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क़ानू और पड़ोसी

kaanu ke padosi


बचपन से हमनें कभी कुत्ते नहीं पाले, हाँ! छोटे थे, तब मेरे बड़े भाईसाहब को बिल्ली पालने का बेहद शौक था। पर हमें तो न कभी बिल्ली और  न ही कभी कुत्ते ही रास आया करते थे। विवाह के पश्चात भी  भोपाल में मेरी ससुराल मैं हमारा स्वागत परिवारजनों से हुआ था, तो उन परिवारजनों में, तीन प्यारे से कुत्ते भी शामिल थे, ये तीनों भी Pomeranian डॉग्स ही थे, और देखने में भी सुन्दर थे,पर हमनें कभी भी छू कर तक न देखा था, बिल्कुल भी लगाव न हुआ था, हमें इन तीन जीवों से। कभी हम अकेले में बैठकर भी कुत्तों के बारे में कभी भी विचार न करते थे। बच्चे बड़े हुए, तो परिवार के ये तीन सदस्य ईश्वर के पास जा चुके थे, जैसा कि हम सभी जानते हैं, कि कुत्तों की उम्र ज़्यादा न होती है। खैर!क्योंकि परिवार में शुरू से कुत्तों का चलन है, घर में अगर कुत्ता है,तो ठीक नहीं तो बाहर के कुत्तों को ही अपना लिया करते है। परिवार उन तीन सदस्यों यानी के उन कुत्तों के जाने के बाद जिनका नाम शेरू, मोनी और टिंकी था, अक्सर हमनें देखा था, कि गली के कुत्तों को शौक से अन्दर बुला महमान की तरह गेट के अंदर बिठा लिया करते हैं। एक बोरा परमानेंट ही गेट के अन्दर बिछा कर रखा हुआ था, जो भी महमान रूपी कुत्ता आना चाहे आराम से गेट के अन्दर आकर बैठ सकता था, फिर  मेहमानों की ख़ातिर दारी तो रोटी और दूध से की ही जाती थी। यही सब-कुछ परिवार में देख हमारे बच्चे बड़े हुए ,बड़े होने के बाद हमारे सुपुत्र को तो इतना नहीं था, पर हाँ!सुपुत्री को बेहद कुत्तों का पारिवारिक शौक था,और  अड़ोस-पड़ोस में भी लोगों ने कुत्ते अच्छी ब्रीड के पाल रखे थे, माहौल को देखते हुए जैसे-जैसे बिटिया बड़ी हुई बस!कुत्ता पालने की ज़िद्द कर बैठी। हमनें तो बहुत समझाया था, कि कुत्ता तो हम  तुम्हें खरीद कर दे देंगें पर पाल न  पाओगी अकेले। पढ़ाई-लिखाई करोगी की कुत्ता पलोगी, “और हाँ!,कहे देते हैं, हाथ भी न लगायेंगे कुत्ते से”। हर तरह की बहस हमनें अपनी बिटिया से करके देख ली थी,पर बालक बुद्धि पर हमारी बातों का कोई भी असर न पड़ा था, कुत्ता पालना है, मतलब कुत्ता पालना ही है। “चलो भई, न मानोगी लगता है, कह देंगें तुम्हारे पिताजी से, कहीं अच्छी जगह बात कर तुम्हारे लिए मँगवा देंगे कुत्ता”। कुत्ते वाली बात हमनें अपने पतिदेव के कानों में डाल दी थी, ज़ाहिर है, कुत्ता पालना पारिवारिक शौक था, तो बस पतिदेव हमारी बात झट्ट से बिना किसी बहस के मान गए थे। शाम को जब उनका घर लौटना हुआ था, तो उन्होंने हमें भोपाल के बहतरीन कुत्तों के डॉक्टर के विषय में बताया था, कहा था,”यह जानवरों का अच्छा डॉक्टर है, और कुत्ते भी मँगवा के देता है, अगर किसी को चाहिए तो, कहो तो तुम्हें कल ले चलेंगें अपने आप अपनी पसन्द के विषय में बता देना”। पतिदेव की अभी बात भी पूरी न हुई थी, की हमनें बीच में ही टोकते हुए कहा था,”हम क्या करेंगें जा कर, अपनी सुपुत्री को ही साथ लिए जाना, नाक में दम तो इन्होनें ही कर रखा है, हमे तो एक धेले का शौक न है, कुत्ता पालने का, बाप बेटी दोनों मिलकर पालना…कहे देते हैं हाथ भी न लगाएंगे”। खैर!,अगले दिन बच्चे अपने पिताजी के साथ उसी डॉक्टर के यहाँ Pomeranian डॉग का आर्डर देने चले गए। और इसी तरह हमारी क़ानू रानी नन्ही प्यारी परी का आगमन हमारे घर हो गया। अब हमारे तो कहे हुए शब्द सारे ही उल्टे पड़ गए थे,फालतू में ही कहा करते थे…कुत्ता न पालेंगे हाथ भी न लगायेंगे फलाँ, फलाँ। क़ानू से साक्षत्कार होने के बाद सबसे पहले तो हम कुत्ता कहना ही भूल गए थे, क़ानू को देखते ही,”आजा बिटिया, काना!!”मुहँ से निकला था, कुत्ता शब्द तो हमारी डिक्शनरी में से हमेशा के लिए डिलीट हो चुका था। कुछ भी कहो एकदम सफ़ेद रसगुल्ला लगा करती थी ,हमारी क़ानू जब छोटी सी प्यारी सी तितली हमारी गोद में परमात्मा ने डाली थी। मन हुआ करता था, कि इस छोटे से टेस्टी से रसगुल्ले के पीस को टेस्ट करके देखा जाए, तो बस प्यारी सी मीठी-मीठी एक पप्पी दे दिया करते थे, क़ानू के गाल पर।
देखते ही देखते हमारे साथ क़ानू बड़ी होती गई, और क़ानू का सारा टाइम टेबल भी स्वाभविक रूप से बनता चला गया। कब क़ानू-मानू को घुमाना है, कब खिलाना है, इत्यादि। रोज़,सुबह शाम हम क़ानू को टाइम से घुमाने ले जाने लगे थे। क़ानू अब अकेली न थी, जैसे हमारा पड़ोस होता है, और पड़ोसियों से बातचीत होती है, आना-जाना व गप-शप का माहौल बनता है, ठीक उसी तरह क़ानू का भी अपने नए पड़ोसियों से साक्षात्कार हुआ। हालाँकि हम तो अपनी प्यारी क़ानू के पड़ोस से पहले से ही वाकिफ़ रहे हैं, भले ही क़ानू के पड़ोसियों से बकायदा हेलो! हाय! न की हो,पर हाँ!पहचानते सबको हैं।
अब शाम होते ही चैन और पट्टा बाँध हम जैसे ही क़ानू को गेट से बाहर निकाला करते उसी टाइम पर क़ानू के पड़ोसियों का भी आना हुआ करता था, लगभग क़ानू एंड पार्टी का टाइम वही था। अच्छा पड़ोस था हमारी क़ानू बिटिया का। क्या बतायें एक पड़ोसी तो बहुत ही मज़ेदार हुआ करता था, क़ानू -मानू का। यह पड़ोसी था, हमारे बाजू वाले घर मे…अग्रवाल साहब रहा करते हैं, हमारे बाजू वाले मकान में, इन लोगों ने काले रंग का सुन्दर सा कुत्ता पाल रखा था, अब हमें ब्रीड के विषय में ज़्यादा जानकारी न है, पर रंग काला होने के बावजूद बड़ा ही प्यारा लगता था, अब तो खैर!जब से क़ानू आई हमें तो हर कुत्ता प्यारा ही लगने लगा है। अब तो हमारी ज़बान ही फिर गयी है, पता नहीं मेरी क़ानू-मानु ने कोनसा जादू कर दिया है। इस जादू का जिसका के हम शिकार हुए बैठे है, और भी कोई हो सकता है, बशर्ते अपने घर आप भी क़ानू जैसा कोई मेहमान लाकर देखिए। हाँ!