चांद आसमान पर था। लेकिन अंधेरा अब भी उसके साथ आंख मिचोली खेल रहा था। धरती पर सब दबा ढका सा शांत सो रहा था। पुरवइया था जो ठमके मार मार कर पेड़ पौधों का जगा रहा था। उल्लुओं के आलाप से कभी कभार रात कांप उठती थी। लेकिन था सब शांत।
तालाब पर बैठा चौकीदार भी आंख मुंद कर सो रहा था।
अब डर नहीं था। लालू गीदड़ दबे पांव तालाब की ओर बढ़ रहा था। उसे सब साफ साफ नजर आ रहा था। अंधेरा और चांदनी मिल कर लालू गीदड़ की आगवानी कर रहे थे।
तालाब के स्वच्छ जल को निहारते ही लालू गीदड़ की आत्मा बोली थी – धन्य हो प्रभु! कितने दिन के बाद आज जल के दर्शन हुए हैं। पहले पेट भर कर पानी पीता हूँ ..
जैसे ही वो पानी पीने चला था कि उसको अपना चेहरा पानी में तैरता नजर आया था।
“अजीब हो, यार! अपने आप को भी नहीं पहचानते?” लालू ने स्वयं से कहा था।
“और हमें भी नहीं पहचाना सूरमा?” एक अलग से आवाज आई थी।
“अरे, रे! लच्छी भाभी?” लालू मुसकराया था। “आप और यहॉं?”
लालू गीदड़ ने एक निगाह में लच्छी के पूरे बदन को भर लिया था। जब उसने पूंछ हिलाई थी तो लच्छी की पूरी काया उसे दिखाई दे गई थी। चांदी सी सुघड़ काया और नरम नरम बदन उसके दांत के नीचे टूटने लगा था। गरम गरम लहू का स्वाद और नरम नरम हड्डियों की करकराहट उसे याद हो आई थी। मछली खाने का तो मजा ही अलग था – वह सोचता रहा था।
लच्छी थी भी कितनी दूर?
कितने दिनों के बाद आज उसकी किस्मत ने काम किया था। न जाने जंगल में भूखों मरते कितने दिन हो गये थे। पेट में भूख की आग जल रही थी। और जंगल में जो कोहराम मचा था – वह उसे अब भूल जाना चाहता था।
“आप कब आये सूरमा?” लच्छी पूछ रही थी।
“बस चला ही आ रहा हूँ!” लालू मुसकुराया था। “ये तालाब मैंने खरीद लिया है! अब तो यहीं रहना होगा!”
“अरे, आप हैं नए मालिक?” लच्छी लहराई थी। “लेकिन विशाल जंगल छोड़कर आप यहां?”
“क्या धरा है – अब जंगल में लच्छी!” लालू तनिक बिगड़ा था। “नीरा नदी पर बांध बन गया है। तुम्हारे आने के बाद सारा पानी सूख गया है। जीभ से चाटो तब कहीं पता चलता है पानी का! अच्छा हुआ तुम चली आईं!”
“हमारे तो यहां मजे हैं सूरमा!” लच्छी मुसकुराई थी। “खाना नहाना – सब वक्त पर होता है। भाई कुछ भी कहो – आदमी वक्त का पाबंद तो है!”
“वो तो है!” लालू ने हामी भरी थी। अब वह दो कदम और आगे बढ़ आया था।
अब लच्छी उसकी मात्र एक लपक के आगे थी।
लच्छी को खाकर ही वो पानी पियेगा, लालू ने तय कर लिया था।
“कजरी का क्या हाल है?” लच्छी ने पूछा था।
“भूखों मरती है।” लालू तिरस्कार से बोला था। “जंगल की खाक छानकर भी कुछ नहीं मिलता लच्छी!”
“यहां क्यों नहीं चली आती?” लच्छी एक बार फिर पानी में लहराई थी और उसकी चांदी सी धवल काया चांदी के प्रकाश में चमक उठी थी।
लालू लपकने ही वाला था कि रुक गया। मन हुआ कि लच्छी के साथ क्यों न मन की दो दो बातें कर ले?
“यहां आकर क्या करेगी? लोमड़ी दूध तो देती नहीं जो आदमी रख लेगा?” लालू ने सच्चाई सामने रख दी थी।
“हॉं भाई! आदमी के यहां तो उसी का गुजारा है .. जो ..”
“आप जैसा हो – भाभी!” लालू ने बात काटी थी। “अब देखिये! आप जैसी सुंदर, सुघड़ और सजीली ..” लालू की आंख लच्छी के ऊपर आ टिकी थी। वह झपटने के लिए तैयार था।
लालू की नाक ने मछली की गंध सूंघ ली थी। हे राम! वह मन ही मन कह रहा था – कितने दिनों के बाद आज आपने कृपा की है। मछली की सूंघ में भी कितना दम है! और कितना जालिम है ये आदमी? हम से तो मछलियां भी छीन लाया?
“लेकिन जंगल की वो आजादी, वह खिलंदड़ माहौल और वह लोल किलोल यहां कहां सूरमा!”
“अब तो हम आ गये हैं, भाभी!” हंसा था लालू। “हाथ मिलाओ!” उसने अपनी नाक और आगे बढ़ा दी थी। “आप का नाच गाना अब हम सुना करेंगे!”
“आप बहुत अच्छे हैं सूरमा!” लच्छी लहराकर लालू के जैसे दांत के नीचे ही आ गई थी।
“आओ आओ! जब हम मालिक हैं तो लच्छी रानी ..”
धांय धांय! ऊंघते उस आदमी ने अचानक ही बंदूक दाग दी थी!
लगा था जैसे गोली लालू के बदन के पार हो गई थी। वह मरने मरने को ही था लेकिन फिर मरा नहीं था! लच्छी गहरे पानी में डुबकी लगा गई थी और वह जंगल की ओर जोर लगा कर भागा था!
“सत्यानाश हो इस आदमी का!” लालू कोसता जा रहा था और भागता जा रहा था। उसका कलेजा उछल कर उसके शरीर से बाहर जा गिरा हो उसे ऐसा लग रहा था। “न जाने क्या क्या औजार हैं – इस आदमी के पास!” लालू बड़बड़ा रहा था। “भला हुआ जो गोली नहीं लगी – वरना आज लच्छी के लालच में जान ही चली जाती!”
मेजर कृपाल वर्मा