकि विनीत जानता था, कि उसके घर में किसी भी तरह की कोई कमी नहीं है.. सारे सुख दे सकता है,वो रमा को। फ़िर अपनी माँ से उसकी रक्षा करने में क्यों असमर्थ था.. क्यों खुल कर सारे परिवार के सामने नहीं कह पाता था,” हाँ!नहीं ला सकती ये मायके से ज़्यादा कुछ भी और क्यों दे भला वो लोग,ब्याह तो मैंने किया है,रमा से अब ये मेरी ज़िम्मेदारी है”।

दर्शनाजी का इतना ज्यादा डर और ख़ौफ़ सुनीता ने पहली बार अपनी ससुराल इंदौर में ही देखा था। रिश्ते तो सुनीता के मायके में भी सारे थे.. मामी, चाची, नानी बुआ वगरैह..बस दर्शनाजी जैसी राजनीतिज्ञ महिला से पाला न पड़ा था।

चलो! विनितजी की तो कोई बात न थी.. पर सुनीता को रमेश को लेकर थोड़ी सी चिंता सताने लगी थी..,एकदम ही माँ के पल्लू से बंधा हुआ इंसान था। देहज में सुनीता के पिताजी ने सफ़ेद रंग की मारुति कार दी थी..लेकिन दर्शनाजी ने इस पर भी बहुत ही भद्दा नाटक किया था,और कहा था,”अरे!मारुति तो आजकल भिखारी भी दे देते है,कौन सी बड़ी बात है”। और तो और रमेश के भी कान भर दिए थे,”रंग बदलवा गाड़ी का..सफ़ेद रंग कोई रंग होता है”।

ऐसा तो खैर!नहीं था, कि रमेश ने अपनी माँ की बात का विरोध ही नहीं किया..पर पता नहीं क्यों अभी तक जीत हर तरह के मामले में दर्शनाजी की ही होती आयी थी।

दर्शनाजी के रोब और डंडा चलाने का एक ही मुख्य कारण सामने आया था..रमा ने एक बार सुनीता को बातों – बातों में ही स्पष्ट कर दिया था,”इस घर की सारी संपत्ति और हर एक चीज़ पिताजी के नाम ही है, दोनों भाइयों में से किसी का कोइ भी हिस्सा नहीं है”।

इस हिस्से वाली बात पर एक बार सुनीता के सामने अच्छा ख़ासा पारिवारिक नाटक भी हुआ था…सुनीता अभी नादान थी..नाटक क्यों हो रहा था.. उसकी बारीकी को समझ नहीं पा रही थी। हालाँकि रमेश बिल्कुल भी नादान नहीं था, पर माँ का पिछलग्गू होने के कारण दर्शनाजी उसे अपने पालतू कुत्ते की तरह ही इस्तेमाल किया करतीं थीं। दर्शनाजी जहाँ रमेश को और जैसे रमेश को इशारा किया करतीं थीं.. वो ठीक उसी तरह ही शुरू हो जाया करता था।

हाँ!तो हिस्से को लेकर विनीत और रमा ने घर छोड़ के जाने का अच्छा खासा नाटक रचाया था,यह कहते हुए,”चलते हैं, बापू हमें हमारा हिस्सा देगा ही नहीं”। लेकिन गए कहीं नहीं..केवल नाटक कर रहे थे। इतने बेवकूफ़ भी न लग रहे थे..विनीत और रमा जो रमेश और सुनीता के लिए सब कुछ छोड़ कर चले जाते..पैसा और संपत्ति बहुत बड़ी चीज़ होती है.. इसमें होता कोई किसी का भी नहीं है। अगर हमारे घर के बड़े बुज़ुर्ग अपना सही कर्तव्य नहीं निभायें तो घर के घर बरबाद हो जाते हैं।

यही तो मामला था यहाँ.. दर्शनाजी ने दोनों बेटों में फूट डाल रखी थी..दोनों बहुओं को आपस में बिल्कुल भी न बोलने देती थी.. रामलाल जी की चलती नहीं थी.और तो और रमेश और विनीत की कोई बहन भी नहीं थी। क्या छोटा परिवार और सुखी परिवार दर्शनाजी को पसन्द न आ रहा था…परिवार के सुख से बढ़कर माँ -बाप के लिए होता भी क्या है…फ़िर ये राजनीति अपने ही घर में क्यों थी..भगवान का दिया सब कुछ तो था..फ़िर आराम से सुख भोगने और परिवार को सुखी रखने में कष्ट क्यों हो रहा था।

इस सारे नाटक में सबसे ज़्यादा परेशानी सुनीता की ही थी…रमेश की अक्ल पर सम्पत्ति का पत्थर पड़ गया था.. या फ़िर इस सारे सम्पति के खेल में रमेश सबसे उस्तादी कर रहा था…खेल अभी शुरू हुआ था।