स्वामी जी के संबोधन की शक्ति का चमत्कार मैंने खुली आंखों से देखा था।

मैं तो आंखें बंद किये पीपल दास के तने से चिपका बैठा था। लेकिन अचानक ही मैं हवा के पंखों पर बैठ उड़ने लगा था। तारों के पास जा बैठा था तो उन्होंने मुझे लाढ़ लड़ाया था। खुले आकाश ने मुझे विचरने की तमाम छूटें दे दी थीं। नदी ने मेरा सम्मान किया था तो जंगल ने मेरे पैर छूए थे।

“कुछ कहिये स्वामी जी!” अचानक एक भीड़ मेरे सामने घिर आई थी। “धरती होते पापों के बोझ से बेदम हो चुकी है स्वामी जी।”

और .. और आश्चर्य देखिये कि मैं बोल पड़ा था।

“धरा पति अंधे नहीं हैं भक्तों!” मैंने हाथ उठा कर कहा था। “जगत पिता सब जानते हैं।” मैं कह रहा था। “दुष्टों का संहार ..”

अनूठी भाषा बोल रहा था मैं! और न जाने क्या क्या कह रहा था।

यही नहीं मेरी तो चाल चलगत भी बदल गई थी। मेरी जबान भिन्न थी और मेरे आचरण भी अलग थे। मेरी आंखों में एक उज्ज्वल ज्योति तैरने लगी थी और मेरे अंग प्रत्यंग फड़कने लगे थे। कौन था मैं – मैंने स्वयं से ही पूछा था।

“स्वामी जी मुझे आशीर्वाद दें! मैं हर बार फेल हो जाता हूँ .. हर बार ..”

“इस बार अवश्य सफल होगे!” मैंने कह दिया है।

और न जाने कैसी उथल-पुथल है मेरे भीतर बाहर – मैं कुछ अंदाजा ही न लगा पा रहा हूँ। अब तो मैं आंखें खोलने से भी डर रहा हूँ। अब मैं झिझक रहा हूँ कि कहीं फिर से पीतू न बन जाऊं। मैं अब पीतू से दूर भाग रहा हूँ। मैं .. मैं पीतू को जानना नहीं चाहता और मैं नहीं चाहता कि मेरा विगत फिर से लौटे ..

“ओए, सूअर!” अचानक बनवारी ने मुझे ललकारा है। “पी कर पागल हो जाता है, साला।” उसने गरियाते हुए कहा है। “सारा तेल खिंड गया।” वह मुझे आग्नेय नेत्रों से घूर रहा है।

अरे हॉं! याद आया कि बनवारी तो मुझे पीतू कह कर भी नहीं बुलाता था। हमेशा सूअर ही कहता था। कारण – मैं पव्वा पी लेता था तो कच्ची शराब की गंध मेरे चौगिर्द गहराने लगती थी। बदन से रिसता पसीना उसके साथ मिलकर एक विचित्र मिश्रण बना देता था और .. और बनवारी कहता – उल्टियां होने को हो जाती हैं! तू न नहाता है न धोता है .. सूअर ..

सूअर के कहे बनवारी के संबोधन ने मुझे वास्तव में ही सूअर बना दिया था।

“स्वामी जी!” फिर से मैंने बंशी बाबू की आवाज सुनी है। वही स्वामी जी का संबोधन है। अब मैं डर रहा हूँ कि कहीं बनवारी न चला आये और सूअर का संबोधन बोल कर मुझे .. “अंग वस्त्र लाया हूँ स्वामी जी!” बंशी बाबू की ही आवाज लौटी है तो मैं प्रसन्न हो गया हूँ।

अब मैं हिम्मत बटोर कर आंखें खोल देता हूँ।

“अच्छा नहीं लगता था मुझे!” बंशी बाबू बता रहे हैं। “ये लीजिए! इन्हें पहनने के बाद आप ..” बंशी बाबू ने अनुरोध किया है!

और सच मानिए कि बंशी बाबू के लाए अंग वस्त्र पहनते ही मैं न जाने कैसे चैतन्य हो गया था।

अब मुझे बनवारी के सूअर कहने के संबोधन से डर नहीं लगा था। अब तो मैं पूर्ण रूपेण स्वामी जी था और अपनी इस नई जीने की राह पर चल पड़ा था।

मैंने उसके बाद कभी मुड़ कर नहीं देखा।

मेजर कृपाल वर्मा

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading