समर सभा के तंबू उखड़ रहे थे।

हर आंख में काग भुषंड ही था जो एक किरकिरी की तरह करक रहा था। काग भुषंड ने तो गरुणाचार्य तक का अपमान कर दिया था। वह अपनी चतुराई और चालबाजियों से सब को मूर्ख बना कर चराचर का स्वामी बन जाना चाहता था। कितनी बेबुनियाद बात थी।

“शेरों का शोर शराबा भी बेकार रहा!” नकुल झींक रहा था। “पिद्दी सा कौवा जबान खोलता रहा और जंगलाधीश सुनता रहा!”

“क्या करता?” चुन्नी चहकी थी। “भाई साहब! बोलने की आजादी तो सब को होनी ही चाहिये! शेर समाज को आपने अगर फिर से चौधरी बना लिया तो सब चौपट हो जाएगा!” चुन्नी ने चेतावनी दी थी।

“मेरी चिंताओं का कोई अंत नहीं है चुन्नी!” अब पृथ्वी राज गमगीन आवाज में कह रहा था। “लगता है – सब बिखर गया! सारे किये प्रयत्न व्यर्थ हो गये! सब प्रलाप ही रहा!” उसने घोर निराशा से चुन्नी को घूरा था। “किसी में भी दम नहीं है .. आदमी से जंग करने का!”

चुन्नी की बेकली उसके चेहरे पर व्याप्त थी। वह भी अभी तक एक मुक्त साम्राज्य की कल्पना को मन से स्वीकार कर बैठी थी। और अब जब ये सपना टूट रहा था – तो उसे दुख हो रहा था।

“मैं तो इसे आश्चर्य ही कहूंगा कि आदमी ने आहिस्ता आहिस्ता अपने लिए हजारों स्वर्ग तैयार कर लिए हैं! उसके ठाठ बाट तो देखो! लगता ही नहीं कि कल ये भाई भी हमारे साथ ही रहता था और जंगल में नंगा, कांपता, ठिठुरता और लुढ़कता छिपता ..” लालू गीदड़ ने आसमान की ओर आंख उठा कर देखा था।

“कितना कितना डरता था ये शेरों के नाम से!” इस बार जंगलाधीश भी हंसा था। “कभी कभार जब इस आदमी के साथ दो दो हाथ हो जाया करते थे .. तो ..” जंगलाधीश ने कुछ सोचते हुए कहा था। “मेरे दादा – केसरी कौशल बताते थे कि वह सबसे पहले आदमी के हाथ उखाड़ कर फेंक देते थे। उसके बाद तो वह निरा मांस ही होता था।” फिर से तनिक हंसा था जंगलाधीश। “लेकिन .. आज ..?”

“अब तो आदमी हाथ उखाड़ फेंकने का मौका ही नहीं देता!” शशांक ने विहंस कर कहा था। “अक्ल की पोटली है – अगला!” शशांक ने आंखें नचा कर सुंदरी को घूरा था। “वह तो आपसे भी बहुत आगे है बहू जी!” उसने सुंदरी को उलाहना दिया था।

आदमी ही था अब जो सबके जहन पर बुरी तरह छाया हुआ था। और अजेय हुआ आदमी अब किसी को भी अच्छा नहीं लग रहा था।

“कांपता था ये आदमी हमारे खौफ से!” हुल्लड़ काग भुषंड को बता रहा था। “भाई साहब! जंगल में तो राज ही हमारा होता था। हमारा हाथियों का टोल जब चलता था तो धरती हिलती थी। और नयन सुख साहब जी तब ये आदमी कहीं ओट फेंट में छुप कर हमारा वैभव देखता रहता था। तब तो इसे कुछ नहीं आता था। हंसी आती थी इस पर जब ये शीत में सिड़सिड़ाता और दांत किड़किड़ाता पेड़ों के तनो से चिपक जाता था और हम उन पेड़ों को उखाड़ फेंकते थे! तब ये चीखता था, चिल्लाता था, भागता था ओर हम हंसते ही रहते थे!” हुल्लड़ रुका था। “मांस तो हम खाते नहीं इसीलिए हम इसे मारते नहीं थे, सिर्फ मजाक करते थे।

“और अब ये मजाक करता है!” उलाहना दिया था काग भुषंड ने। “खूब नचाता है हाथियों को सर्कस में, खूब माल ढोता है, सवारी भी करता है .. और ..”

“हमने तो जंग भी लड़ी हैं इसके लिए भाई!” कराहते हुए हुल्लड़ कह रहा था। “हमें क्या पता था कि काम निकलते ही ये हमें भूल जाएगा!” उसने काग भुषंड को घूरा था। “निरा नराधम निकला!” उसने टीस कर कहा था।

“तब कुछ सोचा होता हाथियों ने भी तो आज ये नौबत नहीं आती, काग भुषंड! हमने विगत को भविष्य के साथ नापा कब था। यह डरता डरता सोचता रहा और अपनी जान बचाते बचाते सबकी जान लेने में माहिर हो गया!”

काग भुषंड ने हुल्लड़ को घूरा था। हुल्लड़ एक अजीब से दुख में डूबा था। उसके पास क्या नहीं था? बल था, बुद्धि थी, डील डौल था, सामर्थ्य थी – आदमी से भी कई गुनी सामर्थ्य उसके पास थी! एक हाथी के सामने हजारों आदमियों का भी क्या उठता था। लेकिन कमाल तो देखो कि ..

“अब भी कुछ हो सकता है क्या?” हुल्लड़ ने काग भुषंड से प्रश्न पूछा था।

“क्यों नहीं?” काग भुषंड चहका था। “चाह में ही तो राह है, मित्र!” उसने हुल्लड़ को समझाते हुए कहा था। “ये आदमी भी तो चाहत के पीछे चला है। चलता ही चला गया है चाहत के पीछे! इसने भी क्या क्या पापड़ नहीं बेले मित्र!” काग भुषंड की आंखों में भी आश्चर्य तैर आया था। “इतना विशाल समुद्र लांघ गया ये बित्ते भर का आदमी!” उसने कहीं दूर देखा था। “हम भी इस पर हंसा करते थे जब ये पैदल पैदल दो चार या छह सात कोस चलता था। नंगे पैरों ऊबड़ खाबड़ जमीन पर और कांटों भरे जंगल के रास्ते आते जाते लहूलुहान हो जाता था ओर एक हम थे कि शहंशाह उड़े और चले! तब हम भी सोचते थे कि भगवान ने इसे दो पैर देकर इसके साथ अन्याय किया था और हमारे पर लगा कर हमें तो निहाल कर दिया था। लेकिन अब देखते हैं कि ..”

“ये तो सारे फासले तय कर गया!” हुल्लड़ ने स्वीकार किया था। “हम तो आश्चर्य से देखते ही रह गये कि ये तो अब हवाई जहाजों में उड़ता फिरता है और हम ..”

मेजर कृपाल वर्मा

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