भाग – ४४

गतांक से आगे …..

चकित और चुप -चाप बैठा राजन अचानक कुछ आती आवाजें सुनने लगा था .

“घोड़ों की लीद बेच कर …हीरे-पन्ने मिलते हैं , क्या …? ” छीतर था. वह हंसे जा रहा था . “चलो अच्छा हुआ ! तुमने घोड़ों से जांन छुड़ा ली .” वह प्रसन्न था . “माल तो सेठ का ही था !” वह जोरों से हंसा था . “तुम्हारी तो किस्मत ही कमाती है , साले !”आश्चर्य था छीतर की आँखों में . “कहाँ …से कहाँ …..आ पहुंचे ….? अब महारानी ….तुम्हारी – रानी …!! उस बेचारी सेठ की मुल्मुल्ला -सी छोरी …को छोड़ दिया …? कमीने हो , तुम !” वह गरिआने लगा था .”तुम किसी के भी सगे नहीं हो , साले !!मैं तो पहले ही तुम्हें पहचान गया था …..”

“जलते…हो …!” राजन ने विंहस कर का था .”यहीं …रहोगे …तुम …” कह कर राजन ने विचार को बदल दिया था .

लेकिन राजन को आज चाहिए तो हीरे -पन्ने ही थे …! बहुत धन चाहिए था – उसे . विचित्र -लोक बातों से नहीं बनना था . और जो राजन को मिला था …वह तो ऊंट के मुंह में जीरा था !उम्मीद से भी बहुत कम प्राप्त हुआ था . उसे धन तो चाहिए था ! सोचा- पारुल से मांग ले .पर विचार जमा नहीं . सावित्री याद आई . पर वह सावित्री की चौखट पर जमा ही खड़ा रह गया . कर्नल जेम्स का तो अत्ता-पत्ता ही …नहीं था !

और उस का -था ही कौन ….? किसे पुकारता – राजन ….?

लेकिन पैसा तो चाहिए ही था ! विचित्र लोक तो बनना था …..हर कीमत पर बनना था !

“तुम्हारी तो …किस्मत कमाती है,साले !”छीतर की आवाजें उस के दिमाग में गूंजीं थीं .वह दंग रह गया था .

“ठीक कहते हो ,मित्र !” राजन ने प्रसन्न होकर उत्तर दिया था .”किस्मत का दिया ही खाता हूँ .” उस ने स्वीकारा था .”और …अब फिर …किस्मत को ही पुकारूँगा …आजमाऊंगा ….और किस्मत …” राजन प्रफुल्लित हो उठा था .

मात्र एक विचार ने …एक तर्कीब ने …राजन के अंतर -बाहर को आंदोलित कर दिया था . उसे आदि से अंत -तक सब नज़र आ गया था !उसे जच गया था कि …उस का कल्पित विचित्र लोक अवश्य ही जन्मेगा …

“अचानक .ये ..क्या सूझी ….?” पारुल ने चौंक कर पूछा था . “हनीमून का प्रोग्राम तो …था ही नहीं ….?अब क्यों …?” उस ने सीधा राजन की आँखों में घूरा था .

“इस लिए …योर हाइनेस ….कि …आपने …नई….शादी की है !” राजन हंस रहा था. “इस लिए मेरी मलिका कि …मैंने …भी शादी की है !!और मैं चाहता हूँ ….चंद पल …कुछ दिन …वक्त का एक हिस्सा …अपनी मीठी -मीठी …पारुल के साथ सुकून से बिताऊँ ….! जिन्दगी की …इस किच -किच से … काम की इस खिट -खिट से …और घाटे-मुनाफे के इस भूत से मुक्त हो कर …हम दोनों ..उड़ जांय …कहीं …….”

“कहाँ….>”

“लास वेगस….!!अमेरिका….यूरोप ….!!” वह रुका था. “और …जहाँ …हमारी मलिका कहें …वहां ….!”

“पर ….राजू ….”

“ग्रांट मी ……माई …विश …, डार्लिंग !” राजन ने भावुक हो कर संवाद बोला था .”हमने पहली बार ही आप से कुछ माँगा है ! और शायद …..”

“ग्रानटड….!!” पारुल ने अति प्रसन्न हो कर कहा था .”चलो…,चलते हैं ….!” पारुल ने राजन की आँखों में देखा था .”कहीं …दूर ….बहुत दूर …जा कर …सुस्ताते हैं !!” पारुल का भी सुझाव था . उसे भी जैसे कोई मांगी मुराद मिल गई थी .

“और दाव लगाते हैं …!” के मात्र विचार से ही राजन की आँखें शरारत से भरीं थीं . वह अब संवाद स्वयं से ही बोल रहा था. वह पारुल को तो भनक तक न लगने देना चाहता था .”हाँ,हाँ ! दाव लगाते हैं ! किस्मत आजमाते हैं ….! देती है – किस्मत …? ज़रूर-ज़रूर ….निहाल करेगी …अपने राजन को …! मैं तो किस्मत का धनी हूँ….” वह पारुल को देखे जा रहा था -अपलक !

और पारुल को न जाने कैसे सेकिया का उतरा -उतरा चेहरा याद हो आया था . कहने भर के लिए ही सेकिया महाराज कुमार था ! था तो …कोरा कंगाल …! रियासत का काम ले- दे कर ही चल पाता था.राज माता जोड़ -तोड़ कर ही तंत्र को चला रहीं थीं . लेकिन माँ-बेटे चक्रवर्ती सम्राट बनने के स्वप्न से चिपके बैठे थे !’हाहा हा ‘ हंसी छूट गई थी – पारुल की . कितना पुराना प्रयास था …..? वह वक्त तो कब का जा चुका था ….? लेकिन ये …दो माँ-बेटे ……?

आज होते …तो बात ही कुछ और होती ….!!

लास वेगस में उतरते ही खबर उड़ गई थी …कि राजन …किंग -ऑफ़ -किंग्स …पत्ते-मास्टर ….और जादूगर …फिर लौटा है …! लेकिन उस के साथ ..सावित्री नहीं ….कोई और है !! नया माल है ! कोई महारानी है ….!!

“चलो, इसे तो लूट ही लेते हैं !महारानी ….मीन्स – महारानी …!!” लास वेगस में एक सामूहिक इरादा उठ बैठा था…!!!

लॉस वेगस राजन के लिए अब नया न रह गया था . उस ने न जाने कितनी बार यहाँ आ-आ कर सब भीतर-बाहर का देख लिया था .हाँ ! आज राजन के लिए ‘मौका -मुबारक’ वाली बात ज़रूर थी ! आज के दिन को वो ‘फाइनल किल’ के अंदाज़ में घोषित करना चाहता था . वह चाहता था कि ..इस दिन के बाद ..अगला दिन वो अपने विचित्र लोक में ……

लेकिन पारुल के लिए तो ये सब अजूबा ही था ! पारुल बहुत उत्साहित थी .पारुल के उल्लास का कोई ठिकाना न था . पारुल एक आज़ाद पंछी की तरह चाहती थी कि …वहां के हर कंगूरे पर जा-जा कर बैठे …और देखे …महसूसे ….अंदाज़ लगाए कि ..यहाँ लोग किस तरह का जीवन जी रहे थे …कैसे-कैसे आमोद -प्रमोद में मस्त थे …और क्या-क्या साधन -प्रसाधन थे -जिन्हें ये लोग अपनाते थे …मोद मनाते थे -रात-दिन !! कैसे ये एक उमंग और उल्लास को जीते थे -हर दिन ….

राजन ने आज नए अंदाज़ से गेम को उठाया था !

पत्ते बांटे थे .खेल चला था. हार-जीत के सिलसिले उठ खड़े हुए थे . एक आश्चर्य की उमंग हौले -हौले हौल में भरती रही थी . कई बार राजन ने बे-फिकरी के साथ पत्ते फेंटे थे …तो कई बार पागलों जैसी गलतियाँ भी कीं थीं ! ‘हलके मूड में है ,माटर !’ लोगों ने जज किया था . ‘महारानी को इम्प्रेस कर रहा है,स्याला !’ उन का अनुमान था .

