पहले जब बच्चे छोटे हुआ करते थे… तो हम अक्सर ही मायके चक्कर लगा कर आ जाया करते थे.. हर गर्मियों की छुट्टियों में दो महीने से कम नहीं रहा करते थे.. माँ के घर। जैसे- जैसे बच्चे बड़े हुए, उनकी स्कूलों की पढ़ाई बढ़ गई.. और हमारा माँ के घर और बच्चों का नानी के घर जाना थोड़ा सा कम हो गया था। बच्चे पढ़ाई में व्यस्त रहने लग गए.. और हम अपने काम-काज में। माँ! हमें अक्सर ही फ़ोन पर पूछने लगीं थीं,” समय निकालकर आ जाया करो!.. कभी.. पहले की तरह, तुम्हारी बहुत याद आती है!”।

“ आ जाएंगे माँ!.. अब बच्चों की पढ़ाई भी है.. और तुम तो जानती ही हो.. कि घर के काम-काज तो हैं, ही।” हमनें माँ से कहा था।

धीरे-धीरे बच्चे बड़े हो गए.. और अपना काम स्वयं करने लगे.. “ अब हम पहले की तरह से ही माँ के घर रहने चले जाया करेंगें.. “ हमनें सोचा था।

बच्चे बड़े होने के बाद माँ के घर रहने की प्लांनिंग तो हमनें कर डाली थी.. पर परमात्मा की योजना कुछ और ही निकली.. हमारी गोद में उन्होंने एक और छोटा सा और प्यारा सा बच्चा हमारी प्यारी और दुलारी कानू के रूप में रख दिया। अब तो हमें साँस लेने की भी फुर्सत नहीं मिल रही थी। अपनी लाड़ली कानू की देखभाल करने में जो बिज़ी हो गये थे.. हम। माँ के घर भी हम अक़्सर फ़ोन पर क़ानू के किस्से सुनाने लगे थे.. और कानू की व्हाट्सएप पर अक्सर ही प्यारी सी तस्वीर डाल दिया करते थे.. जिसे सभी घर के सदस्य देख कर खुश हो जाया करते थे.. और हमें हमारी क़ानू को लेकर कॉम्पलिमेंट भी दे ही दिया करते थे,” सच! बहुत ही प्यारी सी डॉगी पाली है.. तुमनें!.. हमें भी कानू बहुत ही प्यारी लगती है”।

बाकी सब तो ठीक था.. पर अपने मायके वालों का कानू को डॉगी बोलना हमें बिल्कुल भी पसन्द नहीं था.. वैसे तो हमनें समझा रखा था.. कि कानू डॉगी नहीं रिश्ते में आप लोगों की भी भानजी और नातिन लगती है। हमारी इस बात पर हमारे घर वाले बहुत ही ज़ोरों का ठहाका लगाया करते.. पर हमसे बिना ही कुछ कहे कह दिया करते थे,” अच्छा! भई! मान गए हम तुम्हारा कहना! अब से प्यारी कानू से हम तुम्हारा वाला ही रिश्ता रखेंगें.. बहन और भानजी का.. न कहेंगें कानू को.. आगे से डॉगी!”।

अब हुआ यूँ की किसी काम से हमारे पिताजी और भाईसाहब का भोपाल आने का कार्यक्रम अचानक से ही बन गया.. और उन्होंने सोचा इसी बहाने से हमसे भी मिलते हुए चले जायेंगे.. सो! उन्होंने हमें अपने आने की ख़बर फ़ोन पर पहले से ही कर दी थी।अब अचानक मायके से कोई आये तो मन में खुशी तो होती ही है। हमनें बच्चों को और पतिदेव को भी ख़बर दे दी थी.. कि एक दिन के लिये तुम्हारे मामाजी और नानाजी किसी काम से और हम लोगों से भी मिलने आ रहे हैं। बच्चे सुनकर बहुत ही खुश हो गए थे.. खुशी में कह उठे थे,” माँ! फ़िर तो नानाजी और मामाजी हमारी कानू से भी मिलेंगें.. वो तो पहली बार देखेंगें न हमारी गुड़िया कानू को!”।

“ हाँ! बिल्कुल मिलेंगें.. प्यारी कानू से..और भई,! तुम्हारी तरह से ही तो हमारी कानू के भी नानाजी और मामाजी हैं”।

हमनें अपनी सुन्दर कानू को अपनी गोद में बिठा लाड़ करते हुए.. बच्चों को समझाया था। अगले ही दिन तो आ रहे थे.. पिताजी और भाईसाहब!.. सो! हम उनके लिये उनकी पसन्द के भोजन की तैयारी में व्यस्त हो गए थे।

आज ही सवेरे की गाड़ी से उन्हें आना था.. हमनें पतिदेव को समय से उठाकर स्टेशन पिताजी और भाईसाहब को लेने भेज दिया था।

