हमारा पारिवारिक जीवन और क़ानू -मानू के साथ मस्ती-भरे दिन यूँहीं चल रहे थे, वो ही सवेरे बच्चों का स्कूल के लिए जाना, और हमारा और क़ानू का दीदी भईया को टाटा बोलने स्टॉप तक जाना। याद से चैन और पट्टे में ही लेकर जाया करते थे हम क़ानू को। वैसे तो कभी-कभी बिना चैन और पट्टे के भी घूम लिया करती थी..मेरी क़ानू पर सुबह के समय सभी अड़ोसी-पड़ोसी अपने बच्चों को लिए बस स्टॉप पर ख़ड़े होते हैं,और सुबह का ही समय ऐसा होता है, जब लोग अपने डॉग्स को बाहर घुमाने के लिए लाते हैं, सड़क पर तमाशा खड़ा न हो इसलिए भी हम क़ानू को चैन और पट्टे सहित लेकर निकलते थे। खैर!यूँहीं घूमते फ़िरते और उछलते कूदते मस्ती भरे दिन गुज़र रहे थे,क़ानू के संग।
एक दिन हुआ यूँ की शाम के समय हम रोज़ की तरह अपनी क़ानू को घुमा रहे थे, कि हमारी पड़ोसिन जिनके पास खुद भी Pomeranian डॉग है, वहाँ आना हुआ। हमारी पड़ोसिन भी अपने कुत्ते को चैन और पट्टे में लेकर वहाँ आई थी। प्यारा सा डॉग है हमारी पड़ोसिन का..डॉगी का नाम जैरी है, और हमारी पड़ौसन जो हैं,वो सुनिताजी हैं। बस!तो आपस में जब हम सुनीता जी से टकरा ही गये थे,तो बातचीत तो निश्चित थी ही, हम क़ानू को लिए ख़ड़े थे,और सुनिताजी के हाथ में जैरी की चैन थी। जैरी क़ानू के साथ खेलना चाह रहा था, भोंक-भोंक कर क़ानू को खेलने के लिए आमंत्रित कर रहा था, पर क़ानू ने बिल्कुल भी घास न डाली जैरी को, और अपनी गर्दन को पट्टे में से खींचते हुए हमें घर वापिस चलने के लिए कहने लगी, हमें सुनिताजी से बिल्कुल बात न करने देना चाहती थी। पर सुनिताजी हमसे कुछ ज़रूरी बात करना चाहती थीं, इसलिए हमनें क़ानू का पट्टा दूसरी तरफ़ पेड़ से बाँध क़ानू को वहाँ खेलने के लिए छोड़ दिया। और हम सुनिताजी के पास आकर ख़ड़े हो गए थे, हालाँकि क़ानू हमें पेड़ के नीचे से ज़ोर-ज़ोर से भोंक-भोंक कर बुला रही थी, पर भई पड़ोस भी तो कुछ होता है, सुनिताजी की बात तो हमें सुननी ही थी। हाँ! तो सुनिताजी का कहना था,”हम सब पड़ोसियों ने और कॉलोनी के प्रेसिडेंट ने पिकनिक का प्रोग्राम बनाया है, पिकनिक हिल स्टेशन पर होगी”। सुनिताजी के भाई साहब का अपना होटल है, देहरादून में..सुनिताजी ने हम आठ-दस पड़ोसियों की लिस्ट हमारे हाथ में थमा दी जिसमें हमारे परिवार का भी नाम था। अपना नाम लिस्ट में देखते ही हमारे मुहँ से निकला था,”हम तो न जा पाएँगे हमारी क़ानू इतने दिन के लिए अकेली कैसे रहेगी,लॉक तो करके जा नहीं सकते”। हमारा इतना ही कहना था, की सुनिताजी ने तपाक से उत्तर दिया था, “अरे!क़ानू की आप चिन्ता मत कीजिये हम भी तो हमारे जैरी को अपने साथ लेकर जा रहें हैं। ठीक उसी तरह से क़ानू भी चल पड़ेगी”। और हमारा कहना हुआ था,”ट्रेन में'” सुनिताजी का कहना हुआ था,”हाँ! चिन्ता मत कीजिये हम पर छोड़ दीजिए”। बातचीत का सिलसिला ख़त्म होते ही हम क़ानू को लेकर घर आ गए थे,और जैरी भी अपने घर चला गया था।
