“शोभा मेरे मामा की लड़की थी। हम उम्र थी। हम साथ साथ कालेज में पढ़े थे और खूब लड़े थे। मामा की तीन बेटियां थीं – बेटा नहीं था। मामा की हालत खस्ता थी। पी पा कर मामा मस्त रहते थे। पापा ही थे जो उनके घर बार का खर्चा चलाते थे।” गंगू अविकार को पागलखाने के एकांत में अपनी कथा व्यथा बता रहा था।

“अवि तू मानेगा नहीं पर सच यही है कि शोभा गजब की सुंदर थी। तेरी ये गाइनो तो उसके सामने पानी भरती है।” तनिक हंसा था गंगू। “कॉलेज में जहां शोभा के किस्से थे वहीं हमारे भी चर्चे थे!” गंगू का चेहरा खिल आया था। “धनी बाप के बेटे थे। कभी कार में कॉलेज जाते थे तो कभी मोटर साइकिल पर। दोनों जेबें नोटों से भरी रहती थीं। कभी कैंटीन में जमते थे तो कभी सिनेमा हॉल में। यार दोस्तों का मेला था और शोभा का झमेला था।” गंगू ने कहीं दूर देखा था।

“तो क्या प्यार हो गया था शोभा से?” अविकार ने आहिस्ता से पूछा था।

गंगू चुप था। वह कहीं सोच में डूबा था। शोभा जैसे वहीं कहीं आस पास आ बैठी थी। और अविकार को भी लगा था जैसे अभी अभी गाइनो आई है और उसे पुकारा है। वैसे भी आज गाइनो को आना ही था। गाइनो की नीली गहरी आंखों में उसका मन जा डूबा था।

“मैं आ रही हूँ गंगू!” शोभा का एक दिन फोन आया था। “इस घर में अब एक पल भी न रहूँगी मैं!” वह कह रही थी। “गंवारों का अड्डा है यह!”

“हुआ क्या?” मैंने पूछा था।

“कुछ भी नहीं। मैंने तुम्हारे साथ रहना है। मुझे बस स्टॉप से ले लेना प्लीज!” शोभा ने फोन काट दिया था।

“शादी नहीं की?” अविकार का प्रश्न था।

“बहुत बाद में कोर्ट मैरिज की थी। शोभा नहीं चाहती थी कि कुत्तों को बरात में बुलाया जाए!” हंसा था गंगू। “बहुत मुंहफट है शोभा!” गंगू ने सूचना दी थी।

“राम फल – मेरे बड़े भाई का मन आ गया था शोभा पर और मेरी भाभी ने भी शोभा को बहका लिया। बापू की मौत के बाद ऐसा ड्रामा खेला कि ..”

“धन माल का मामला होगा?” अविकार ने पूछा था।

“हां! राम फल और भाभी सरोज दोनों नहीं चाहते थे कि मुझे कुछ मिले। सो सब समेट लिया और शोभा को भी ..”

“लेकिन शोभा ..?”

“खुश है। एक बेटा है। मजे से रहती है। और मैं .. पागल ..”

“तुम कैसे पागल हुए?” अविकार ने पूछा था।

“जैसे तुम गाइनो के लिए पागल हो – मैं शोभा के लिए पागल था!” गंगू ने तनिक मुसकुरा कर कहा था। “औरत के चक्कर में आदमी को पागल बनने में लगता क्या है?” वो पूछ बैठा था। “न जान की परवाह, न मान की परवाह और न जीवन का ..”

अविकार गंगू के आरक्त हो आए चेहरे को ध्यान से देख रहा था। वहां लिखे हर भाव को पढ़ रहा था। एक सत्य था – अकाट्य सत्य जो अविकार के सामने आ बैठा था। गाइनो उसे पागल बना रही थी। गाइनो उसे गुमराह कर रही थी!

कौन है ये गाइनो? कहां की रहने वाली है? क्या इसका कोई घर बार भी है, कोई परिवार भी है या कि यूं ही ..? ये मुझसे कैसे टकरा गई? क्या ये कोई इत्तिफाक था या कि ये एक सोची समझी स्कीम थी? गाइनो के और कितने दोस्त थे, चाहने वाले थे या फिर ..?

सिहर उठा था अविकार। गंगू कहीं भी गलत नहीं था। गंगू ने तो आप बीती बात ही बताई थी और परिणाम भोगने पर भी पागल बना बैठा था।

“क्या करूं? किसे पुकारूं?” अविकार स्वयं से पूछ रहा था। उसका तो कोई था ही नहीं। एक अमरीश अंकल थे लेकिन अब उनके साथ तो उसकी दुश्मनी थी। उनके पास जाना तो अब संभव ही न था।

“भाग लो अवि!” गंगू की आवाजें थीं। “कोई न कोई रास्ता स्वयं ही खुल जाएगा!”

अविकार ने आंखें उठा कर देखा था। चंद्रप्रभा बह रही थी – शांत और मौन। खड़ा उपवन उसकी हाजिरी बजा रहा था। आश्रम का एकांत उसे सुहाने लगा था। एक नया नूतन आत्मबोध उसके पास आने लगा था। नया परिवेश था और नया परिधान उसकी एक नई पहचान बनाने लगे थे! जीने की एक नई राह खुल गई थी।

मेजर कृपाल वर्मा

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