“युद्ध की रूप रेखा का तनिक विस्तार से वर्णन हो जाए श्रीमान तो सुभीता रहेगा!” मणिधर ने जंगलाधीश को आदर सहित देखा था। “आप सेनापति हैं। आप ही मोर्चे संभालेंगे। ये तो हम सब जानते हैं लेकिन आप का सहयोग हम कब और कैसे करेंगे ये बात भी बताएं?”

जंगलाधीश को यह अटपटा प्रश्न तनिक अखर तो गया था लेकिन वह मणिधर को अप्रसन्न नहीं करना चाहते थे। अत: वो संभल कर बोले थे।

“शेर हमला करेंगे मणिधर!” जंगलाधीश ने जयघोष किया था। “आदमियों को फाड़ते पछाड़ते, खाते दन्नाते शेर आगे बढ़ेंगे।” जंगलाधीश ने मुड़ कर समर सभा को घूरा था। एक बारगी शेरों का दबदबा कायम हो गया लगा था।

“उसके बाद हाथियों का दल शेरों के पीछे सब कुछ बिस्मार करता हुआ आगे बढ़ेगा। यह दल सर्वनाश करता चलेगा। इसकी नजर से कोई नहीं बचेगा।” अब जंगलाधीश ने हुल्लड़ की ओर देखा था। हुल्लड़ बहुत प्रसन्न था। “फिर दल आयेगा रीछ, भालू, बघेर और बंदरों का! इनका काम होगा – जो छोटा छोटा हाथियों से कुछ छूट जाएगा उसको निगलते चले जाएं।” जंगलाधीश की नजर अबकी बार काग भुषंड पर जा टिकी थी। “आप हवा में युद्ध की मुनादी करेंगे काग भुषंड!” जंगलाधीश हंसा था। “और आप जा जाकर, गा गाकर युद्ध की सूचना लाएंगे और ले जाएंगे!” उसने अपनी बात समाप्त कर दी थी।

काग भुषंड का कलेजा जल कर स्याह काला हो गया था।

एक बार फिर हर जमा पदाधिकारी को शेरों का साम्राज्य स्थापित हो गया लगा था। लड़ाके भी तो वही थे। और सूरमा भी वही थे। शेष सब तो गीदड़ ही थे।

“बहादुरी और बेवकूफी में ज्यादा अंतर नहीं होता बंधु!” काग भुषंड ने खिलखिला कर हंसते हुए कहा था। अब उसे समर सभा भंग हो जाने का भी डर नहीं था। अब वह खुले में आ कर भिड़ जाना चाहता था। सूरमा होने की शेखी बघारते शेर उसे कभी से भाते नहीं थे। “तुम जानते तो हो आदमी को!” चेतावनी दी थी काग भुषंड ने। “छेड़ कर देख लो! एक एक को अलग अलग हलाल करेगा!” आंखें मटकाईं थीं काग भुषंड ने।

अब जंगलाधीश की आंखें मशालों सी जल उठी थीं। अगर काग भुषंड ऊपर डाल पर ना बैठा होता तो अब तक उसकी जान चली जाती। फिर भी जंगलाधीश के क्रोध का असर पूरी समर सभा पर तो पड़ना ही था।

“तुम शेरों का तिरस्कार कर रहे हो काग भुषंड?” जंगलाधीश गर्जा था। “तुम इसका परिणाम नहीं जानते शायद!”

“तुम मेरी आंख तो फोड़ नहीं सकते शेर महाराज!” कर्कश स्वर में कहा था काग भुषंड ने। “और जहां तक रहा तुम्हारी बहादुरी का प्रमाण तो जाकर देख लो अपने बंधु बांधवों को जो सर्कस और चिड़ियाघरों में आदमी की दी रोटी तोड़ रहे हैं!” काग भुषंड ने पूरी समर सभा को घूरा था। “जिसका दिया खाते हो उसी पर गुर्राते हो?”

“हलाल करके खाते हैं हम!” फिर से गर्जा था जंगलाधीश। “तुम्हारी तरह हराम का ..”

