धरा पूरी की पूरी घोर अंधकार में गर्क थी।
आदमी का रचा बसा संसार प्रायः उजड़ गया था। एक सन्नाटा बस्तियों में आ बैठा था। शहरों में मौत के साये लटक रहे थे। कौन कहां था – किसी को पता नहीं था। आदमी आपा भूल बैठा था। एक घोर विभ्रम की स्थिति थी। किसी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था।
रात को आते हुआं हुआं के गीदड़ों के स्वर पूर्ण विध्वंस की एक चेतावनी जैसे थे। उन स्वरों में उल्लास था – अपार उल्लास। हाथियों की आती हुंकारों से रात का चेहरा बहुत वीभत्स हो गया था। शेरों की ललकारों ने आदमी के कलेजे कंपा दिए थे। लग रहा था जैसे होती ये प्रलय रुकेगी ही नहीं, आया बुरा वक्त टलेगा ही नहीं और न ही आएगा इस अंधेरी रात का अंत।
क्या करता आदमी कुछ समझ में ही न आ रहा था।
लालू और शशांक सभा में तन कर बैठे थे। उनकी मनमानी होती जा रही थी। चंद दिन की बात रह गई थी जब आदमी का अंत आ जाना था और उनका धरती पर पूर्ण अधिकार!
सभा में उल्लास की उमंगें ठाठ मार रही थीं। चुन्नी से ले कर तेजी तक के चेहरे गुलाबों से खिले थे। सबको राज पाट जो मिलना था। सब रानियां और महारानियां बनने वाली थीं। नकुल अजब तरह की दौड़ भाग में जुटा था। आने वाले विशाल साम्राज्य को व्यवस्थित करने के लिए वह अपने आप को तैयार कर रहा था।
“भइया! अब तुम्हीं कुछ करो!” भोली छज्जू बंदर की शरण में पहुंची थी। “अमर मेरी मालकिन – सेठानी संतो मर गई तो मैं भी प्राण त्याग दूंगी!” भोली बहुत व्यथित थी।
“अब और क्या नया होने वाला है?” छज्जू ने चौंक कर पूछा था।
“तक्षक आ रहा है। संतो को डसेगा और वो मर जाएगी।”
“किसने कहा?”
“नकुल और तेजी की चाल है।”
छज्जू बहुत देर तक कुछ जमा जोड़ लगाता रहा था। होने वाली तमाम घटनाएं एक दिशा की ओर इशारा तो कर रही थीं पर छज्जू उस दिशा को पकड़ नहीं पा रहा था। लेकिन भोली का आगमन उसे किसी सूचना जैसा प्रतीत हुआ था।
“कहीं काग भुषंड भी इनसे मिला है क्या?” छज्जू का अगला प्रश्न था।
“जरूर मिला होगा भइया!” भोली ने हामी भरी थी। “किसी घात में है – ये हरामी भी।”
“मुझे लग रहा है बहिन जी कि हो न हो ये पृथ्वीराज और काग भुषंड मिल कर ही इस होती तबाही की जड़ में हों?”
“ये तो तुम जानो भइया! मेरी मालकिन संतो को बचा लो। चाहे जो करो। इस तक्षक से ..?”
छज्जू तनिक हंसा था। उसे एक सूत्र हाथ आता लगा था। लगा था – अगर उसने काग भुषंड की गर्दन पर पैर रख दिया तो काम आसान हो जाएगा।
“तक्षक का इलाज मांगी मयूरा के पास है। जाओ उससे मिला। कहना मैंने भेजा है। वह मेरा मित्र है और हम साथ साथ रहते हैं।” छज्जू ने प्रसन्न होकर कहा था। “मैं अब इस कमीने कौवे को देखता हूँ!” उसने दांत किटकिटाए थे।
“बंदर काम बिगाड़ कर रहेंगे आचार्य!” काग भुषंड ने भरी सभा में गुहार लगाई थी। “सारा किया धरा चौपट हो जाएगा – अगर बंदरों को रोका न गया तो।” उसने स्पष्ट कहा था।
“व्यर्थ है बंदरों से जूझना।” लालू ने तुरप लगाई थी। “तुम जानते नहीं कि कितना बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा ..”
