“पर आपकी बात मानेगा कौन?” नकुल ने पूछ ही लिया था।
“पंचायत की बात तो मानेगा?”
“हॉं! वह तो है!”
“हम दोनों पंच हैं! हम दोनों तय करते हैं कि ..”
“लेकिन हम तो दो हैं, छोटे हैं और ..”
“भूल जाओ छोटे बड़े को नकुल!” चुन्नी ने जैसे उसकी पीठ ठोकी थी। “हम दो हैं .. और पंच हैं! गरुणाचार्य हमारे महा पंच हैं! पांच में से एक गया तो चार और चार में से दो गये तो दो!”
“ये कौन सा गणित है बहिन जी?” नकुल चकरा गया था।
“ये गणित ये है भाई साहब कि दो में से एक और गया तो – एक!”
“मतलब?”
“मतलब कि अगर हम दोनों एक हैं तो हमारे लिए मणि धर को साथ मिलाना कठिन काम नहीं है! और अगर हम तीन हो गये तो समझो कि हम जंग जीत गये!”
“लेकिन वो कैसे ..?”
“अरे, अकेला हुल्लड़ ही तो रह जाएगा!” चुन्नी ने अब जटिल गणित को भी ग्राह्य बना दिया था। “वह क्या करेगा? वैसे भी तो वो मूर्ख है!”
“आप हाथियों को कमजोर आंक रही हैं?” नकुल ने आश्चर्य से पूछा था।
“क्यों ..? क्या धरा है हाथियों में! आधे तो वैसे ही आदमी की मजदूरी करते हैं ओर बाकी के भी ..”
“लेकिन मणि धर मानेगा क्या?”
“तुम मनाओगे उसे!” चुन्नी ने अपना आखिरी पत्ता फेंका था।
“मैं ..? वह तो मेरा पक्का बैरी है!”
“तभी तो!” चुन्नी ने आंखें मटकाई थीं। “कह दो – भाई खाओ, जितने चूहे खा सकते हो! अब मैं कोई दखल न दूंगा!”
“मणि धर खुश!” नकुल खुशी से उछल पड़ा था।
“हो गया न हमारा?” चुन्नी भी हंस पड़ी थी।
एक बहुत बड़ा समीकरण बिठा दिया था चुन्नी ने।
“हम छोटों को इन मोटों के जाल से बाहर आना होगा नकुल भाई!” चुन्नी ने नई घोषणा की थी। “समाज वाद! हमें समाज वाद का परचम लहराना होगा! सत्ता हमारे हाथ में होनी चाहिये – किसी एक के हाथ में नहीं!”
“फिर हम किसे चुनेंगे?” नकुल ने अगला सवाल पूछ ही लिया था।
“लालू को!” चुन्नी के पास उत्तर था। “उससे बड़ा समाज वादी है कौन?” चुन्नी ने कहा था। “गीदड़ हमेशा से ही एकता में अनेकता की बात करते हैं!”
“विचार तो बुरा नहीं है बहिन जी!” नकुल ने चुन्नी के विचार पर स्वीकृति की मोहर लगा दी थी।
नकुल को चुन्नी के साथ हुई अपनी बैठक एक ऐतिहासिक उठा कदम लगी थी। उसे लगा था कि अब तक अंधकार में जीता वह उजालों में आ गया था। उसका स्वामी भक्ति का भूत अचानक भाग गया लगा था। उसे अब पृथ्वी राज एक निरा चूहा ही नजर आने लगा था। कल को वह तेजी से मिलेगा और सरे आम मिलेगा!
अगर बात बनती है तो तेजी को ऊपर लाने में क्या लगेगा? मणि धर से हुई मुलाकात के बाद तो साफ हो गया था कि सत्ता के मालिक हैं ही पंच! और फिर पृथ्वी राज को जब पता चलेगा कि वह मणि धर के साथ मिल गया है तो उसका तो सत्ता का बुखार स्वयं ही उतर जाएगा!
हंसा था नकुल .. बहुत जोरों से हंसा था और हंसता ही रहा था!
लगा था जंगल में डेरा डाली बैठी गुलामी कोसों दूर भाग गई थी।
“मुझे जंच गया है कि तुम मेरी नइया पार लगा दोगे शशांक!” लालू बड़ी ही आत्मीयता से बतिया रहा था। “अगर हमारी सत्ता कायम हो गई तो सुंदरी से शादी मैं ही कर लूंगा!” उसने हंस कर कहा था। “क्या विचार है तुम्हारा?” उसने शशांक से पूछ लिया था।
“और ये शेर ..?” घिघ्घी बंध गई थी शशांक की। “जानते तो हो इस धूर्त को भाई!” वह हिचकोले ले ले कर बोल रहा था। “अगर इसे भनक भी पड़ गई कि तुम ..”
“महा मंत्री बनोगे इतने बड़े साम्राज्य के ..” लालू ने शशांक की कमर पर पंजा रक्खा था। “तो क्या फिर भी इस शेर का समाधान न निकाल पाओगे?” लालू ने व्यंग किया था। “फिर सत्ता कैसे चलेगी मित्र?” उलाहना दिया था लालू ने।
शशांक सकते में आ गया था। वह चाहे जो कर सकता था पर शेर का सामना करना उसके बूते के बाहर की बात थी।
“ठीक है!” शशांक ने तनिक सोच कर कहा था। जैसे अब वह महा मंत्री ही था – उसने लालू के रचित साम्राज्य की रक्षा के हित में सोचना आरम्भ कर दिया था। “लड़ाई के मोर्चों पर भेज देंगे इन सब शेर बघेरों को! वहीं लड़ेंगे मरेंगे और खप लेंगे!” उसने मुड़ कर अब लालू को घूरा था।
“बहुत खूब! बहुत खूब मित्र!” तालियां बजा रहा था लालू। “और जो थोड़े बहुत बचेंगे भी उन्हें साम्राज्य का संतरी बना कर बाहर तैनात कर देंगे!” लालू ने भी हाथ झाड़ दिये थे। “लो अब बन गया काम!” वह दोनों गले मिल रहे थे।
शशांक को लगा था कि उसकी बुद्धि बहुत कमाल की थी। जटिल से भी जटिल समस्या का तोड़ पल छिन में उसकी समझ में आ जाता था। धीरे धीरे और सोच समझ कर वह अपने लिए एक साम्राज्य की संरचना करता ही जा रहा था!
लालू – उसका मित्र कब तक मित्र बना रहता है – यह एक ऐसा प्रश्न था जिसका उत्तर केवल वक्त के पास ही था।