“ नमस्ते! पिताजी!.. नमस्ते! भाईसाहब!”। स्वागत करते हुए हमनें कहा था।

“ नमस्ते! नमस्ते!.. अब तुम्हें तो वक्त नहीं मिलता.. परिवार से.. सोचा चलो! हम ही मिलते चलें” पिताजी ने हमसे हमारे बिजी रहने पर कहा था।

आज हमारे घर में रिश्तेदार आए हुए थे.. तो सभी खुश थे.. पर हमनें कानू को ऊपर छत्त पर बाँध दिया था.. अब कुछ भी कह लो!.. है, तो कानू कुत्ता ही.. काट-वाट लेती तो लेने का देना पड़ जाता।खैर! भाईसाहब और पिताजी की उनके मन-पसन्द भोजन से हमनें ख़ातिरदारी करी,और बच्चों ने और पतिदेव ने अपनी मीठी बातों से उनका मन बहलाया था।

“  अरे! हमारी सबसे छोटी और प्यारी भानजी.. कानू कहीं दिखाई नहीं दे रही है.. कहाँ है!”। भाईसाहब ने मुस्कुराते हुए कहा था।

हमनें छत्त की तरफ़ इशारा करते हुए कहा था” ऊपर बाँध रखा है.. कहीं काट-वाट न ले”।

“ अरे! ले आओ! अब इतनी दूर से आयें हैं.. तो अपनी प्यारी कानू से भी मिलकर ही जाएँगे.. नहीं कहेगी कुछ!.. तुम ले आओ!.. हम देख लेंगें”। भाईसाहब और पिताजी ने कानू से मिलने की उत्सुकता जताई थी।

और हम कानू का चैन और पट्टा हाथ में लिये.. लाड़ली कानू को छत्त पर लेने चले गए थे। कानू को भी अहसास हो गया था.. कि घर में आज कोई बाहर से आए हुए हैं.. और वैसे भी हम कानू को समझाते हुए ही नीचे लेकर आ रहे थे,” देखो! काना! आप तुप रहना.. आपके नानाजी और मामाजी आए हुए हैं”।

कानू ने भी हमारी बात सुनकर अपनी प्यारी सी पिंक कलर की जीभ साइड में लटका ली थी.. मानो हमसे कह रही हो,” कुछ न बोलेंगें हम, माँ!”।

कानू जैसे ही नीचे आयी थी.. रिश्तेदारों को देख ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगी थी.. भई! अब है.. तो कानू कुत्ता। हमनें कानू को कंट्रोल करने की बहुत कोशिश की.. पर क़ानू का भौंकना बन्द ही नहीं हो रहा था.. आख़िर भाईसाहब उठे और बिना डरे ही क़ानू के सिर पर प्यार भरा हाथ फेर दिया था.. पिताजी ने भी क़ानू से प्यार कर दोस्ती कर ही ली थी। क़ानू भी अपने नाना और मामा का प्यार और रिश्ता समझ अब उनके साथ खेल में व्यस्त हो गई थी। कानू ने अपने नाना और मामा को खुश करने के लिये तितली भी पकड़कर दखाई.. और चिड़िया को डांट अपने रौब वाले अंदाज़ से भी अवगत कराया था।पिताजी और भाईसाहब कानू संग खेलकर बेहद खुश हुए थे। शाम का वक्त हो आया था.. अब उन्हें स्टेशन के लिये निकलना था.. पिताजी और भाईसाहब ने अपने बैग में से चलते वक्त कुछ चॉकलेट्स निकालीं थीं.. और बच्चों में बांट दी थीं। अब उन्होंने एक चॉक्लेट का wrapper खोलते हुए, उसमें से थोड़ी सी तोड़ कर कानू को खिलाई थी.. कानू को चॉकलेट का स्वाद बहुत ही मस्त लगा था.. कानू ने चॉक्लेट खाकर अपनी फ्लॉवर जैसी पूँछ हिलाकर अपने नानाजी और मामाजी का धन्यवाद किया था, और अपनी नन्ही सी जीभ से पिताजी का गाल स्पर्श करते हुए कहा था,” नानाजी हमारी बची हुई चॉक्लेट आप माँ को दे दो!.. हम बाद में खाएँगे”।

पिताजी और  भाईसाहब ने हमारे हाथ में दो चॉक्लेट थमाते हुए कहा था,” ये हमारी सबसे प्यारी और सब बच्चों में न्यारी भानजी और नातिन कानू के लिये”।

कुत्ता होते हुए भी आज हमारी भोली और प्यारी सी कानू का हमारे परिवार से भानजी और नातिन का रिश्ता जुड़ना हमें बेहद अच्छा लगा था। एक बार फ़िर यूँहीं प्यारी कानू के साथ और अपनों के संग कानू के रिश्ते बनाते हम सब चल पड़े थे.. कानू के साथ।