अमरीश और सरोज अविकार और अंजली की शादी के बाद अब अमरपुर आश्रम जा रहे थे। उन्होंने वानप्रस्थ स्वीकार कर लिया था। वंशी बाबू की भक्त मंडली उन्हें आश्रम ले जाने के लिए अमरीश विला पहुंची हुई थी।
उनके इस गृहस्थ जीवन के परित्याग को एक उत्सव की तरह मनाया जा रहा था!
“सब कुछ देखा!” अमरीश जमा हुए लोगों को बता रहे थे। “बचपन देखा, जवानी देखी, प्रेम प्रीत देखी तो वहीं दोस्ती दुश्मनी का भी आनंद उठाया! सफलता विफलता का रोग जब सर चढ़ कर नाचा तो प्राण निकल कर हथेली पर आ बैठे! अब मरा कि जब मरा – अब गया कि जब गया का शंख नाद दम सुखा गया। हिम्मत के आखिरी छोर पर आ बैठा था मैं। अजय और मानुषी की मौत ने तोड़ दिया था मुझे। बुरे वक्त ने मुझे चोर से लेकर कातिल तक बता दिया था। अच्छाई सच्चाई मुझे डूबती नजर आई थी और तब कभी स्वर्ग लगने वाला ये संसार मुझे निरा नरक दिखाई दिया था।
अब आ कर मुझे धर्मा ने यूं ही कहा कि मैं परमेश्वर की शरण गह लूं। और सच कहूँ तो मैं मानना ही नहीं चाहता था – किसी परमेश्वर को! लेकिन ..”
अमरीश ने अश्रु पूरित आंखों से जमा लोगों को देखा था।
“लेकिन सत्य परमेश्वर ही है। वही शाश्वत है – वही शक्तिशाली है! मनुष्य नहीं।” अमरीश ने भी सच का ही झंडा ऊंचा किया था। “अब शेष जीवन उसी परमेश्वर की शरण में जीऊंगा और आश्रम में रह कर से वा का व्रत लूंगा! थके हारे श्रांत और दुर्बल मन प्राण को अब शांति ही दरकार है।”
तालियां बज उठी थीं। श्रोताओं को आज कुछ अनूठा सुनने को मिला था। समाज की भी आंखें खुली थीं। चंद सामाजिक और सत्यनिष्ठ मूल्य आचरण के लिए आगे आए थे। अमरीश और अजय दो ऐसे उदाहरण मिले थे समाज को जिनका अनुसरण करना आवश्यक था।
प्रेस और मीडिया भी उपस्थित था। उन सब को कल की बात याद थी। उन सब को पता था कि कल का समाज का विलेन आज का हीरो था। कल की हीरोइन – गाइनो ग्रीन आज जेल में बंद थी। कल के लगाए सारे कयास और कानूनी दांव पेच विफल हो गए थे। सच का सवेरा हुआ खड़ा था – एक आश्चर्य की तरह!
“हमारा सच्चा सुख हमारी बेटी का सौभाग्य ही है अवि।” सरोज अविकार को बाँहों में लिए-लिए बता रही थी। “और अंजली भी तुम्हें पा कर ..” सरोज की हिलकियां बंध गई थीं। “न जाने कितना मर-मर कर जीए हैं हम, अवि! तुम्हारे गायब हो जाने के बाद से हम एक पल भी जी नहीं पाए। बेटी का दुख .. बेटी का वह ..!” चुप थी सरोज।
“अब तो प्रसन्न हैं न आप?” अविकार ने पूछा था। “मेरी ओर से तो आप की अंजू ..”
“अंजू अब तुम्हारी है अवि!” कांपते होंठों से सरोज ने कहा था। “हम तो कन्या दान कर चुके बेटे। तुम हमारे दामाद हो और हमारे लिए तो तुम्हीं ..”
“मैं .. मैं आप को कभी निराश न करूंगा अम्मा जी!” अविकार ने वायदा किया था।
अंजली ने खड़े-खड़े सारे दृश्य को गौर से देखा था।
इसके उपरांत वंशी बाबू का भक्त मंडल पूरे दृश्य पर छा गया था।
अमरीश और सरोज का स्वागत हुआ था – वानप्रस्थ में। समाज के लिए ये एक उदाहरण स्थापित हुआ था। यह एक नया प्रयोग था – जो कभी से था पर आज की ये खोज नई थी। सांसारिक मोह माया को यों जीते जी त्याग देना बड़ा अजीब लगा था लोगों को। मोह माया का परित्याग मौत के बाद ही संभव था – लोग जानते थे।
“अजय की मौत के बाद मुझे सब कुछ मिथ्या लगने लगा था।” अमरीश बता रहे थे। “मेरे लिए तो अजय ही एक आविष्कार था। और उसके जाने के बाद ही मैं मर गया था।” अमरीश की आंखें नम थीं। “लेकिन .. लेकिन अब उसका ऋण चुका कर एक नए रास्ते पर चल पड़ा हूँ।”
और उनका ये नया रास्ता अजय के पास जाने के लिए उपयुक्त था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड