रात्रि का सूना प्रहर था। चंद्र प्रभा शांत बह रही थी। लेकिन गुलनार अशांत थी। उसके तपते माथे पर मैंने अपना हाथ रख दिया था। उसने आशीर्वाद जो नहीं लिया था। अब मैं प्रार्थना कर रहा था प्रभु से गुलनार के लिए!
न जाने कहां से चलकर आई थी गुलनार! न जाने कौन कौन सी विपदाएं झेल कर यहॉं पहुँची होगी?
मैं भी आज पहली बार अशांत होने लगा था! विगत था – जो आकर मुझसे बतियाने लगा था!
जीने की राह पर मैं कुल चार कदम ही चला हूँगा कि आगे अंधा मोड़ था! मैं चौकन्ना हो कर आगे बढ़ा। जैसे ही मैंने मोड़ को काटा कि गुल नार मेरे सामने खड़ी थी!
मैंने गुलनार को देखा था। गुलनार ने मुझे देखा था। मैं उसे देख कर बेहोश होने वाला था। वह भी मुझे देखती ही रही थी। न वो बोली थी और न मैं बोला था। लेकिन संवाद तो आंखों आंखों में चल पड़े थे! प्रश्न ही प्रश्न थे – उत्तर थे ही नहीं! लेकिन उत्तरों की जरूरत भी क्या थी?
“त .. त .. तुम?” मैं बोल ही नहीं पा रहा था।
“म .. म .. मैं ..?” वह भी कुछ न कह पाई थी।
लेकिन न जाने क्यों और कैसे उस पल के बाद ही हमारी जीने की राह एक हो गई थी! मुझे लगा था – मैं गुलनार को जन्म जन्मांतरों से जानता हूँ और गुलनार को भी मैं कोई अजनबी न लगा था! लगा था – हमारी पहचान बहुत बहुत पुरानी थी!
“क्या करते हो?” गुलनार ने एक दिन पूछा था।
“कचौड़ियां बनाता हूँ – बनिए राम मिलन की दुकान पर!” मैंने उसे बता दिया था।
“अरे! वो कचौड़ियां तुम बनाते हो!” गुलनार चहकी थी। “कमाल की कचौड़ियां होती हैं। लाइन लगा कर बिकती हैं!” फिर कुछ सोच कर पूछा था गुलनार ने। “कित्ता देता है?”
“बस यूं हीं!” मैं शरमा गया था। वास्तव में ही राम मिलन टरकाता ही रहता था। कभी आज तो कभी कल – कुछ न देता था!
और मुझे याद है कि मैंने लपक कर गुलनार को पकड़ लिया था – किनारा मान कर और उसने भी पा लिया था मुझे एक सहारा जान कर!
और हम दोनों जीने की एक नई राह पर चल पड़े थे – निर-उद्देश्य!

मेजर कृपाल वर्मा