का:श हम कुंआरे न होते !

राजन को जोर की ठोकर लगी थी. दो चार कदम दौड़ कर वह गिरते-गिरते बचा था.

“पैदल चलना भी भूल गए , राजन सेठ ?” न जाने कैसे उसे शहर कलकत्ता ने पूछा था. “जब तुम आए थे तो …..अँधेरे में भी बिना आँखों के चलने का अभ्यास था, तुम्हें !”

“हाँ, था !” राजन गरजा था. वह रोष में था. पैर में लगी ठोकर टीस रही थी. “मैं ….मैं …..डरता नहीं हूँ , मित्र !” राजन ने कुछ कहना चाहा था.

“आओ,आओ !” कलकत्ता ने बाँहें पसार कर उस का स्वागत किया था. “चंद पलों में आस्वस्त हो जाओगे ! ज़माने के जुल्म  ……बहुत काटते हैं…..बहुत सेधते है  ……और औरत की   …की बेबफाई   …..? उस ने तुम्हें  ……”

“हाँ, उस ने मुझे  ….धक्के दे कर  कार से बाहर कर दिया  ….!” राजन रोने-रोने को था. “उस ने  …..!” उस का गला रुंध गया था. “उस ने मुझे  ….”

शहर में हल-चल भरी थी. भीड़-भाड़ का समुद्र शहर की काया  में भरा उसे हिला-डुला रहा था. सब कुछ आंदोलित था  …सजग था  …जीवंत था  …! हर कोई अपने-अपने इरादों के साथ था……चाहतों के पीछे दौड़ रहा था  …! लेकिन राजन था  …कि रुक गया था  …ठोकर खा गया था। ….और अब दिग्भ्रांत था  …!!

भरी-भरी दुनियां में आज राजन अकेला था.

दिशा -हीन  …..एक बे-द्यानि में  ….राजन शहर की सडकों पर चल पड़ा था. कहाँ जाए – वह नहीं जानता था  ….क्यों जाए  ….उसे पता नहीं था. पर सड़क पर खड़े-खड़े  ….जिंदगी पूरी कहाँ होती है ? रोशनियों का समुन्दर अब उसे भीतर से भरने लगा था. शहर की हल-चल का वह हिस्सा बन गया था…..भूल ही गया था  …कि वह था – कौन  …?

शहर ने भी अपने भटक गए बच्चे को जैसे गोद में उठा लिया था. उसे प्यार किया था  ….उस से कुशल-क्षेम पूछी थी  …उसे पुचकारा था  …और प्यार किया था !

“कैद से छूट कर आए हो …?” शहर पूछने लगा था.

“हाँ, उस जादूगरनी की कैद से भाग निकला हूँ  …..!” राजन ने स्वीकारा था.

“झूठ क्यों बोलते हो, मित्र ?” राजन के सामने न जाने कहाँ से सम्मोहन शरीर धारे खड़ा था. “तुम कभी भी  …सावित्री को भुला नहीं सकते …!” उस ने दावा किया था.

“सा-वि— त्री  …….?”  जैसे फिर से राजन को झटका लगा था. एक विक्षोभ पैदा हुआ था. क्रोध बढ़ने लगा था. “सा-वि–त्री … ?” उस की जुबान ने उगल था , सावित्री का नाम. “हाँ,हाँ   ….! ठीक कहते हो  …तुम ! मैं  …मैं  …सावित्री को   ….!!” राजन थक गया था. वह हांपने लगा था. वह कहीं बैठ जाना चाहता था. उस के पैर अब उसे जबाब दे रहे थे.

हुगली का किनारा था. पूरे शहर की परछाइयां हुगली के पेट में समां – झूला झूल रही थीं. सब चलायमान था. दृश्यमान जगत का जादू आज फिर से राजन के सर चढ़ कर बोलने लगा था. आज वह नशे में न था. उसे अब पीने की तलब भी न सता  रही थी. क्यों  ….?

“इंगलैंड की डर्बी जीतने के बाद तो  ….’धन्नामल रेस ‘ एक विस्व-स्तर की संस्था बनेगी  ….!” कर्नल जेम्स के स्वर थे. आवाज़ आस्वस्थ थी. उन की बात में दम था. “पैसे का ओर-छोर न रहेगा  …! धन की गंगाएं बहेंगी  ….! नाम   …काम  …और सौहरत   …सभी का सब प्रकाश में आएगा …और …..”

लेकिन तब राजन धन की गंगाओं में नहीं  ….मन की गंगाओं में डूब-डूब कर नहाना चाहता था ! मन एक पल भी सावित्री को भुलाने के लिए नहीं मानता था. सावित्री के सिवा उसे और कुछ भी दिखाई नहीं देता था. वह तो चाहता था  …कि हर पल वह सावित्री के सहवास में ही रहे !

“और भी तो कुछ चाहते थे, मित्र  ….?” सम्मोहन पूछ रहा था.

“हाँ,हाँ  …! चाहता था   …कि  …सावित्री को अपनी चौंच में भर कर ले उड़ूँ  ….किसी निर्जन टापू पर ले जा कर धरूं  …एकांत में  ….अकेले में    सावित्री के नयनाभिराम में  …डूब-डूब कर स्नान करू ….उस की खनकती हंसी को सुनूं  …सुनाता ही रहूँ  …उस के कहे संवादों को ..अपने मानस पटल पर   …हमेशा-हमेशा के लिए  …लिख लूँ   ….उस के गेसुओं की छाँव  में  अपना घर बनाऊं  …उस के कोमल अंग-विन्यासों का स्पर्श करूं  …..उसे महसूस कर देखूँ  …..और फिर  ….उसे  ……”

“पा तो लिया था  …उसे , फिर खोया क्यों  ….?”

राजन के सामने प्रमाण के तौर पर एक घटना आ खड़ी होती है.

“तुम्हारे पैर पकड़ता हूँ, राजन सेठ !” सुलेमान कह रहा था. “भीख मांग कर खा लूँगा  …!” उस की विनती थी. “मुझे बचा लो  ….” उस ने आग्रह किया था.

“चोरी तो तुमने की है  ….? छीतर ने और तुमने  ….” राजन ने प्रश्न पूछा था.

“मांफ भी कर दो , राजन सेठ  …!” छीतर की आवाज़ थी. “इस  …सावित्री से  …कैसे ही जान छुड़ा दो  …?”

विचित्र बात थी. सुलेमान सेठ और छीतर का वक्त बदल गया था. कल राजन उन के पैरों पर पड़ा था  …आज वो राजन के पैरों पर पड़े थे. विचित्र थी – जीवन की धूप-छाँव  …..!!

“और आज तुम भी तो चौड़े में आ गए हो  …! लगा लो गले सुलेमान और छीतर को ….?”

“अब न मुडूंगा , मैं  …!” राजन ने आह भर कर उत्तर दिया था.

अचानक ही उसे पारुल एक दिशा की तरह दिखाई दे गई थी !!

राजन ने सहसा महसूस किया था कि  ….गंगा उलटी बह रही थी।  हुगली का पानी ठीक अपनी विपरीत दिशा में चढ़ता चला जा रहा था….लौट रहा था  ….उफन रहा था  ….और उस के पैरों तक आ पहुंचा था.

पानी में पड़ती परछाइयां लोल-किलोल कर रही थीं। राजन उन्ही परछाइयों के पीछे चल पड़ा था. बनती-बिगड़ती परछाइयां  ….कभी उस के गम उजागर करतीं तो  …कभी उस के वो पल – जब वह शहंशाह-सा  था  …ऑन टॉप ऑफ द  …वर्ल्ड  ….!!

“इंग्लैंड की डर्बी जीतने के बाद तो  …..” कर्नल जेम्स ने उसे एक सपना मुफ्त में बेच दिया था. “सावित्री से कहो  ….’धन्नामल रेस ‘ अपना नॉमिनेशन भेजे।” उन का सुझाव था.

और जब सावित्री को उस ने सचेत किया था  …तो .. वह जी-जान से काम में जुट गई थी.

“आप एक माह पहले जा रहे हैं  ….!” सावित्री ने कर्नल जेम्स को बताया था. “जा कर सारा सरंजाम आप संभालें  ….!” उस ने राय  दी थी. “मैं और राजन  ….!”

“राजन अगर पहले  ….?”

“नहीं  …! हम दोनों ..साथ-साथ आएँगे। ..!” सावित्री का ही निर्णय था.

लंदन डर्बी रेस के लिए जाना ही एक अनौखी घटना थी – उन दोनों के लिए !

सपने थे  ….हार-जीत का भी प्रश्न था  ….व्यापार और व्यवसाय को मूल मान कर सावित्री ने घाटे-मुनाफे को तोला था. जहाँ राजन इन बारीकियों से असंपृक्त था  ….वहीँ सावित्री की  …प्रखर बुद्धि ने हर बारीक बात को ज़मीन पर उतार दिया था. कर्नल जेम्स सावित्री की कार्यकुशलता पर रींझ कर रह गए थे.