पारुल को भी खेल पसंद आने लगा था . कभी हार …तो कभी जीत ! कभी आशा …तो कभी निराशा ! हंसी-ठहाके …और हो-हल्ला भी खेल का हिस्सा बने थे !लेकिन राजा की आँख सब कुछ ताडती चली जा रही थी . आज वह कुछ ऐसा खेल खेलना चाहता था …जो लॉस वेगस आने वाले वक्त के लिए -बचा कर रख ले !

“लो ! कर दिया …डबल !” राजन ने सामने वाले खिलाड़ी को समझते हुए कहा था . “री-डबल ….और …फिर डबल …!” राजन नारे जैसे लगाने लगा था . लोग अचानक राजन के खेल के प्रति आकर्षित हुए थे . “है,दम …..?” उस ने पूछा था .

“दम देखना है …..?”प्रतिद्वंदी ने हँसते हुए पूछा था . “दिखाता हूँ ,दम !!” उस ने अपने इरादे बताए थे . “ले ….,चल !!” उस ने भी अपने स्टेक बढाना आरंभ किया था.

पारुल तनिक सतर्क हो गई थी . उसे एहसास हुआ था कि …अब राजन आर-पार कर के ही उठेगा ! और हुआ भी वही . बोलियाँ आसमान पर जा पहुँचीं .राजन ने सब कुछ दाव पर लगा दिया . लेकिन वह अब भी चाहता था कि ..सौदा और भी ऊंचा जाए !

“लगाते हो , उसे ……?” वही पुराना प्रश्न था . वही ….वही …मांग थी …जो सावित्री के लिए …सामने आई थी . लेकिन राजन ने आज प्रतिक्रिया में मेज पर मुक्का नहीं मारा था . उस ने मात्र पारुल की ओर देखा भर था !

सहसा हर आँख उठ कर अब पारुल को ही देख रही थी. पारुल साक्षात परी लोक से आई कोई अपसरा दिख रही थी . पारुल के हुस्न की आंच में जुआरियों के मन जल रहे थे ! उन की भावनाएं उबाल खा रहीं थीं . कौन नहीं चाहेगा – पारुल को पाना ….? महारानी थी …….पारुल !!अमूल्य थी ……पारुल ….!!!

युधिष्ठिर ने एक बार फिर से…महारानी द्रौपदी को दाव पर लगा दिया था !!

पारुल के होंठ सूख गए थे . पारुल बे-दम होने को थी . पारुल कब चाहती थी कि उसे राजन जुए के दाव पर लगा देता ?

लेकिन धन की वर्षा होने लगी थी . खेल आसमान पर जा टंगा था .लोगो ने खूब बढ़- चढ़ कर पैसा फेंका था .न जाने कैसे प्रतिद्वंदियों को पता था कि आज मास्टर खाली था …..फोका था …ब्लाइंड खेल रहा था ….और ….

“महारानी मेरी होगी, गोगा …..” किसी ने जोरों से बात को हवा में उछाला था .

“शो …..!!” उत्तर में राजन ने घोषणा की थी .

एक विकट खामोशी को तोड़ते हुए …’शो ‘ का प्रदर्शन हुआ था .

“तीन ….बादशाह …..!!” आवाज़ आई थी .

राजन ने एक उडती निगाह फेंक कर पारुल को देखा था . पारुल का दम सूख गया था .

“इ..क्के…..! एक …..दो ….” राजन की घोषणा थी .

अजूबा आज फिर घट गया था . राजन सर्वस्व का मालिक था . इंद्र का ऐश्वर्य चल कर उस के पास आया था . पारुल ने निसार होती निगाहों से उसे जय-माला पहनाई थी . उस ने अंततः आज राजन को मन-प्राण से वर लिया था .

कलकत्ता शहर राजन के कहानी-किस्सों से एक बार फिर गूँज उठा था . उन का हीरो -फिर एक बार लॉस वेगस को लूट लाया था ! लेकिन राजन के साथ छपे पारुल के चित्र को देख कर कोई चौंका था …..

सावित्री ….कलकत्ता की बेटी – सावित्री कहाँ थी ….?

प्रश्न तो था ….पर कोई उत्तर देने वाला न था ….

क्रमशः …

मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

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