“मुझे भगा ले चल पीतू!” गुलनार रो रही थी, बिलख रही थी और उसकी आंखों से चौधार आंसू बह रहे थे। “हम सात बहनें हैं!” रोते रोते गुलनार बताने लगी थी। “दो पहले ही बिक चुकी हैं। अब मैं ..” वह मुझसे लिपट गई थी। “मैं मर जाऊंगी पीतू। मैं कुएं पोखर में कूद जाऊंगी .. अगर ..”
मुझे याद है – वो एक एक पल याद है जब गुलनार का उसे भगा कर ले जाने का प्रस्ताव उसी के द्वारा मेरे सामने आया था!
मेरे पास था क्या? कहां ले जाता भगा कर उसे? क्या खिलाता उसे? राम मिलन ने छह माह से पगार ही न दी थी। कहता था – इकट्ठी ले लेना जब कभी कुछ करे तो! जुड़ने दे पैसे को ..। लेकिन ..
“कहां जाएंगे भाग कर?” मैंने गुलनार से पूछा था।
“कहीं भी!” उसका उत्तर था। “साथ साथ तो रहेंगे!”
मैंने अगले प्रश्न गुलनार से नहीं पूछे थे। व्यर्थ था क्योंकि मैं भी जानता था कि गुलनार ..
“कितना वक्त है ..?” मैंने अहम प्रश्न पूछा था।
“दो चार दिन बस!” गुलनार का उत्तर था।
“बताता हूँ!” मैंने उसे आश्वासन दिया था।
यही वक्त था – ठीक ठीक याद है मुझे कि यही वक्त था जब मेरे जीवन की पहली जंग जुड़ी थी। अचानक मुझे आत्मज्ञान हुआ था कि मुझे अब पैसों की जरूरत थी। गुलनार को भगा कर ले जाने का अर्थ मैं समझ गया था!
“मेरी पगार दे राम मिलन!” मैंने मांग की थी। “मॉं सख्त बीमार है!” मैंने सफेद झूठ बोला था। “गांव जाऊंगा!” मैंने ऐलान कर दिया था।
“पागल है!” राम मिलन झल्ला उठा था। “पेड़ों पर लगते हैं – पैसे ..?”
“रोज माल कमाता है?”
“खर्चा काट कर बचता क्या है?”
“मैं नहीं जानता! मुझे पैसे दो! मॉं बीमार है! गांव जाऊंगा ..” मेरा ऐलान था।
जम कर जंग हुई थी। भरे बाजार में मैंने रो रो कर राम मिलन की पगड़ी उछाली थी। लोग सुनते और चले जाते! लेकिन राम मिलन ..
“ले पकड़!” उसने मुझे पैसे दिये थे।
“तीन माह का है?”
“हॉं! बाद में और दे दूंगा!” राम मिलन का झूठा वायदा था – मैं जानता था।
लेकिन मैं गुलनार से झूठ नहीं बोल सकता था!
“कल लेने आ रहा है!” गुलनार ने मुझे आ कर बताया था।
“आज ही रात भाग चलते हैं!” मैंने राय दी थी। “रेलवे स्टेशन पर इंतजार करूंगा – आ जाना!” मैंने उसे समझाया था।
रेलवे स्टेशन पर उन इंतजार की घड़ियों को गिनता मैं – कैसे कैसे विचारों के भंवरों में बहा था – मैं आज भी उन्हें पहचानता हूँ! अगर गुलनार नहीं आई तो मैं कहां जाऊंगा? क्या करूंगा? और वो आई तो .. तो ..? डर लगा था मुझे – अगर पकड़े गये तो क्या होगा? मैं मानता था कि मुझ पर खूब मार पड़ेगी और राम मिलन भी मुझे छुड़ाएगा नहीं! फिर नहीं रक्खेगा मुझे नौकरी पर क्योंकि मैं झूठा साबित हो जाऊंगा और ..
स्टेशन पर लगी घड़ी की सूइयां घूम तो रही थीं पर मेरा भी माथा घूमने लगा था! गुलनार जो नहीं पहुँची थी!
मैं पागल होने को था – मुझे याद है! कहां जाऊं, क्या करूं? मुझे तो गुलनार के घर का पता तक नहीं था! निरुद्देश्य – जिंदगी का वो पल कितना विनाशकारी था – मैं ही जानता हूँ!
“गुलनार ने तो कुआं पोखर में छलांग लगा दी होगी – जरूर!” मैं मान बैठा था। “रेल के नीचे आ कर तू भी कट कर मर जा पीतू!” मैंने भी अंतिम निर्णय ले लिया था।
और जब मैं रेल की लाइन पर जाकर लेटने को था तब मैंने गुलनार को लाइन पार करते देख लिया था – जीने की राह की तरह!

मेजर कृपाल वर्मा