तो अग्रवाल साहब अपने इस ब्लैक डॉग को प्यार से जैकी बुलाया करते थे,जैकी साहब को हमारी क़ानू के सुबह और शाम का घूमने का टाइम इस तरह से याद हो गया था, जिस तरह से बच्चे को अपनी स्कूल बस के आने और जाने का टाइम याद हो जाया करता है। बस !,फिर क्या था, हमारा और क़ानू का शाम को टहलने के लिए बाहर निकलना होता था, और जैकी साहब अपनी छत्त की ग्रिल में से अपना पूरा का पूरा मुहँ बाहर निकाले क़ानू का इंतज़ार कर रहे हुआ करते थे। हम क़ानू को हमारे घर के सामने वाली सड़क पर ही पहले घुमाया करते थे ,बाद में और कहीं ले जाने का सोचा करते थे। जितनी देर क़ानू घर के सामने वाली सड़क पर खेल-कूद किया करती थी,उतनी ही देर Mr.जैकी क़ानू को टकटकी लगाकर देखते ही रहा करते थे, जैकी दादा का पूरा का पूरा मुहँ ग्रिल से बाहर लटका हुआ होता था, और मुहँ के अन्दर से पिंक कलर की जीभ साइड में लटक रही हुआ करती थी, कुछ भी कहिये नज़ारा बड़ा ही प्यारा हुआ करता था, क़ानू एकदम प्रिन्सेस की तरह सड़क पर वॉक किया करती थी, और जैकी मास्टर लगातार क़ानू को ही घूरते रहा करते थे, हम तो इस बात से हैरान थे, कि जैकी महाराज रोज़ ही एक तरह के पोज़ में बैठ क़ानू को निहारा करते हैं, खैर ! जैकी का चमकदार काला रंग और साइड में लटकी हुई पिंक कलर की जीभ जैकी को भी सुन्दर बना दिया करती थी। क़ानू का सड़क पर महारानी की तरह ठुमक-ठुमक कर घूमना और जैकी का क़ानू को यूँ देखना किसी पिक्चर की लव स्टोरी से कम न लगा करता था, पर जैकी और क़ानू कि यह लव स्टोरी थी एकदम एकतरफा…क़ानू ने कभी भी घास न डाली थी,जैकी को…और डाले भी क्यों, ऐसी वैसी थोड़े ही है हमारी क़ानू। ऐसा लगता था, जैसे क़ानू जैकी से कह रही हो,”अपना रस्ता देख,इधर क्या देखता है, बहुत देखे हैं, तेरे जैसे”। यूहीं क़ानू और जैकी का सिलसिला चल रहा था, कि अचानक से एक दिन हमें अग्रवाल साहब से ही पता चला था, कि जैकी न रहा… पता नहीं कोई गलत या फिर कोई गलती से ज़हरीली चीज़ जैकी के पेट में चली गई और वो लोग जैकी को बचाने में असमर्थ रहे। खैर!हमें जैकी का सुनकर बेहद अफ़सोस हुआ था, अब लगाव तो हो ही जाता है, बेशक आप किसी अनजान से ही रोज़ क्यों न मिलें। जानवर हो
या फ़िर इन्सान दो सैकेंड का भी रिश्ता कायम हो जाता है।
जैकी तो चला ही गया था, क़ानू के नन्हें से दिमाग़ पर अपनी यादें छोड़ कर,अब जब भी हम शाम होते ही हम क़ानू संग बाहर जाया करते तो क़ानू एक बार तो अग्रवाल साहब की छत्त की ओर ज़रूर देखा करती थी,और मन ही मन सोचा भी करती कि ,”अरे!कहाँ गया वो जोकर”। पर हमारा और क़ानू रानी का घूमने का सिलसिला यूँहीं जारी था।

सामने वाली सड़क पर से घूम कर हम बाजू वाली लम्बी रोड पर घूमने निकल जाया करते थे। यह बाजू वाली सड़क बहुत ही अच्छी थी, एकदम सीधी और साफ़,हम और हमारी क़ानू उस सड़क पर मस्त हो कर चला करते थे, कोई ख़ास ट्रैफिक न था, इस सड़क पर। क़ानू खूब नाचती कूदती मस्त हो कर चला करती थी, हाँ!सड़क के किनारे गली के कुत्ते ज़रूर शाम को हमारे टहलने के टाइम आराम से पेड़ की ठंडी छाँव में बैठे दिखा करते थे। और  हमारी जो  प्यारी लाड़ली क़ानू थी वो पूरी दादागिरी के साथ उन गली के कुत्तों पर भौंकती हुई  चला करती थी।

क़ानू को यूँ इन कुत्तों पर बेफिजूल भौंकता देख ऐसा लगा करता था, मानो कि मेरा क़ानू ही इस इलाके की कलेक्टर साहिबा हो। हाँ!एक बात तो गौर करने वाली ज़रूर है, कि कलेक्टर अकेले थोड़े ही चला करते हैं, उनके पीछे सेना के अधिकारी भी चलते हैं। तो हमारी क़ानू -मानू भी अकेली न चला करती थी,हम तो चला ही करते थे, क़ानू के साथ हाथ में चैन और पट्टा लिए, हमारी क़ानू को एक नया पड़ोसी बॉडी-गॉर्ड के रूप में मिल गया था।

यह जो नया पड़ोसी था, ये वहीं पास में एक मकान बन रहा था, उन्हीं लोगों ने इस बॉडी-गॉर्ड रूपी देसी कुत्ते को पाल रखा था। यह कुत्ता देखने में बिल्कुल गली का कुत्ता न लग किसी स्पेशल ब्रीड का डॉग लगता था। हमनें तो इस कुत्ते का नाम, बॉडी -गॉर्ड फ़िल्म से बॉडी-गॉर्ड ही रख दिया था।

बॉडी-गॉर्ड देखने में अच्छी डील-डॉल का था। अच्छा खिलाता-पिलाता था, मकान का चौकीदार बॉडी-गॉर्ड को, और खूब ध्यान रखता था। गर्दन में काले रंग का पट्टा बाँधे अक्सर बॉडी-गॉर्ड हमें हमारे ही इलाके में खुला घूमता हुआ नज़र आया करता था। काटता किसी को भी न था, सीधा-भोला कुत्ता था।

जब हम क़ानू मैडम को बाजू वाली सडक़ पर लेकर निकला करते थे, तो बॉडी-गॉर्ड क़ानू के एकदम पीछे-पीछे हो लिया करता था। इस कुत्ते को देख हमारे दिमाग़ में सलमान ख़ान वाली बॉडी-गॉर्ड फ़िल्म का सीन एकदम घूम जाया करता, किस तरह सलमान ख़ान करीना जी के पीछे बॉडी-गॉर्ड की तरह चला करते थे। जैसे ही करीना मैडम पीछे मुड़कर देखा करती थीं, तुरन्त कहना होता था,”बॉडी -गॉर्ड मैडम”। बिल्कुल ठीक उसी तरह हमारी क़ानू इलाके की कलेक्टर की तरह गली के कुत्तों पर रौब जमाते हुए चला करती ,और यह बॉडी-गॉर्ड गले में काला पट्टा बाँधे क़ानू के पीछे-पीछे चला करते थे।

क़ानू को तो अपनी रोबदारी से ही होश न हुआ करता था, पर हम जैसे ही पीछे मुड़कर देखते थे, शेरू तुरन्त रुक जाया करता था,और कहा करता था, “बॉडी-गॉर्ड  मैडम”। वैसे चौकीदार ने इस कुत्ते का नाम शेरू रखा हुआ था, हम तो बताना ही भूल गए, बॉडी-गॉर्ड तो हमनें शेरू का नाम क़ानू की वजह से रखा हुआ था। शेरू कहता कुछ भी न था, बस!हमेशा जब तक हम क़ानू को लेकर बाजू वाली सड़क पर टहला करते, शेरू क़ानू और हमारे पीछे बॉडी-गॉर्ड की तरह ही रहा करता था। और बॉडी-गॉर्ड हो भी क्यों न, हमारी क़ानू अब इस इलाके की महारानी साहिबा जो हो गयी थी। हम जैसे ही शेरू को रुकने को कहते तो तुरन्त रुक जाया करता और चलना शुरू होते तो हमारे पीछे हो लिया करता था। पक्का बॉडी-गॉर्ड था।

इसी लम्बी बाजू वाली सड़क पर नाली के नीचे कुछ नए पड़ोसियों ने भी जन्म ले लिया था। सर्दियों में अक्सर हमारे यहाँ नाली के अंदर बहुत सारे पप्पी जन्म लेते हैं, हमें इसलिए पता है, क्योंकि हमारे परिवार जन इन पप्पी को रोटी जो डालते आये हैं। और घर के अन्दर कई बार इनका स्वागत भी किया है।

बस!फ़िर क्या था,अब जब भी हम और क़ानू शाम को घूमने निकलते तो नन्हें पड़ोसियों का भी रौनक मेला लग जाया करता था। नन्हें पप्पी नाली के ऊपर आकर शाम को मस्ती किया करते थे, और क़ानू थोड़ी सी दूरी पर बैठकर हमारे साथ इन नन्हें पप्पी को देखा करती थी। नन्हें पप्पी को यूँ  मस्ती करता देखकर मेरी प्यारी क़ानू मन ही मन खुश हो जाया करती थी। पर क़ानू नन्हें पप्पी को देखकर भोंकी कभी-भी नहीं ।

एक घोड़े के आकार के दिलचस्प पड़ोसी का जिक्र करना तो हम भूल ही गये,घोड़ा सुनकर हैरान न हों, हम तो उस डॉग की बात कर रहे हैं, जो घोड़े की तरह ऊँचा होता है ,पर प्रॉपर ब्रीड का नाम न मालूम है। यह घोड़े जैसा ऊँचा काले रंग का कुत्ता भी हमारे पड़ोस में ही है, कालू बुलाते है, रावत साहब इसे  जिनका यह कुत्ता है, इस कालू नाम के पड़ोसी ने हमें और हमारी क़ानू को डराने का अहम रोल किया है, दूर से ही देख लिया करता था, की हम क़ानू-मानू के साथ गेट से बाहर निकल आये हैं, झट्ट से चुप-चाप हमारे पीछे आ खड़ा हो जाया करता, जैसे ही हमारी गर्दन पीछे की तरफ़ मुड़ा करती थी, कालू महाराज ठीक हमारे पीछे साये की तरह खड़े दिखते थे,कालू को देखते ही मैं और क़ानू तेज़ी से भागा करते थे, कई बार हमनें रावत साहब को कालू के विषय में बताया था,और उनसे रिक्वेस्ट भी की थी, कि,”साहब ज़रा आप कालू को चैन वगरैह बाँध कर रखा कीजिये, फालतू में रोज़ भागकर आ जाता है, और हमें और हमारी क़ानू को डरा देता है”। पर रावत साहब थे कि उन्होंने हमारी बात पर कभी गौर ही न किया, यह कह कर टाल दिया था,कि”अजी साहब डरने वाली कोई बात नही है,पालतू  है,जैसे क़ानू वैसे ही कालू, काटेगा बिल्कुल नहीं”। कुछ भी कहो कालू ने हमारी और क़ानू की कसरत खूब करवाई थी, हमें भगा-भगा।
हर रोज़ शाम को बहुत अच्छा वक्त बितता था, हमारा और क़ानू का, क़ानू के पड़ोसी मित्रों के साथ। और ज़िंदगी की रेल एक बार फ़िर से चल पड़ी थी,हमारी और क़ानू की… क़ानू के प्यारे और कभी न भूलने वाले पड़ोसी मित्रों के संग।

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