“ठीक कहते हैं, लोग  ….कि   …मछली की बेटी को कोई तैरना नहीं सिखाता  ….!” कर्नल जेम्स का रिमार्क था. “सावित्री के संरक्षण में तुम कभी  …धोखा नहीं खाओगे, राजन !” उन्होंने अपना निर्णय जैसा दिया था.

“टिकिट आ गए हैं  ….!” सावित्री ने एक दिन राजन के ऑफिस में आ कर सूचना दी थी. “चाय नहीं पिलाओगे  …?” उस ने हंस कर पूछा था.

“मन तो – व्हिस्की पिलाने का है  ….पर। ..चलो, चाय ही चलेगी … !!” राजन हो,हो कर हंसा था. “सच, साबो   …..! तुम्हारे साथ  ….होनेवाला  …ये  हवाई सफर  ….” उस ने कहीं दूर देखा था.

“का:श  ….!” वह कहते-कहते रुका था.

“का:श  …?”

“कि  ….हम .. कुआंरे …न होते ….?” राजन ने सावित्री की आँखों मैं झाँका था.

सावित्री का आरक्त चेहरा  …..दीप-शिखा-सा जल उठा था  …!

गंगा का पानी  …..बढ़ता ही चला आ रहा था. उफनता ही चला जा रहा था  …! क्षितिज पर प्रभात की लालिमा राजन को सबेरा होने की सूचना दे रही थी. उस ने मुड़ कर पानी के पारावार को देखा था. न जाने कैसे  ….न जाने क्यों  …उसे पारुल का प्रतिबिंब पानी के पेट में उग आया लगा था. साक्षात्  …पारुल ही थी  ….पानी के पेट में हिल-डुल रही थी  …..हंस रही थी  ….मँहक रही थी  …लरज़-लरज़ कर उस के गले तक आ रही थी  …..उसे अपनाने के लिए लालायित थी  ….और  …..

“चली क्यों गईं थीं  …….?” राजन ने तुनक कर पूछा था.

“कहाँ गई हूँ  ….?” पारुल की ही मधुर आवाज़ थी. “मैं तो …तुम्हारा ही हिस्सा हूँ  …., राजन !” उस ने कहा था. “मैं ..मैं .. !” राजन अब कुछ सुन न पा रहा था.

पानी में तैरती परछाइयों पर राजन की आँखें टिकी थीं. पारुल कभी बनती  ….तो कभी मिटती  ….कभी लंबी हो जाती  …तो कभी बौनी  …! उस की मुस्कराहट  ….लगातार राजन के जहन में  …समाती चली जा रही थी  ….! उस का प्रतबिंब पानी के उफान के साथ-साथ ऊपर आता चला जा रहा था……समीप आता जा रहा था , राजन के  …

“आओ,आओ   …..!” राजन ने अपनी बाँहें पसार कर पारुल का स्वागत किया था. “कम,कम .. , माई डार्लिंग  ….पारुल  ….! तुम नहीं जानतीं कि  …कि  मैं  …कि  …मेरा तुम्हारे बिना  …..क्या हाल है  ….?” वह रुका था. सहसा उसे सावित्री याद हो आई थी. “देखा  …! मुझे  धक्का दे कर  …गाडी से बाहर फ़ेंक दिया  …! चली गई  ….!!” राजन शिकायत कर रहा था. “आ-ओ  …! अब हम कभी  …जुदा न होंगे  …!” उस ने पारुल के प्रतिबिम्ब को अपनी बांहो में समेटने का प्रयत्न किया था.

और राजन गंगा की उफनती काया में डूबने लगा था. वह फिसल कर पानी में गिर गया था. वह बेहोश हो गया था  ….वह  …..

तीन गोता-खोर हुगली पर खड़े लांच से पानी में कूदे थे. उन्होंने फुर्ती के साथ राजन को बहने से बचा लिया था. बोट में डाल कर …उसे लांच पर खींच लिया था.

“राजन ने आत्महत्या करने की कोशिश क्यों की  ….?” कलकत्ता शहर के अखबारों के प्रथम पृष्ठों पर प्रश्न छपा था.

सावित्री ने पढ़ा तो  …उस की जान सूख गई थी  ….!

राजन का आगत-विगत  …..सब एक बार फिर लोगों को पढने को मिला था।  लोग सोचने पर मज़बूर थे कि  …..उन का राजन  ….उन का हीरो  ….उन का वो ज़ा-बाज़ जॉकी  ….क्यों और कैसे  ….मरने के लिए  – मज़बूर था  ….?

क्या सावित्री  …..सेठ धन्नामल की इकलौती बेटी  ….और बिज़निस टायकून  …इस का कारण हो सकती थी  …?

क्रमशः  …..

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