“कैसी है ..?” मैंने गुलनार की ओर इशारा कर डॉ प्रसाद से पूछा है।

डॉ प्रसाद हमारे आश्रम को निशुल्क सेवाएं प्रदान करते हैं। गुलनार अभी भी बेहोश है।

“बची कैसे स्वामी जी – मैं हैरान हूँ!” डॉ प्रसाद की आंखों में आश्चर्य है। “भूखी प्यासी .. न जाने कब से और कैसे चल कर आई, हैरानी की बात है!” वह बताते रहे हैं।

हॉं! हैरानी की बात है पर मुझे तो पता है इस रहस्य का। मेरा परिचय तो इस भूख प्यास से बहुत पुराना है!

घर से भाग कर आया था तो मंदिर में आ कर शरण ली थी। शाम को पुजारी ने प्रसाद दिया था और उसी को खा कर मैं वहीं मंदिर की सीढ़ियों पर सो रहा था। सुबह तालाब में नहा कर आया था तो भूख .. इतनी जोर की भूख .. कि ..

बाजार में राम मिलन की दुकान पर भीड़ जमी थी। लेकिन राम मिलन परेशान था। कचौड़ी बनाने वाला हलवाई पेट के दर्द से बिलख रहा था। अब हो तो क्या हो? और मैं भूख से बिलख रहा था – हो तो क्या हो?

“मैं बना दूँ कचौड़ियां?” मैं राम मिलन की सहायता के लिए सामने आया था। “मुझे आती हैं!” मैंने कहा था। “मैं .. मैं .. घर में ..”

“चल बना!” मरता क्या न करता, राम मिलन मान गया था।

सच कहता हूँ गुलनार मैंने चुपके से एक कचौड़ी .. पहले ही घान की कचौड़ी चुरा ली थी और चुपके चुपके कचौड़ी बनाता बनाता उसे खाता रहा था। ओर फिर तो ..

लोग कचौड़ियां खा रहे थे, ले भी जा रहे थे लेकिन किसी की कोई शिकायत न थी। मैंने राम मिलन को ही चुपके से कचौड़ी खाते देख लिया था। और जब उसने मुझे मुड़ कर देखा था तो मुझे वो प्रसन्न दिखा था और मैं मान गया था कि मेरी कचौड़ियां ..

खूब बिकी थीं .. पूरे दिन बिकी थीं और राम मिलन ने मोटे नोट कूटे थे। शाम को दुकान बंद करते समय उसे मेरा ध्यान आया था!

“क्या नाम है?” उसने पूछा था।

“पीतू!” मैंने उत्तर दिया था।

“कहां रहते हो?” उसका अगला प्रश्न था।

“ग – ग गांव में!” मैंने चतुराई से सब कुछ छुपा लिया था।

“अब ..?” राम मिलन का अगला प्रश्न था।

“यहीं! फट्टे पर सो रहूँगा!” मैंने उसे सरल विकल्प बता दिया था।

“ठीक है!” कहकर वह चलता बना था।

मैंने अब गुलनार की आंखों को पढ़ा था। पहली बार मैंने गुलनार के उस ममतालू चेहरे के दर्शन किये थे – जो मेरी मॉं का था!

“कचौड़ियां लाया हूँ – तुम्हारे लिए!” मैंने चुपके से कचौड़ियों के दोनों को गुलनार के सामने रख दिया था। “खाओ!” मेरा विनम्र आग्रह था!

“कचौड़ियां चुरा कर लाए हो – मेरे लिए ..?” गुलनार का वो हर्षातिरेक मुझे आज भी याद है! “आओ! साथ साथ बैठ कर खाते हैं – उस पेड़ की छांव में!” गुलनार ने मुझे आमंत्रित किया था।

और हम दोनों साथ साथ कचौड़ियां खाते न जाने कब मिल बैठे थे और चल पड़े थे साथ साथ जीने की इस राह पर!

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading