लालू की एक चाल ने ही काग भुषंड का रचा रचाया खेल बिगाड़ दिया था। ये कैसी विचित्र हवा चला दी थी लालू ने – जो रोके नहीं रुक रही थी!
“हमें नहीं बुलाया क्या शशांक?” काग भुषंड ने बड़ी ही बेरुखी से पूछा था। “शगुन है तो शायद .. सभी ..?”
“सभी को आना है जी!” शशांक ने प्रसन्नता पूर्वक कहा था। “निमंत्रण सभी महानुभावों को भेजा जा रहा है!” शशांक ने सूचना दी थी। “गरुणाचार्य के पास से ही आ रहा हूँ!” उसने मुड़कर हुल्लड़ को देखा था। “उन्होंने कहा है कि वो पूरे दल बल के साथ शामिल होंगे!” कितना धूर्त था ये लालू ..
काग भुषंड उठा था और उड़ गया था।
शगुन की तैयारियां हो रही थीं। जंगल खुशी की लहरों से लबालब भरा था। सभी को इस नए युग का आगमन अच्छा लग रहा था। सभी के सपने थे .. और सभी के अरमान थे! हर जंगल का प्राणी अब सुख चैन की जिंदगी बसर करना चाहता था।
“लगता है – हुल्लड़ दल बल के साथ पहुंच गया हो?” जंगलाधीश ने हवा को सूंघ कर पूछा था।
“ठीक कहते हैं महाराज!” शशांक ने पुष्टि की थी। “बहुत बड़ी संख्या में आये हैं – हाथी, भालू, रीछ, बघेर और तेंदुए ..”
“सब लोग अब आप से प्रसन्न हैं!” सुंदरी ने तनिक लजाते हुए कहा था। “अब आप का एक छत्र राज्य होगा .. और ..”
लालू गीदड़ ने सुंदरी और जंगलाधीश को एक साथ घूरा था। उसे जो दिखाई दे रहा था – वह खतरा था! उसकी बुद्धि कहीं और दौड़ रही थी।
“गरुणाचार्य की क्या खबर है?” उसने शशांक से पूछा था।
“पहुंच गये हैं! पूरे दल बल के साथ आये हैं! मैंने जब स्वागत किया तो खुश होकर मुझे आशीर्वाद दिया!”
“काग भुषंड था कहीं? या कि उसकी वो चेली – चुन्नी?”
“नहीं!” शशांक ने कुछ सोच कर उत्तर दिया था। “लगता है उस्ताद लाइन कट गई!” वह हंसा था। “उड़ गया आप की एक ही चाल पर!” उसने लालू को प्रशंसक निगाहों से देखा था।
लेकिन लालू नहीं हंसा था। उसके जहन में तो खतरे की घंटियां बजने लगीं थीं!
“इस कौवे से डर रहे हो यार!” जंगलाधीश जोरों से हंसा था। “अरे भाई! ये राजपाट हमारी तो बीसों नाखूनों की कमाई है! हम इसे किसी को देने वाले नहीं हैं! ये तो तुम्हारा आग्रह था और हमारा था बड़प्पन जो हम लोगों को अभय दान देने पर राजी हो गये हैं! वरना तो ..”
“ये पूरब दिशा से बवंडर कैसा उठा चला आ रहा है?” सुंदरी ने चिंतित होकर कहा था। “शगुन का तो सारा ..”
“काली आंधी आ रही है!” लालू ने बताया था।
“अब क्या होगा भाई?” शशांक इधर उधर छलांगें लगाने लगा था।
हवा भीषण वेग से बह निकली थी। जंगल थर्रा सा गया था। आसमान पर उगा सूर्य छुप गया था। धरती पर अंधेरा छा गया था। किसी भयंकर अशुभ की आशंका उठ खड़ी हुई थी। आये आगंतुक तितर-बितर होने लगे थे!
“रे मूर्ख, जंगलाधीश!” जोरों से गर्जा था – बादल! “ये क्या प्रपंच रचा है तूने?” एक ललकार थी, जिसने शेर को भी दहला दिया था। “ये शेर और लोमड़ी की शादी .. और ये शगुन ..? ये सब क्या मजाक है रे ..?”
जंगलाधीश ने इधर उधर देखा था। अब न वहां लालू था और न शशांक। सुंदरी भी भाट में भीतर घुस गई थी। वह बिलकुल अकेला था। फिर भी आदतन वह गर्जा था। लेकिन न जाने क्यों उसकी दहाड़ आज छोटी पड़ गई लगी थी। उधर से आजी गरजना ने तो सभी के कलेजे कंपा दिये थे!
“तुम हो कौन? तुम होते कौन हो?” जंगलाधीश ने अपने प्रश्न फेंके थे। वह अब तनकर खड़ा हो गया था। वह उस आवाज का पीछा कर अब उस पर टूट पड़ना चाहता था!
“मैं हूँ जरासंध!” उत्तर आया था। “काल .. या कहो महाकाल!” एक घोषणा जैसी हुई थी। “लेकिन तू नहीं देख सकता मुझे मूर्ख! कोई भी नहीं देख सकता ..!” गरज रहा था जरासंध।
“सिर्फ मैं अकेला ही देख सकता हूँ!” हंस कर कहा था काग भुषंड ने। “अब शगुन को भूलो राजा .. सत्ता देने की बात करो! गीदड़ों के बल पर घमंड मत करो! हमारे साथ ये जरासंध हैं! ये महाकाल हैं! आदमी तो क्या, इनके कब्जे में तो चराचर है! चाहें तो पल छिन में प्रलय कर दें! इन्हें कोई नहीं रोक सकता प्यारे!” काग भुषंड ऐलान करता ही चला जा रहा था।
लालू के तोते उड़ गये थे! काटो तो खून नहीं! उसे जो डर था वही हुआ!
“ऐसे तुझे सत्ता नहीं मिलेगी कनेटे!” लालू गीदड़ ने तनिक बाहर गर्दन निकाल कर कहा था। “जरासंध हो या उसका बाप!” उसने तनकर खड़े शेर की ओर देखा था। “सत्ता में तो सब का साझा है!”
“तो फिर सब की राय से सत्ता का बंटवारा हो!” काग भुषंड ने आंखें मटकाई थीं।
“तो ठीक है! महा पंचायत बुला लेते हैं!” शशांक ने सुझाव रक्खा था। अब तक शशांक को भी होश लौट आया था। “पंच फैसला ही सब को मान्य होगा!” उसने मुनादी जैसी कर दी थी!
शेर तना का तना ही खड़ा रह गया था!
सुंदरी भी भाट से बाहर न निकली थी!
लालू ने एक बार फिर शशांक को सराहा था। दूर की कौड़ी लाया था शशांक – इस बार!
आसमान फिर से साफ हो गया था!
मेजर कृपाल वर्मा