“एक कट्टा मैदा कम लग रही है।” बबलू गुलनार को बता रहा था।

“मौसम नरम चल रहा है। गरम गरम कचौड़ियां तभी सुहाती हैं जब ..” गुलनार बबलू को समझा रही थी।

लेकिन मैंने सुनते ही बीमारी की नब्ज पकड़ ली थी।

कचौड़ियों की सेल डूब रही थी। इसलिए कि कचौड़ियों का जायका बदल गया था। मुझे तो पता था कि जो मैदा बनवारी भेज रहा था वो घटिया थी। क्योंकि उसमें कालू हलवाई की पत्ती थी। और अब बबलू मसाले भी घर पर न कुटवा रहा था। रेडीमेड मसाले आ रहे थे। उसमें भी कालू ने पत्ती बिठा ली थी। कचौड़ियों के कलर से ही पहचान हो जाती थी कि पहले वाली कचौड़ियों से ये अलग थी!

भोजपुर के घरों से भी अब कचौड़ियों की कम डिमांड आने लगी थी।

मैंने बबलू को मोटर साइकिल पर दौड़ भाग करते देखा था। लेकिन वो था तो अनाड़ी! बच्चा था अभी बबलू। और कालू था पका-पौड़ा घाघ। वो बीच में ही नोट कूट रहा था। एक बार मेरा मन तो आया था कि कालू को कॉलर से पकड़ लूं और उसे जूतों से मारूं! लेकिन क्यों? मैं क्यों मारूं कालू को? मैं तो अब यहां कोई था ही नहीं! नाम, काम, शौहरत और सारा सर्वस्व गुलनार का ही तो था। गुलनार का ही सब कुछ था मैं तो कुछ था ही नहीं। फिर मैं क्यों अपनी जान आफत में डालता?

ये पहला ही मौका था जब मुझे ईर्ष्या, द्वेष और क्रोध ने आकर घेर लिया था।

आज पहली बार मैंने मुंह खोल कर गुलनार के लिए बददुआएं मांगी थीं। मेरा अंतर घायल था। मेरा जमीर मर रहा था। मेरा मन चूक खट्टा हो गया था। मेरे मन में गुलनार और उसके चार बेटों के लिए दुआएं नहीं – बददुआएं थीं!

आश्चर्य ही था कि मेरा बहुत अपना परिवार आज मेरे लिए निपट पराया था।

“क्या बात है, बाई!” एक ग्राहक को मैंने कहते सुना था। “कचौड़ियों का तो स्वाद ही जाता रहा है।”

“नहीं तो!” गुलनार ने तपाक से उत्तर दिया था। “आप पहली ग्राहक हैं जिसकी शिकायत मिली है! वरना तो ..” गुलनार जान मान कर आती शिकायतों को झुठला रही थी।

और फिर दो कट्टा मैदा कम लगने लगी थी। लेकिन गुलनार ने गलती से भी मुझे कारण नहीं पूछा था।

उसे शर्म चढ़ी थी। उसे पता तो था कि कचौड़ियों में पीतू की की वो करामात नदारद थी। उसे तो पता था जब मैं राम मिलन की दुकान से उसके लिए कचौड़ियां चुरा कर लाता था। हम दोनों साथ साथ बैठ कर कचौड़ियां खाते थे। मैं तो उसे ही कचौड़ियां खिलाता रहता था लेकिन गजब ये था कि पेट मेरा भरता जाता था। कितने आत्मीय पल होते थे वो जब हम एक दूजे के लिए तन मन से अर्पित होते थे और ..

तब भी कचौड़ियां मैं बनाता था और वाह वाही राम मिलन लूटता था। और अब भी कचौड़ियां मैं बनाता था और नाम गुलनार का हो गया था। व्यापार परदे के पीछे से ही अच्छा चलता है – यह सोच कर मैं हंस पड़ा था।

कलाकार हो, कारीगर हो या कि चित्रकार ही क्यों न हो वह अपना हुनर अपने साथ ही लेकर मरता है। उसे न कोई खरीद सकता है, न कोई छीन सकता है और न कोई चोरी कर सकता है।

अब मैं देखना चाहता था कि क्या राम मिलन की तरह ही गुलनार भी बाजार से उठ जाएगी?

बाजार भी उसे ही बिठाता है जो उसे सिखाता है।

बाजार की भी अपनी एक अलग राह है! जो उस राह पर नहीं चलता वो बाजार में भी नहीं चलता!

हर किसी की अपने जीने की एक राह होती है – बाजार की तरह!

मेजर कृपाल वर्मा

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