“ओर तुम जानते नहीं कि कितना बड़ा संकट खड़ा हो चुका है।” चिल्ला सा पड़ा था काग भुषंड। “हमारी तो जान पर बन आई है आचार्य।” काग भुषंड रोने रोने को था। “इन नालायक बंदरों ने हमारा तो जीना ही हराम कर दिया है। पेड़ों पर बने सब कौवों के घोंसले तोड़ तोड़ कर फेंक दिए हैं। हमारे अंडे बच्चे सब मार दिए हैं। रात को पेड़ों पर घात लगा कर बैठे बंदर बवंडर मचा रहे हैं। डाली पर पैर टिके नहीं कि गड़प! आप जानते नहीं आचार्य कि आदमी की लाशों से ज्यादा हम कौवों की लाशें अब जमीन पर बिखरी पड़ी हैं।” उसने ताजा स्थिति का खुलासा किया था।
“लेकिन शशांक भाई की ऐसी कोई सूचना है ही नहीं!” लालू ने विरोध किया था।
“इस हालत में हम कैसे लड़ पाएंगे आचार्य!” काग भुषंड बिलख बिलख कर रोने लगा था।
“हम युद्ध भूमि से पलायन करेंगे अगर हमारे मित्र काग भुषंड की बात पर गौर न किया गया तो।” हुल्लड़ गरजा था। “बंदरों का इलाज करो! इनका विकल्प खोजो!”
सभा में एक अजीब सा सन्नाटा भर गया था। सब के चेहरों पर तनाव था। साकार होता साम्राज्य का सपना एकाएक गायब होता लगा था। पास आकर लौटती विजयश्री सबको बुरी लगी थी।
“घबरा क्यों रहे हो भाई!” नकुल ने काग भुषंड को मुसकुराकर देखा था। “बलिदान तो सभी दे रहे हैं। गिद्धों को देखो!” उसने घमंडी को घूरा था। “है इनका कोई जोड़? सरेआम मौत के मुंह में कूद कूद कर आदमी का अंत लाते ही जा रहे हैं। और तो और चूहों को भी देखो!” नकुल ने तेजी की आंखों में देखा था। “पाताल तक को छान मारा है। ये भी तो जान पर खेल रहे हैं काग भुषंड भाई।”
लेकिन .. लेकिन .. महाराज!” काग भुषंड ने अबकी बार पृथ्वीराज को देखा था। उसकी आवाज में एक पुकार थी और एक गुहार थी जिसे पृथ्वीराज ने सुना तो था पर अनसुना कर दिया था।
युद्ध क्षेत्र में इस तरह की कमजोरियां पराजय का कारण बन जाया करती हैं – वह जानता था।
“युद्ध को अब नहीं रोका जा सकता काग भुषंड भाई!” विनम्रता पूर्वक कहा था पृथ्वीराज ने। “हां! मैं वायदा करता हूँ कि हमारी विजय होने पर आधा राज तुम्हारा!”
एक सन्नाती-मन्नाती हवा सभा के आर पार दौड़ गई थी।
हुल्लड़ का रोष थम गया था। काग भुषंड भी कुर्बानी की घुट्टी पी गया था। जंगलाधीश चौंक कर रह गया था। लालू ने शशांक को देखा था और हंस दिया था।
“हंसे क्यों?” शशांक ने पूछ ही लिया था।
“एक तीर से अगर दो शिकार हो जाएं तो क्या बुरा है शशांक?” लालू ने चुपके से शशांक को समझाया था। “साथ के साथ अगर ये कौवों का कांटा भी निकल जाए तो क्या बुरा है?” उसने शशांक को कंधा मारा था।
लालू की गहरी चाल को समझ कर शशांक भी हैरान था। राजनीति एक अजीब ही स्वांग था – वह सोचता रहा था। क्या लालू के साम्राज्य में वह भी रह पाएगा – शशांक आज सोचने के लिए विवश हो गया था।