अपने एकांत में बैठे स्वामी पीतांबर दास आज अपने वैराग्य को नए पैमाने से नाप रहे थे।
अमरीश जी ने जैसे उन्हें नए नेत्र प्रदान किए थे और दुनिया को फिर से देखने को कहा था। कहा था – धन को स्वार्थ के बजाए परमार्थ में लगा दिया जाए तो फलता फूलता है। धन को अगर संचित कर छिपाया जाए, चुराया जाए या फिर उस पर कुंडली मार कर बैठा जाए – तो उसमें विकार पैदा हो जाते हैं।
देश के हमारे पढ़े-लिखों को ये ज्ञात नहीं था क्या?
और गुलनार ..? अचानक ही स्वामी पीतांबर दास की निगाहें पलटी थीं और उनका विगत सामने आ खड़ा हुआ था। उन्हें याद था – जब गुलनार नोटों की गड्डियां बना-बना कर उन्हें जोड़ती थी और छुपा कर रख लेती थी। खूब सारा धन जमा कर लिया था गुलनार ने। नाव पर बैठी गुलनार के पास बड़ा पैसा था और चार घोड़ों से उसके बेटे थे। उसी गुरूर में गर्क हुई गुलनार ने उन्हें नदी में मरने के लिए फिंकवा दिया था।
लेकिन .. लेकिन क्या हुआ उस धन का? क्या हुआ चार बेटों का? अब कहां थी गुलनार ..? अचानक गुलनार का गायब हो जाना भी एक घटना थी। उन्हें तो तब भी गुलनार कभी कभार पव्वे के लिए पैसे देती थी। वो तो तब भी बैरागी थे और आज भी बैरागी हैं। उनकी समझ में जिंदगी का ये खेल कभी नहीं आया! कचौड़ियां बनाना ही सीख लिया था उन्होंने सो वो भी सफल न रहा।
और एक अमरीश जी थे कि हजारों योजन दूर तक की बात सोच लेते थे।
अगर अमरपुर आश्रम अमरीश जी की परामर्श पर पैसे को खर्चने लगा तो अवश्य ही वारे के न्यारे हो जाएंगे। क्या ले लेगा श्री राम शास्त्री? अगर सारे देश में संस्थाएं चलेंगी तो अनेकानेक लोगों का उद्धार होगा। इससे बड़ा पुण्य का काम और क्या होगा?
“काश! गुलनार को भी ये समझ आ जाती तो शायद ..?” स्वामी जी ने माला के मनकों की तरह विचार को घुमाया था। “चार बेटे चारों दिशाओं में साम्राज्य बसा देते!” उनका अनुमान था।
“विचार की ही माया है। छोटा विचार जल्दी पक जाता है। आदमी जल्दी हार जाता है। लेकिन बड़ा विचार तो बेल की तरह बढ़ता है। छाता ही चला जाता है जैसे कि अब अमरपुर आश्रम की बेलें बढ़ेंगी तो चहुंदिक फैलेंगी और ..”
“गुलनार कहां चली गई? क्या उसके बेटे आ कर उसे ले गए होंगे? क्या उन्होंने भी कुछ बड़ा-बड़ा कर लिया होगा? क्या .. क्या गुलनार उन्हें बुलाएगी? आएगी कभी?” कई संभावनाएं थीं जो आज स्वामी जी के पास आ खड़ी हुई थीं।
पता नहीं क्यों कभी-कभी स्वामी जी का मन वैराग्य से उचटने लगता था।
“चलो! खोज निकालो अपने परिवार का अता-पता!” स्वामी जी का मन बोलता था। “क्या धरा है यहां जो पड़े हो?” एक उलाहना आया था। “हो सकता है – बबलू की शादी हो गई हो! परिवार में बच्चे खेल रहे हों! बस – बच्चों के साथ खेलने में ही कितना आनंद आएगा! अपने अंश-वंश होंगे मेरे अपने! पीतू का ही नाम तो चलेगा? पीतू ही तो ..”
“स्वामी जी! लोग आशीर्वाद पाने के लिए इंतजार में खड़े हैं!” शंकर ने स्वामी जी का मोह भंग किया था।
स्वामी जी बमक कर उठ खड़े हुए थे। उन्होंने अपने आस-पास को देखा था। पास आ बैठे सपने को दुतकारा था। उन्हें याद आया था कि वो तो बैरागी थे। उन्होंने अपने आप को एक पल में पहचान लिया था और लइयन-पइयन वो आशीर्वाद देने चल पड़े थे।
“बहुत बहकाती है ये माया!” चलते-चलते स्वामी जी सोच रहे थे। “अच्छा हुआ जो गुलनार गायब हो गई!” उन्हें आज पहली बार प्रसन्नता हुई थी। “जाए – जहां जाए!” उन्होंने अपने हाथ झाड़ दिए थे। “यहां कोई किसी का नहीं है।” वो बुदबुदा रहे थे। “सब के साथ ही है सर्व सुख, अकेले में तो दुख ही दुख है!” स्वामी जी का निर्णय था।
भक्तों को आशीर्वाद देते स्वामी पीतांबर दास को आज फिर से जीने की राह के सत्य पथ के दर्शन हुए थे।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड