मैं आश्रम में भ्रमण करने के बाद लौटा हूँ!
गुलनार की आंखें बंद थीं। गहरी नींद में सोई थी शायद! लेकिन चेहरे से साफ जाहिर था कि वो अब स्वस्थ है।
मेरे तीन व्रत – मेरे महा बाहुओं की तरह अब मेरे साथ ही रहते हैं। आज अचानक मुझे एहसास हुआ कि मैं अकेला नहीं हूँ। आज जब मैं गुलनार को देख रहा था तो मेरी दृष्टि साफ थी, मन भी शांत था और मैं संयत था। अर्थ – कि मुझे मेरे इन तीनों व्रतों ने अपने हाथों में ले रक्खा था!
मुझे अच्छी तरह से याद है – जब मैंने इन तीनों व्रतों को ग्रहण किया था!
“हॉं – तो ..! अब क्या करोगे पीतू?” कोई अनाम शक्ति थी जो मुझे पूछ रही थी। “मरे तो नहीं – तुम?” उसने मुझे उलाहना दिया था। “और जिन्हें तुम अपना मानते थे – उन्होंने ही तुम्हें ..”
ये सच था। और अब भी मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरे अपनों ने – गुलनार और मेरे चार बेटों ने मुझे ..!
“ये माया है पीतू!” मुझे वही आदि शक्ति समझा रही थी। “सच तो है – पर शाश्वत नहीं है!” वह हंसी थी। “लेकिन जीना तो फिर भी पड़ेगा?”
“किस लिए?” मैंने भी पहली बार प्रश्न किया था। “उन्हें मेरी जरूरत है कहां?”
“अब औरों के लिए जिओ!” उसका प्रस्ताव था। “देखना पीतू कि किस तरह का असीम आनंद तुम्हें मिलेगा जब औरों के सुख दुख बांटोगे .. और ..”
“मुझे तो कुछ नहीं आता!”
“यहां किसी को कुछ नहीं आता! हा हा हा! ये आना-गाना भी भ्रम है, पीतू!” वह बता रही थी। “और तुम्हें सब कुछ आता है! पलट कर देखोगे तो तुम पाओगे कि तुम ब्रह्म ऋषि हो!”
“मैं नहीं मानता!” मैं बिगड़ गया था। “मैं नहीं मानूंगा!” मैं साफ नाट गया था।
मेरा मन बिदक गया था। भाग कर मैं चंद्र प्रभा के दूसरे किनारे पर जा बैठा था। मुझे अब भी आज भी किन्हीं उन प्रांत प्रदेशों को खोजना था जहां गुलनार से भी ज्यादा सुंदर कोई देवांगना मिले और उसी तरह साथ चल पड़े जैसे कि .. गुलनार ..
सच में ही गुलनार सर्वश्रेष्ठ सुंदरी थी। कहां भूला था मेरा मन गुलनार के साथ जिए उन पलों को – उन सुखद पलों को, बेहद मोहक और आत्मीय पलों को जब लगा था कि हम दोनों एक जान थे, एक प्राण थे और अनंत तक जाने वाले दो प्रेमिल प्राणी थे!
तब हम दोनों एक दूसरे के लिए समर्पित थे!
“ऐसा ही कोई रास्ता फिर से ढूंढो पीतू!” मेरे मन ने मेरी खुशामद की थी।
“इसे मोह कहते हैं पीतू!” आदि शक्ति ने मुझे फिर आवाज दी थी। “फिर से फंस जाओगे!” वह मुसकुरा रही थी।
“फिर मैं क्या करूं?”
“त्याग दो इस मोह को और छोड़ दो अहंकार को!”
“पर कैसे ..? मुझे तो .. मैं तो ..?”
“वैराग्य का व्रत ले लो!”
“पर कैसे ..?”
“संकल्प करो! करो तो संकल्प! सब स्वयं तुम्हारे पास पहुंच जाएगा!”
और संकल्प करते ही मैं एक उजाले में चला आया था!
इस जीने की राह का ये पहला कदम था!

मेजर कृपाल वर्मा