शाम को जब पतिदेव का घर आना हुआ था, तो हमारी शाम के चाय नाश्ते के वक्त परिवार में केवल एक ही बातचीत का विषय था…और वो क़ानू संग पिकनिक वो भी रेल में। हमारी बात सुनते ही बच्चे तो उछल ही पड़े थे, खुशी के मारे मुहँ से निकल पड़ा था, “हुर्रे! क़ानू भी हमारे साथ ट्रेन में चलेगी..खूब मज़े करेंगे”। अब मज़े तक तो ठीक था, पहले कभी ऐसा न हुआ था,कि हमें क़ानू को ट्रेन में लेकर जाना पड़े। खैर! हमारे पतिदेव ने सारी बात सुनकर हमें यही सलाह दी थी”घबराने वाली क्या बात है, सुनिताजी भी तो हर साल जैरी को लेकर ट्रेन में जाती ही हैं, सो हम भी चल पड़ेंगे बस तुम थोड़ा सा तरीका पूछ लेना। अब पिकनिक के लिए तो मना कर नहीं सकते, बच्चों का भी मन है,और हमारा भी मन हो आया है,पड़ोस वाले भाई साहब भी चल रहे हैं, सभी का चेंज हो जाएगा.. चलते हैं”।
अड़ोसी-पड़ोसियों से मिलकर पिकनिक की सारी बातचीत तय हो गयी थी, कॉलोनी के प्रेसिडेन्ट ने सभी की रेल की टिकट बुकिंग की वयवस्था भी कर ही ली थी। अब सवाल खड़ा हो गया था,मेरी प्यारी क़ानू का। हमनें तुरन्त ही इंटरनेट पर सर्च किया कि कुत्तों को रेल में कैसे ले जाया जाता है। सर्च करने पर पता चला कि यदि फस्ट A. C हो या फ़िर फर्स्ट क्लास हो तो कुत्तों को आप अपने साथ ही कम्पार्टमेंट में रख सकते हैं, नहीं तो डॉग बॉक्स या फ़िर गॉर्ड रूम में कुत्ते जाते हैं। यह सारी जानकारी हासिल कर हमनें सुनिताजी से उनके कुत्ते जैरी के विषय में बातचीत की थी, कि वो किस तरह से जैरी को ट्रेन में लेकर जायेंगी। सुनिताजी का कहना था,कि”फर्स्ट क्लास व फर्स्ट A. C का किराया बहुत होता है, इतना किराया तो कॉलोनी वाले सभी पड़ोसियों के लिए अफ़्फोर्ड न कर पायेंगे इसलिए सेकंड या फ़िर थर्ड A. C में ही चलना पड़ेगा। रही बात क़ानू और जैरी की तो उनका कहना था, कि “हर साल हम जैरी को डॉग बॉक्स में न ले जाकर गॉर्ड रूम में ही ले जाते हैं, जैरी गॉर्ड रूम में खुश भी रहता है, बस, खाना पीना वहाँ रखना पड़ता है। हमारे भी दिमाग़ में गॉर्ड रूम ही बैठ गया था,बस!अपनी प्यारी और नन्ही सी क़ानू को लेकर थोड़ा डर ज़रूर रहे थे। कभी गई न है, यूँ रेल में।हमें तो यूँ था, की ट्रेन में गॉर्ड रूम होता होगा जिसमें हमारी क़ानू आराम से देहरादून तक चली जायेगी।सब कुछ सोचते हुए हमनें सुनिताजी को हाँ! कहा,और कॉलोनी के प्रेजिडेंट से पूरे परिवार सहित क़ानू की भी गॉर्ड रूम की टिकट करवाने के पैसे हमनें करवा दिए थे।
