गतांक से आगे :-

भाग -४९

विचित्र लोक की खबर जब लॉस वेगस पहुंची थी तो एक उदाहरण जैसा खड़ा होगया था !!

आश्चर्य था – जिसने लास वेगस को चुनौती दी थी वो और कोई नहीं उन्ही का जाना-माना राजन था, जिसने दो बार लास वेगस में अपनी छाप छोड़ी थी और एक ख्याति बनाई थी.

चॉइस पत्रिका का प्रसिद्ध पत्रकार – लैरी भागा चला आया था. वह चाहता था कि राजन से सबसे पहले वो प्रश्न पूछे जो समाज में ..

“भारत जैसे गरीब देश में आपका ये बेशकीमती शौक कैसे पूरा होगा?” लैरी ने प्रश्न दागा था.

राजन तनिक मुस्कुराया था. वह प्रश्न को पहले से ही जानता था .. और उसे इसका उत्तर भी आता था. लेकिन लैरी का भ्रम तोड़ने के लिए उसने प्रतिप्रश्न पूछा था.

“कौन कहता है कि भारत गरीब देश है ?” राजन ने सीधा लैरी की आँखों में झाँका था. “भारत के मुकाबले संसार में किसी के पास कुछ नहीं है !” चोट जैसी की थी राजन ने और लैरी चुप हो गया था.

“आपने घोड़े क्यों बेच डाले ?” लैरी ने फिर से राजन को पकड़ा था. “आप तो कलकत्ता के हीरो थे. सेठ धन्नामल .. कर्नल जेम्स और फिर सावित्री ..? अचानक इरादा क्यों बदला ?”

“मसलन की वो सब उधार का था ! उनका था .. मेरा नहीं था. ये मेरा है .. मेरा होगा .. और मै इसे जी जान से चलाऊंगा .. बढ़ाऊंगा और ..” उसने पलटकर लैरी को देखा था.

“गॉड ब्लेस यू सर !”लैरी ने एक आत्मीय मुस्कान के साथ कहा था और उठ गया था.

अकेला हुआ राजन…..एक बारगी अकेला रह गया था- ‘राजन !!’ छीतर की आवाज आने लगी थी. “घोड़ों की लीद उठाते उठाते मर जाते .. अगर सावित्री ..?

सेठ धन्नामल और कर्नल जेम्स आज एक विगत बने खड़े थे ! लेकिन सब के सब उसकी स्मृति में बैठे, जिन्दा थे. सुलेमान सेठ भी एक ही काइयां था – राजन को याद आ रहा था. अगर कर्नल जेम्स उसे अपना शागिर्द न बनाते तो .. सुलेमान उसकी खाल में भूसा भर देता.

लेकिन राजन ने चिन्हा था .. वक्त का प्रवाह .. वक्त का प्रभाव .. और वक्त की मांग- जो सबसे अलग होती है !!

ये सच है कि घोड़ों से उसका मन भर गया था. और सावित्री उसे अपनी मास्टरनी जैसी लगती थी ! लगता था सावित्री के मुकाबले वह बहुत बौना था .. छोटा था .. और था एक उधार का लिया पुरुष .. या कि किराये पर उम्र भर के लिए लिया एक नौकर !

“और पारुल ..? उसके बेटे की माँ बनने वाली थी! उसकी पहली संतान की माँ !! क्या उसे ये पता था कि पारुल आगे भी उसके बच्चों की माँ बनेगी ? शायद हाँ …..शायद नहीं ! पारुल के पेट का पता नहीं लगता. बहुत गहरी है, वह. और उसके सपने उससे भी कहीं ज्यादा बुलंद है. काम-कोटि की राज माता , उन का वो शाही खान-दान …और काम-कोटि पारुल के लिए …उस का सर्वस्व होना – राजन तो जानता है ! संतान की उत्पत्ति ..तो पारुल का ..सावित्री पर किया उपकार है ! उस के लिए कुछ नहीं . वह क्या करे …..?

अचानक राजन का दिमाग घोड़े की तरह बिदक गया था !

“हमेँ , हर बार क्यों भूल जाते हो मित्र ?” एक आश्चर्य की तरह ताश के पत्ते राजन को पुकार बैठे थे. इक्के .. बादशाह .. बेगम .. गुलाम और पंजी – सत्ती सब के सब राजन की आँखों के सामने आ ठहरे थे. “हम ही आपके वफादार हैं .. सच्चे मित्र हैं !” राजन सुनता जा रहा था. “अब तो आजीवन का साथ रहेगा!” पत्ते कह रहे थे. “आओ कुछ नया रचें ..!!” उनकी मांग थी.

“हाँ , सच !” राजन जैसे सोते से जगा था. “मुझे तो नए-नए गेम तैयार करने थे.” उसे आत्मबोध जैसा हुआ था. “ऐसे गेम जो लास वेगस से भिन्न हों .. ऐसे खेल जिनमे खिलाडी को आनंद आये .. एक थ्रिल हो .. एक अजेय आकर्षण .. जो खिलाडी को रेल गाड़ी के इंजन की तरह .. आगे .. और आगे .. खींचता ही चला जाय और जब खेल समाप्त हो तभी उसे हार जीत का होश आये !”

राजन उठा था और संभल कर रक्खे ताशों के अनेकानेक जोड़ों को उठा लाया था. उसने उन्हें अपने सच्चे सरोकारों की तरह चूमा था. एक प्यार भरी नजर उनपर निसार की थी ! फिर सारे पत्तों को सामने फैला कर अपने बुद्धि विलास से कई सिचुएंसन में बिठाने लगा था. पत्ते बाँटने लगा था और कमाल ही था कि पत्ते घोड़ों से भी कहीं ज्यादा वफादार सिद्ध हो रहे थे .. मनचाहे रिजल्ट उसे मिल रहे थे.

तेरह तरह के खेल राजन ने तैयार किये थे. तेरह की गिनती उसे हमेशा से फलीभूत होने वाली गिनती लगती थी. कुछ मायनो में राजन बड़ा ही दकियानूस था. टोने-टोटकों में उसका विश्वास था. घडी-मुहूर्तों को वह मानता था. वक्त की पदचाप सुन कर ही वह चलता था. और जो काम वह करता था .. पूरे तन-मन के साथ उसमे जुट जाता था. जय-विजय .. हार-बिगाड़ सबका राजन को पूर्वाभास हो जाता था.

जैसे कि आज उसे निश्चित रूप से पता था कि विचित्र लोक का सपना पूरा होगा .. और राजन अपने इस स्वर्ग को बसाने में समर्थ होगा. उसके पास धन होगा .. शराब होगी .. न्रत्यांगनाएं होंगी .. संगीत होगा .. नाम होगा .. काम होगा और सफलता होगी. और क्या चाहिए था उसे ? संतान सुख ..? प्रश्न आकर उसके सामने खड़ा हो गया था.

“संतान सुख तो एक आइटम है .. एक आइटम है……केवल एक आइटम – जो किसी किसी को मिलता है. और कभी कभी तो आपनी संतान ही ..” रुका था राजन. अचानक ही सावित्री का चेहरा उसकी आँखों के सामने आ खड़ा हुआ था. “अकेली संतान – सावित्री से क्या मिला सेठ धन्नामल और उसकी पत्नी को ..? मौत ..!!” राजन ने दो टूक उत्तर दिया था और मुक्त हो गया था.

“मुहूर्त की तारीख तय कर दो ..?” राजन ने पारुल से आग्रह किया था.

“हाँ ! तै ही समझो. मार्च का महीना सूट करता है – मौसम को, मुझे और सैलानियों को.” पारुल ने मुस्कुराकर कहा था.

राजन को बात पसंद आई थी. पारुल तबतक माँ बन चुकेगी और सावित्री को उसका सर्वस्व सौंप देगी. ठीक रहेगा. सावित्री से तो जान छुटेगी. कुछ उधार न बचेगा उसका .. न लेना न देना !

“सस्ते छूटे, गुरु ?” किसी ने राजन के कान में कहा था. “किस्मत के धनी हो !”

“सो -तो – हूँ !” राजन जोरों से हंस पड़ा था.

सामने खड़ा सुखद भविष्य भी हंस रहा था .. राजन से हाथ मिला रहा था !

“ये देखिये ! कित्ते आकर्षक चित्र छपे हैं ..” गप्पा पारुल को होते प्रचार-प्रसार के बारे बता रही थी. “ये .. सोना झील का चित्र तो ….?” गप्पा की ऊँगली ठहर गई थी.

लेकिन पारुल का दिमाग बिदक गया था. सोना झील के साथ-साथ सोना महारानी का उसे स्मरण हो आया था. उसकी दी चेतावनी याद आते ही पारुल कांप उठी थी. अच्छा हुआ जो उसने राजन से विवाह कर लिया. सस्ता उपाय मिल गया .. वर्ना ये चुडेल तो .. मार ही डालती उसे…..?

गप्पा ने पारुल के माथे पर उग आई पसीने की बूंदों को देख लिया था !

“लास वेगस से भी बहुत सारी इन्क्वारियां आ रही हैं.” गप्पा ने बात मोड़ दी थी. “बाहर की मैगजीनों मै भी खूब मसाला छपा है.” गप्पा एक के बाद एक मैगजीन दिखाती जा रही थी.

“जुआ .. शराब .. शबाब .. जन्नत .. स्वर्ग .. जहाँ इंसान की उन भावनाओं का आदर होता है .. जिन्हें समाज ठुकराता है .. बुरा बताता है .. !!” एक मैगजीन के मुख पृष्ट पर लिखा था.

पारुल की निगाह ठहर गई थी. उसने बार-बार उस लिखे विचार को पढ़ा था. सोचा था और समझने की कोशिश की थी ..

“नया युग आरम्भ भारत में ! लास वेगस प्लस ……जहाँ भावना .. प्रेम .. उदारता और स्नेह का भूखा आदमी पहुंचेगा .. और तृप्त होगा .. स्वस्थ होगा .. और इलाज पा जायेगा- इस सुरम्य प्रदेश में ,अपने उन ग़मों का .. जो दुनिया मुफ्त में उसे पकड़ा देती है. ये एक नया जहाँ होगा जो मुह से बोलेगा !”

“बहुत अच्छा लिखा है.” पारुल ने गप्पा को देखा था. “मेने तो कभी इन बातों की ओर गौर ही नहीं किया.” वह कह रही थी.

“ये भी पढ़िए न, मेम.” गप्पा ने दूसरी मैगजीन दिखाई थी. “जुआरियों का तीर्थ बनेगा विचित्र लोक. ये आम आदमी का स्वर्ग होगा – सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ. देवी काम-कोटि हर किसी की मनोकामना पूर्ण करेंगी .. और पवित्रता प्रदान करेंगी ..”

“बहुत खूब !” पारुल ने प्रशंशा की थी. “लोगों के विचार पढ़कर तो लगता है कि हम लोग अब तक अन्धकार मै ही जीते चले आ रहे हैं !”

“ये और एक नया विचार है.” गप्पा ने एक और सुन्दर मैगजीन पारुल के सामने रख दी थी. “पढ़िए !” उसने आग्रह किया था.

“विचित्र लोक में आप .. कपडे उतार कर .. उन कामातुर नदियों में नहाएंगे .. जिनमे पानी नहीं .. निरी शराब बहती है ! काम-रूप की अनिन्ध्य सुंदरियों के रूप का जादू .. जब आप को मतवाला बनाएगा .. तो .. आप सब हार जायेंगे .. और सब जीत जायेगे !”

“ये कौन महाशय हैं ?” पारुल ने गप्पा को पूछा था. “क्या खूब लिखा है, भाई!” वह चहकी थी.

“लिखा है न – नाम !” गप्पा ने दिखाया था. “चन्दन बोस!!” उसने पढ़ा था. “बाय गॉड! जितना अच्छा लिखते हैं .. उतना ही अच्छा बोलते भी हैं !” गप्पा बता रही थी. “मेने इन्ही से काम सीखा था. ये भी कलकत्ता के ही हैं !” वह हंसी थी. “कभी सुनेंगी तो आप बेहोश हो जायेंगी !” गप्पा ने कहा था.

“डोंट… टेल… मी…!!” पारुल ने प्रतिवाद किया था. वह हंसी थी.

लेकिन गप्पा की बात पारुल के जहन में जा बैठी थी.

कौन था ये चन्दन बोस, पारुल जान लेना चाहती थी ….!!

क्रमशः-

मेजर कृपाल वर्मा साहित्य

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