“ओये, पव्वा!” बनवारी का नौकर निहाल था। वो किसी को पुकार रहा था – बुला रहा था। मैं उसे आंखें पसारे देख रहा था और समझने का प्रयत्न कर रहा था। “सुनता नहीं बे?” निहाल गुर्राया था। “तुझे सुनाई नहीं देता क्या?” उसने मुझसे पूछा था।

“बोल क्या है?” मैं अनमना था। निहाल का मुझे पव्वा कह कर पुकारना बुरा लगा था। पहली बार मुझे अहसास हुआ था कि मैं पीतू से पव्वा हो गया था।

“ले तेरा माल!” निहाल ने मुझे तीन पव्वे पकड़ा दिये थे। “मालिक ने कहा है – पैसे पहुंचा दे।” मुझे आदेश दे रहा था – निहाल।

लम्बे लमहों तक मैं बनवारी के चालाक चेहरे को घूरता ही रहा था।

“ले लगा ले घूंट!” मैं अब बनवारी की आवाजें सुन रहा था। “सारी थकान जाती रहेगी।” उसने हंस कर कहा था।

“नहीं यार!” मैंने बनवारी के आग्रह को टाल दिया था। “मैं .. मैं .. शराब नहीं पीता।” मैंने उसे बताया था। “बुरी बास आती है – यार।” मैंने राय व्यक्त की थी।

लेकिन बनवारी ने बड़ी ही चालाकी से मुझे बहका लिया था और फिर घूंट मारते मारते मैं पव्वा पीने लगा था। फिर तो एक नहीं मैं पीता ही रहता था – पव्वा और बनवारी मुझे देता ही रहता था पव्वा। बनवारी से हम सामान लेते थे। बनवारी उधार देता था। और जब वह हिसाब करता था तो पव्वा के पैसे काट लेता था। खूब उल्लू बनाता था वह मुझे लेकिन गुलनार मुझे पूछती तक न थी।

छुट्टी वाले दिन भी मैं बगीचे में निकल जाता और पव्वा पीकर बेंच पर सूरज की सहती धूप में लेट जाता! वो आनंद – वो सरूर और वो सुहाता बगीचे का वातावरण मुझे गोद में उठा लेता और मैं .. मैं .. गुलनार को बाँहों में भर लेता!

मुझे याद तो आते वो अपने प्रेमिल पल जब गुलनार और मैं लिपट कर सोते थे। गुलनार अपनी गोरी गोरी बांहों को मेरे गले में डाल कर सोती और मेरे बदन से लता सी लिपट जाती। उसके शरीर की गुनगुनी गर्मी मेरे शरीर को सेंकने लगती तो मैं आनंदातिरेक से भर भर आता। सांस में सांस मिला कर हम सोते थे – एक मन, एक जान हो कर हम जीते थे। लेकिन .. लेकिन .. अब सूरज की गुनगुनी धूप ही शेष रह गई थी मेरे लिए .. और ..

“बुलाया क्यों नहीं मुझे गुलनार ने?” मैं सोचने लगा हूँ। “हॉं! शायद .. शायद इसलिए कि गुलनार के पास खूब मोटी रकम आती थी। गुलनार का तो नाम चलता था। गुलनार कचौड़ी का शोर था। गुलनार का नाम और काम जग जाहिर हो गया था। घर बार भी सब गुलनार का था। बच्चे गुलनार के थे। पीतू तो कहीं था ही नहीं। बच्चे भी कहां जानते थे मुझे?

गुलनार भी चाहती थी कि मैं पव्वा पी कर भट्ठियों के पीछे ही पड़ा रहूं!

क्यों कि गुलनार का रुतबा अब खूब बढ़ गया था। उसके रहन सहन में भी बड़ा बदलाव आ गया था। घर का रखरखाव भी खूब बढ़िया हो गया था। गुलनार के बच्चे भी बहुत सुघड़ और सुंदर थे। दो चार नौकर भी अब गुलनार की अरदली में रहते थे। और मैं .. पीतू गुम नामी के दलदल में समाता ही जा रहा था और पव्वा ही था जो मेरे साथ था।

तब कोई संवाद हमारे बीच शेष बचा ही न था।

पी पा कर लड़खड़ाते कदमों से मैं एक चोर की तरह घर में घुसता था और बिस्तर में जागती गुलनार को मेरा नहीं पव्वे का इंतजार रहता था कि कहीं वो गुम न हो जाए और सुबह भट्टियां न सुलगें।

लेकिन मैंने कभी गुलनार को दगा नहीं दी।

हॉं! तभी शायद – तभी हमारी राहें बदल गई थीं। हम दोनों एक दूसरे दोराहे पर आ खड़े हुए थे।

और हम दो राहों पर चल पड़े थे – बिछुड़ गये थे।

हम दोनों ही भटक गये थे अपने जीने की राह से।

मेजर कृपाल वर्मा

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