अब तो हमारे पूरे परिवार की देहरादून पूरे पड़ोसियों संग पिकनिक चलने के तैयारी जोरों पर थी, और हो भी क्यों न हमारी क़ानू-मानू भी जो संग चल रहीं थीं। हमने क़ानू के खाने पीने का अलग से रेल के लिए इंतेज़ाम कर दिया था। परिवार के सभी सदस्यों ने पिकनिक मुताबिक अपनी अलग-अलग पैकिंग कर ली थी।बस! थोड़ी चिन्ता हमे क़ानू की ही थी, क्योंकि कभी हमने कुत्तों के लिए गॉर्ड रूम देखा तो था ही नहीं।
चलो ! भई पिकनिक वाला दिन आ ही गया, हम सभी पड़ोसी बस में बैठ स्टेशन की ओर चल पड़े थे। बात क़ानू की आयी थी, तो मेरा काना तो बस में बैठते ही भोंक- भोंक कर हंगामा मचा देती इसलिए मेरे पतिदेव ने क़ानू को स्टेशन तक ले जाने के कार निकाल ली थी,और कहने लगे,”बस में हंगामा न हो और वैसे भी किसी को काट -वाट लिया तो यहीं लेने का देना पड़ जायेगा, रिस्क नहीं लेंगें वहीं स्टेशन पर गाड़ी लॉक कर देंगें,वापिसी में भी नन्ही क़ानू कार में ही घर आ जायेगी। और हाँ! जैरी को भी साथ बिठा लेते हैं, अब शर्माजी अपनी कार क्या निकालेंगे एक ही गाड़ी ठीक है”। चलो भई हो गया था,तय क़ानू और जैरी कार में और हम सब बस में बैठ स्टेशन पहुँच गए थे।
स्टेशन पहुँच कर क़ानू को थोड़ा सा अजीब सा लगने लगा था, भीड़-भाड़ देखकर, ज़ोर-ज़ोर से भोंकने लगी थी, जैरी तो एकदम शान्त था, खुशी में अपनी पूँछ हिला रहा था…आदत जो थी जैरी को रेल में सफर करने की। सुनिताजी के मुताबिक जैरी अक्सर उनके साथ रेल में देहरादून आया जाया करता था। सुनिताजी का कहना था,”मस्त रहता है, जैरी गॉर्ड रूम में बीच में कोई न कोई जा कर देख आता है”। अब यह गॉर्ड रूम वाला सरप्राइज ही बाकी रह गया था, हमारा देखना, सो भइया हम तो अपने पतिदेव के साथ क़ानू को संभाल कर ले जाते हुए उस गॉर्ड रूम में ही पहुँच गए थे, देखते क्या हैं…असल में गॉर्ड वैन है,जहाँ पर डॉग बॉक्सेस होते हैं। एक डॉग बॉक्स जो क़ानू के लिए बुक हुआ था, उसी में क़ानू को देहरादून तक जाना था।खाना पीना क़ानू का हमें ही देना था। क्या बतायें हमनें तो सोचा था, गॉर्ड रूम होता होगा खेलती कूदती जाएगी मेरी प्यारी क़ानू रानी। पर यह तो उल्टा ही निकला बॉक्स के अन्दर बिठा दिया गया था, क़ानू को ..जैरी तो ठीक-ठाक था पर क़ानू भोंक रही थी, और उसे डॉग बॉक्स में बिल्कुल भी अच्छा न लग रहा था। अपनी नन्ही क़ानू को उस बॉक्स में कैद देख हम भी काफ़ी परेशान हो रहे थे, ऐसा लग रहा था, मानो हमसे भोंकते हुए कह रही हो,”माँ! अपने ही साथ बिठा लो, ऐसे कैद में बैठ कर नहीं जायेंगे हम पिकनिक जैरी को बैठा रहने दो पर हम तो आपके साथ ही बैठेंगे”। पर क्या करते बुकिंग तो गॉर्ड वैन में डॉग बॉक्स की ही थी। पतिदेव ने क़ानू को बिठाने के बाद कहा था”यहीं खड़ी रहोगी या चोलोगी भी, गाड़ी निकल जायेगी हमें भी तो अपनी कोच में बैठना है, चलो भई कुछ न होगा तुम्हारी प्यारी क़ानू को”। और हमें खींचते हुए हमारे कोच की तरफ ले गए थे।
सभी हमारे पड़ोसी पिकनिक के फूल मूड में आ गए थे, हमारी सब की सीटें आसपास ही थीं, ट्रेन चल पड़ी थी….और हमारा मन क़ानू में ही अटक कर रह गया था। अब क्या करते सबके बीच में बैठ कर ज़्यादा बोल भी न सकते थे। हमारी रेल अब देहरादून पहुँच चुकी थी,हमनें तो आँव देखा था न तांव दौड़कर पतिदेव के साथ गॉर्ड वैन में पहुँचे थे, देखा तो मेरा काना-माना बिल्कुल मुरझाया हुआ था,उस डॉग बॉक्स से बाहर निकाल हमनें ढ़ेर सारा प्यार किया था,अपनी क़ानू से। गले से लगाकर हमनें अपनी प्यारी भोली और मासूम सी क़ानू की आँखों में देखकर कहा था,”भाड़ में गया डॉग बॉक्स और यह गॉर्ड वैन, अपने ही साथ वापिस लेकर जायेंगे, नहीं तो यहीं अपनी क़ानू-मानू के साथ देहरादून में ही रहेंगें”। हमारे पतिदेव हमारी ही साइड में ख़ड़े थे ..हमें यूँ क़ानू को गले से लगाते देख थोड़ा सा मुस्कुरा दिए थे, और कहने लगे थे,”बेकार का बखेड़ा खड़ा कर रही हो, जैरी भी तो है”। हमने भी कह दिया था,”आदत है, इसको तो डॉग बॉक्स में आने जाने की, मेरी क़ानू ऐसी वैसी थोड़े ही है”।
खैर! अब हम सब यहाँ पर देहरादून में सुनिताजी के भाई के होटल पहुँच चुके थे। वाकई मस्त और शान्त जगह है, देहरादून। क़ानू को हमनें खुले में उनके गार्डन में छोड़ दिया था। अब तो क़ानू ने ना-ना करते हुए जैरी के साथ थोड़ी सी दोस्ती कर ही ली थी। क़ानू तो खूब तेज़-तेज़ भाग कर गार्डन में एन्जॉय करने लग गयी थी। क़ानू को देखकर ऐसा लग रहा था,कि न जाने कौन सी जेल से रिहा हुई है। हरी-हरी झाड़ियों में घुस-घुस कर खूब मज़े करती दिख रही थी। दूर से देखने पर सफ़ेद उन का गोला और काली गुलाब-जामुन जैसी नाक मुझे बहुत ही प्यारी लग रही थी। क़ानू तो अब अपनी पिंक कलर की जीभ साइड में लटका कर फुल पिकनिक के मूड में आ गयी थी। सच!,बहुत ही प्यारी लग रही थी मेरी क़ानू यूँ रैबिट की तरह इधर-उधर भाग-भाग कर खेलती-कूदती हुई।
हमनें भी देहरादून में सभी पड़ोसियों के साथ खूब एन्जॉय किया। सुनिताजी के भाई साहब ने हमारे सबके ठहरने और देहरादून घुमाने का बेहतर इंतेज़ाम कर रखा था,और करते भी क्यों न अच्छे ख़ासे होटल के मालिक जो ठहरे। क़ानू ने भी खूब मस्ती करी, हमनें अपनी क़ानू और जैरी के साथ बहुत से यादगार के तौर पर फोटो भी खिंचवाए थे। एक दो दिन वहीं रुकने के बाद अब हमें वापिस भोपाल आना था, जैरी का तो ठीक था, वही डॉग बॉक्स, पर हम अपनी क़ानू के लिए पतिदेव से ज़िद्द कर बैठे थे, कि “जाएंगे तो क़ानू को साथ लेकर किसी डॉग बॉक्स में न बैठेगी मेरी क़ानू। आप तो फर्स्ट क्लास का टिकट करवाओ, नहीं तो हमें न जाना है, वापिस”।