“शांत ..! शांत ..!” गरुणाचार्य का स्वर गूंजा था। “यह समय आपसी कलह का नहीं है मित्रों!” उन्होंने परामर्श दिया था। “इस समर सभा में कौन शेर और कौन गीदड़ का प्रश्न नहीं पूछा जा रहा है!” उन्होंने काग भुषंड को घूरा था। “मुद्दा है – मिलकर जंग लड़ने का! ओर जंग भी लड़ी जाए तो जीतने के लिए – मुसीबत मोल लेने के लिए नहीं।” अब उन्होंने शेर को घूरा था। “सोच समझ कर कुछ ऐसा तय हो सेनापति जी जो कारगर सिद्ध हो!” उनका सुझाव था।

काग भुषंड और जंगलाधीश अभी भी एक दूसरे को घूरे जा रहे थे।

दोनों ही एक दूसरे की पहुँच से बाहर थे। दोनों ही महत्वाकांक्षी थे। और दोनों ही अपने अपने पक्ष को बड़ा कर सत्ता हथिया लेना चाहते थे। दोनों को ही न तो एक दूसरे से कोई डर था और न कोई लालच।

समर सभा की पूरी प्रक्रिया रुक गई थी। नकुल सकते में आ गया था। उसे काग भुषंड के इरादे अच्छे नहीं लगे थे। काग भुषंड सब कुछ उजाड़ने बिगाड़ने पर उतर आया था।

“आचार्य जी!” लालू का विनम्र स्वर गूंजा था। “क्यों न आप ही कोई युक्ति बताएं!” उसने प्रार्थना की थी। “आप अपनी दिव्य दृष्टि से देखिये ओर हमें बताइये कि ..”

“सावन के अंधे को तो सब हरा हरा ही नजर आयेगा लालू महाशय!” कूद कर काग भुषंड फिर से हुल्लड़ की कमर पर आ बैठा था। “जो ..”

“मैं तुम्हें सभा से बाहर जाने का आदेश दे सकता हूँ, काग भुषंड!” अबकी बार नकुल की आवाज आई थी। इस आवाज में उसके महा मंत्री होने का दर्प था। “शिष्टाचार की हदें पार न की जाएं तो अच्छा रहेगा!”

समर सभा में नकुल की बात का असर हुआ लगा था। बेलगाम हुए काग भुषंड को लगाम लगाना सभी ने जरूरी समझा था।

“अगर आप ने कुछ नहीं किया महामंत्री तो मुझे ही कुछ करना होगा!” अबकी बार चोट खाए गरुणाचार्य बोले थे। “शठ को कभी भी सीधी भाषा का अर्थ समझ नहीं आता!” उन्होंने कड़ी निगाहों से काग भुषंड को घूरा था। उन्हें काग भुषंड की तमाम की मक्कारियां एक साथ याद हो आई थीं। “मेरी बात याद रखना सभासदों – यह काग भुषंड सगा किसी का नहीं है!”

अचानक ही काग भुषंड अब सब का कोप भाजन बन गया था। उसकी समर्थन में तो अब हुल्लड़ ने भी कुछ नहीं कहा था। लालू और शशांक दोनों महा प्रसन्न थे।

“मैं क्षमा चाहता हूँ आचार्य!” काग भुषंड तनिक विनम्र हो आया था। “मेरा कोई गलत प्रयोजन नहीं है!” उसने अपना पक्ष स्पष्ट किया था। “मैं .. मैं मूर्खता पूर्ण प्रलाप को बर्दाश्त नहीं कर पाया – बस यही खता है मेरी।” उसने सफाई पेश की थी। “इसके लिए मैं क्षमा याचना करता हूँ। अब आप जो उचित समझें वो करें।” वह फिर से चुपचाप पेड़ की डाल पर जा बैठा था।

पूरी सभा एक अजब गजब स्थिति में आ फंसी थी!

मेजर कृपाल वर्मा

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