मणिधर और गरुणाचार्य साथ साथ बैठे किसी साठ गांठ में उलझे थे। उनकी बात बहती जा रही थी। उन दोनों को बुरा लग रहा था। एक सबल इरादे के साथ इकट्ठा हुआ समाज अब उसी इरादे से बहुत दूर जाकर खड़ा हो गया था। उनकी हुई दिमागी शिकस्त सबको बुरी लग रही थी। यों मुंह छुपा कर लौट जाने का किसी का भी मन नहीं था।

“हमारे काटे का कभी इलाज नहीं था, आचार्य!” मणिधर ने गहरी सांस छोड़ कर कहा था। “हमारे काटने के बाद तो आदमी मरता ही मरता था।” वह मुसकुराया था। “और काटने का हमारा अंदाज भी तो अलग था।” उसने गरुणाचार्य को घूरा था। “छुप के .. चुपके से फन मारना और काम तमाम कर देना!” वो हंस रहा था।

गरुणाचार्य ने मणिधर की बात को कई पलों तक सोचा समझा था। वह भी तो जानता था कि सर्पों का धरती पर बहुत बड़ा दबदबा था कभी। पृथ्वी का स्वामी ही मानते थे ये अपने आप को!

“आदमी के मरने के बाद जो मातम मनाता था आदमी वो देखने लायक होता था! हमारा खौफ इस तरह आदमियों के दिमाग पर चढ़ता था कि वह हमारी पूजा करने लगते थे और हमारे लिए मंदिर तक बनवाए जाते थे। हमें तो दूध पिलाता था ये आदमी और हमें देवताओं की श्रेणी में भी इसी आदमी ने रक्खा था। नाग देवता कह कर, हाथ बांध कर यह आदमी हमारी स्तुति करता था।”

“हॉं हॉं! मुझे भी याद है मणिधर!” गरुणाचार्य ने भी स्वीकारा था। “लेकिन ..”

“अब तो मुकाबला जंगी है।” स्वीकारा था मणिधर ने। “ये आदमी डरते डरते, पूजा करते करते उस डर को ही पचा गया! विष का तोड़ भी खोज लिया और हमारा जोड़ भी!” मणिधर टीस आया था। “अब हम न तो देवता रहे और न अब हमारी पूजा ही रही! दूध पिलाना तो दूर हमारे ही विष का अब व्यापार करता है ये आदमी!”

“बहुत ज्यादा चतुर है भाई!” स्वीकारा था गरुणाचार्य ने।

“और एक हम हैं कि अभी भी सोच में डूबे हैं!” उलाहना दिया था मणिधर ने।

“तो ..? करें तो क्या करें?”

“जंग!” मणिधर फुफकार कर खड़ा हो गया था। “आदमी भी तो लड़ता ही है। उसने किस किस से लड़ाई नहीं की? उसने कौन सी विपदा नहीं झेली?”

“उसका सा सोच तो ..?”

“उसी सोच को लाओ भाई! सोचो ..? हम सोचते क्यों नहीं हैं? हमारा केवल यही खोट है कि हमने सोचा नहीं – आदमी की तरह हमने आविष्कार नहीं किये! पेट भर खाया और सो गये!”

“अब इस सोच का क्या फायदा?”

“फायदा हमेशा सोचने का ही होता है।” मणिधर ने दो टूक कहा था। “यों हार मान कर घर चले जाना कोई विकल्प नहीं है आचार्य!”

“हार मान लेना मेरे तो खून में ही नहीं है लालू!” जंगलाधीश दो पाया बैठा था। “मेरा मन तो कर रहा है कि मैं अकेला ही जंग आरम्भ कर दूं!” उसने दूर फैले दिगन्त को देखा था। “अब तो आदमी से मेरा बैर और भी पक्का हो गया है।” उसने सुंदरी की ओर घूरा था। “मैं व्यर्थ के पचड़ों में पड़ गया!” वह पश्चाताप करने लगा था। “एक चूहे को राजा चुन कर मैंने ..?”

यूं विलाप करते शेर को देख कर सुंदरी को दया आ गई थी। लालू भी तनिक उदास था। उसे भी अपना समाजवाद बह गया लगा था।

“सारा काम इस कौवे ने खराब किया है जंगलाधीश जी!” शशांक ने बात दोहराई थी। “बेचारे चूहे का कोई दोष नहीं है! पृथ्वी राज ने तो कभी लड़ने से ना ही नहीं की है!”

“अबे! चूहों ने कब कब जंग लड़ी हैं?” जंगलाधीश खीज उठा था। “ये व्यर्थ का ढोंग क्यों रचते हो भाई?”

जंगलाधीश का मन था कि उठे और चल पड़े!

लेकिन न जाने क्यों आज उस के सामने भी मिल जुल कर एक साम्राज्य बनाने का सपना आकर खड़ा हो गया था। बेशक उसे सेनापति ही नियुक्त किया गया था – पर था तो ये सर्व सम्मति से! तनिक सा सुंदरी का साथ उसे भा सा गया था। हाजिरी में खड़े लालू और शशांक भी उसे बुरे नहीं लगते थे।

किसी तरह से भी अगर आदमी का सफाया हो जाए तो क्या बुरा था?

“अब आदमी आपस में भी तो नहीं लड़ता!” शशांक ने गहरे अफसोस के साथ कहा था। “पहले तो एक दूसरे को मारता था, तबाह करता था और बर्बाद करता था लेकिन अब तो ..?”

“शांति समझौते हो गये हैं! विश्व शांति और विश्व बंधुत्व की बात चल पड़ी है! अब तो सब मिल जुल कर रहने का प्रयत्न कर रहे हैं!” लालू ने एक संपूर्ण सूचना दी थी।

“और तो और अब वह लगातार हवा और सागरों को पार कर कुछ और भी खोजने में व्यस्त है!” शशांक ने बात आगे बढ़ाई थी।

“खोज लेगा!” जंगलाधीश ने भी हामी भरी थी। “पाताल के बाद अब आकाश को भी ..”

“किसी नई जमीन पर जा बसेगा?” शशांक ने एक प्रश्न पूछा था।

“हॉं हॉं क्यों नहीं?” लालू ने समर्थन किया था।

“क्या हम में से भी किसी को साथ ले जाएगा?” शशांक ने मुड़ कर पूछा था।

“हो सकता है गाय, भैंसों को साथ ले जाए!” जंगलाधीश ने सोच कर कहा था।

“नहीं जी! कुत्ते, बिल्ली .. उसकी आज की फरमाइश है!” लालू हंस रहा था।

“ये तो जरूर उसके साथ जाएंगे!” शशांक का समर्थन था। “कुत्ते बिल्लियों को तो जरूर साथ ले जाएगा आदमी?”

“और क्या शेर और हाथी उसके साथ नहीं जा सकते?” जंगलाधीश ने हंस कर प्रश्न किया था।

“क्यों नहीं जा सकते?” शशांक बोला था और वो सब एक साथ हंस पड़े थे।

त्योरियां चढ़ गई थीं लालू की। उसने सुंदरी को घूरा था। आज तक कुछ ही जानवर बचे थे जो आदमी से अलग-थलग थे। बाकी तो उसने सब को साथ ले ही लिया था।

“न गीदड़ जाएगा और न ही लोमड़ी!” जंगलाधीश ने भी रंग लेते हुए उन दोनों को देखा था।

“और न ही जाएगा काला कौवा काग भुषंड!” शशांक ने तालियां बजाई थीं। “लेकिन क्या मेरा भी नम्बर पड़ सकता है महाराज?” वह खुश खुश बोला था।

“इससे पहले कि ये यहां से सब कुछ ले उड़े हम इसे तबाह कर देंगे!” लालू ने शपथ जैसी ली थी। उसने अपने सहारे के लिए लोमड़ी को घूरा था। “तुम क्या कहती हो सुंदरी?” उसने सीधा प्रश्न पूछ लिया था।

मेजर कृपाल वर्मा

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