हरी-भरी वादियों में एक अच्छी सी पिकनिक मनाने से पतिदेव का मूड थोड़ा चेंज हो गया था,और उनके विचारों में थोड़ा सा नयापन हमनें महसूस किया था, हो जाता है,इतनी अच्छी जगह और इतने अच्छे लोगों के साथ कभी-कभी इंसान में बदलाव आ जाता है।
खैर!पैसों की परवाह न करते हुए हमारा और हमारी क़ानू के प्रति लगाव देखते हुए,पतिदेव न तय कर लिया था, “सबको चले जाने देते हैं, मैं शर्माजी से माफ़ी माँग लूँगा, और हम क़ानू के साथ फर्स्ट क्लास में ही जायेंगे, कोई डॉग बॉक्स नहीं इस बार”।पतिदेव द्वारा इस फैसले को सुनते ही हमारे चेहरे पर मुस्कान आ गई थी। मेरी क़ानू उस हमारी ही गोद में स्टफ टॉय बनकर बैठी हुई थी, प्यार में हमनें क़ानू के मुलायम से प्यारे गाल पर मीठी सी पप्पी दी थी..क़ानू ने भी अपनी पिंक कलर की जीभ से हमारे गाल को हल्का सा चाट कर अपने प्यार का इज़हार किया था।
वापिसी का दिन आ गया था, सुनिताजी के भाई साहब का शुक्रिया अदा करते हुए अपने परिवार और सबसे प्यारी सदस्या क़ानू को लिए हम स्टेशन की ओर रवाना हुए थे। इस बार तो हमारी फर्स्ट क्लास की बुकिंग थी, और मेरा कान माना हमारे साथ बैठ कर जाने वाला था। फ़िर क्या था, हम सब क़ानू सहित कम्पार्टमेंट के अन्दर बैठ चुके थे…और हमारी रेल चल चुकी थी। हम सबको अपने साथ बैठा देख क़ानू बेहद खुश हो रही थी। क़ानू के लिए वो रेल का फर्स्ट क्लास का कम्पार्टमेंट किसी चलते-फ़िरते कमरे की तरह था, जहाँ वो अपने माँ पिताजी और दीदी भइया के साथ उछल-उछल कर खूब एन्जॉय कर रही थी। एक बर्थ से दूसरे बर्थ में कूद क़ानू अपनी पिंक कलर की जीभ साइड में लटका कर क़ानू-मानू हमारे साथ खूब एन्जॉय कर रही थी। खाने के भी मज़े क़ानू अपने ही ढँग से लिए जा रही थी रेल में। बच्चों ने भी खूब मस्ती की क़ानू संग रेल में, और अपने और क़ानू के उस फर्स्ट क्लास के कॉम्पेटमेंट में यादगार के तौर पर वीडियो रील व फोटो उतारे।
इसी तरह क़ानू संग खेलते-कूदते हमारी रेलगाड़ी भोपाल स्टेशन पर आ पहुँची थी। और हम अपने परिवार और अपने परिवार की सबसे प्यारी सदस्या क़ानू को और देहरादून की हरी-भरी यादों को लिए अपनी कार में वापिस अपने घर आ चुके थे। क़ानू और बच्चों की खुशी का ठिकाना न था,और ज़िन्दगी के फर्स्ट क्लास के कम्पार्टमेंट में बैठ हमारी रेलगाड़ी फ़िर से चल पड़ी थी, हमारी प्यारी और सबसे सुन्दर क़ानू के साथ।

