पुनर्जन्म जैसा था वानप्रस्थ। एक यात्रा के बाद दूसरा यात्रा आरंभ था।

अमरीश और सरोज आश्रम में साथ-साथ रह रहे थे लेकिन थे जुदा, अलग, असंपृक्त! अमरीश पुरुषों के साथ रहने लगे थे तो सरोज नारी निकेतन में थी। दोनों मिलते जुलते रहते थे लेकिन अजनबी की तरह।

कभी अमरीश ठहर कर दो पल जीये जीवन को निरखते परखते तो भला बुरा और अच्छाइयां बुराइयां कतार बद्ध हो सामने आ खड़ी होतीं। जहां कुछ अच्छा हुआ था वहीं कुछ बहुत बुरा भी तो घट गया था! एक घटना – सरोज के साथ हुआ उनका विवाह अपने आप में ही बेजोड़ थी। तब तो लगा था कि उनका सरोज के साथ हुआ मिलन पगलाने वाला था। सरोज इतनी सुंदर थी कि छूओ तो मैली हो जाए। और उनका अनुराग प्यार इतना बढ़ा कि वो सुध-बुध ही भूल गए थे!

“राह ही भूल गए तुम तो!” अजय ने ही उसे सचेत किया था। “नौकरी और सरोज को पा कर ही तुम पागल हो गए अमरीश!” उलाहना दिया था अजय ने।

“तो और क्या करूं?”

“मेरे साथ आ जाओ! अपना कारोबार शुरू करते हैं।”

“यार, अजय ..?”

“क्यों? भरोसा नहीं रहा अपने मित्र पर!”

नौकरी तो छोड़ी थी पर सरोज को वह नहीं भूल पाया था। कितना उन्माद था और कितनी-कितनी उमंगें थीं। अब आकर कहीं ठहराव आया है। अब आ कर एक नए संसार के साथ साक्षात्कार हुआ है। अब अपने गम भूल पराई पीड़ाओं के साथ नेह जुड़ा है। अब एक नया सवेरा हुआ है – जीवन में और आश्रम के अमरीश जी ..

और आश्रम की सेठानी जी सरोज? उन्होंने भी एक विशिष्ट दर्जा हासिल कर लिया है।

भक्ति भाव और सेवा भाव न जाने कब से उनके अंतर में सोया पड़ा था। जवानी में तो अलग ही नशा था। संसार का तो अलग ही व्यामोह था। वहां तो अपने तेरे का राग विराग ही हर पल बजता रहता था। वो आया – वो गया के जगत जंजाल में जीते-जीते काया जर्जर हो गई थी। अब आ कर मन स्वस्थ हुआ था। ये एक अलग ही सुख था – ऐसा सुख था जिससे समाज सर्वथा अपरिचित था।

स्वामी पीतांबर दास का श्रम और श्रेय हर रोज परवान चढ़ रहा था।

अमरीश जी और सरोज सेठानी का आगमन आश्रम की शान में चांद तारों की तरह जड़ गया था। भीड़ बढ़ रही थी। लाइनें लंबी हो गई थीं। शनिवार की सभाएं बेजोड़ थीं। अविकार शनिवार को कुमार गंधर्व के परिधान में ही पधारते थे और अंजली भी अपनी गायकी का जादू बखेर कर भक्तों को अभिभूत कर देती थी।

“अमरीश जी पर प्रभु ने पूर्ण कृपा कर दी!” अनायास ही स्वामी पीतांबर दास सोचने लगे थे। “मुझ पर क्यों नहीं बरसे गिरि धारी?” उन्होंने उलाहना दिया था। “अगर बबलू की शादी हो जाती .. और ..”

“तुम संसार को छोड़ कर इधर कभी न आते!” पीपल दास हंसे थे।

“और गुलनार भी न जाने कहां चली गई?” स्वामी जी ने पीपल दास से पूछा था। कहीं बहुत गहरे में अभी भी गुलनार उनके पास बैठी थी – उन्हें महसूस होता था।

लेकिन पीपल दास ने उनके प्रश्न का कोई उत्तर न दिया था।

अमरीश जी के आगमन पर सबसे ज्यादा प्रसन्न वंशी बाबू थे। उन्हें अब एहसास हुआ था कि अपना भरा-पूरा घर संसार छोड़ कर आश्रम में आ बसे वो अब पहले नहीं दूसरे ही व्यक्ति थे। अमरीश जी तो जाने माने सेठ-साहूकारों में से थे। लेकिन प्रभु की माया कि वो आज उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर सेवा करते हैं। भक्ति भाव में लीन रहते हुए अमरीश जी अलौकिक सुखों का भोग करते हैं। और सेठानी सरोज ने तो नारी निकेतन का रूप-स्वरूप ही बदल दिया है।

सज्जनों की संगत का अलग ही असर होता है। वंशी बाबू पहचान गए थे।

वंशी बाबू कहीं अपने दिमाग के एकांत में आश्रम में होती हर घटना को दर्ज करते चले जा रहे थे। अनेकानेक कहानीयां उनके जेहन में जा बैठी थीं। अच्छे बुरे उदाहरण वहां सभी थे। दुख सुखों के निवारण में तो संपन्नता और विपन्नता के आंकड़े भी थे। और उनका अनुभव भी अपनी जगह लेता जा रहा था और उन्हें हर पल एक नया रास्ता दिखाता रहता था।

लेकिन न जाने क्यों जब कभी उनका मन बिगड़ता था तो वो व्यथित हो जाते थे।

“कौन है जो इन घटनाओं का जनक है?” वह बार-बार स्वयं से ही पूछते। “कैसे – कैसे यूं ही अचानक एक आदमी पीपल के नीचे आ बैठा और उन्होंने उसे स्वामी कह कर संबोधित किया। लेकिन क्यों? और क्यों उसे ..”

वही छोटी सी घटना अब विशाल अमर पुर आश्रम बन कर खड़ी हो गई थी। और अनगिनत लोगों को जीने की राह दिखा रही थी!

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मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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