वंशी बाबू के साथ मैंने आज आश्रम के तीन चक्कर लगा दिए थे। फिर भी मेरी आंखें प्यासी थीं, मन उदास था और मेरे जीने की उमंग नदारद थी। मैं फिर भी नहीं चाहता था कि मेरी तलाश का अंत आ जाए। वंशी बाबू ने कई बार मेरी आंखों में झांका था लेकिन मैंने निगाहें चुरा ली थीं और मौन ही बना रहा था।

कैसे बताता वंशी बाबू को कि मैं गुलनार को ढूंढ रहा था और कैसे जाहिर करता उन पर कि गुलनार मेरी पत्नी थी।

उदास निराश मैं हारा थका और पराजित हुआ कुटिया में लौट आया था।

अब मैं अकेला था – निपट अकेला! मैंने महसूसा था कि आज मेरा मन मेरे साथ नहीं था। मेरी इच्छाएं और आकांक्षाएं आज मुझसे विमुख हुई खड़ी थीं। न जाने कहां से मेरे सारे सपने लौट आए थे। मैं अब कोई स्वामी पीतांबर दास नहीं था। मैं तो पीतू था – पव्वा था और कचौड़ियां बना रहा था। गुलनार काउंटर पर खड़ी खड़ी कचौड़ियां बेच रही थी। ग्राहकों की लंबी कतार देख देख कर मेरा हिया उमंग आया था।

“बच्चे कहां चले गए गुलनार?” मैंने बड़े ही प्रेम से प्रश्न पूछा था।

“आस पड़ोस में ही खेल कूद रहे होंगे!” गुलनार ने अपने चंचल नयनाभिराम को तिरछा किया था और मुझे देखा था। “ये सुकून कभी कभी मिलता है।” गुलनार का इशारा था।

मैंने तुरंत ही गुलनार को अपने आगोश में ले लिया था।

पल थे – जीने के जीवंत पल थे। आत्मा की गहराइयों से मैं उमड़ आया था और गुलनार में समा गया था। गुलनार ने भी मुझे पूर्ण इच्छा शक्ति के साथ अपने में समेट लिया था। फिर तो न अंत था न आरंभ था। हम खाते गाते मोद मनाते मनाते मांग रहे थे कि बच्चे अभी लौटें नहीं, खेलते ही रहें और हम दोनों ..

कुटिया थी। आश्रम था। सब था लेकिन अब मैं वैरागी न था, परव्राज्य न था! ततैया बर्रइयांओ की तरह मेरी वासनाएं – जो अभी तक मरी नहीं थीं, कुटिया में भर्र भर्र भर आई थीं। मेरी उपासना के अमृत घट में बूंद बूंद कर टपकती वासनाएं अब मुझे विष घट बनाए दे रही थीं।

“चार बेटे हैं – चार दिशाओं को बसाएंगे!” गुलनार का सपना साकार होने के आग्रह कर रहा था। “फिर हम तुम आजाद होगे!” हंस गई थी गुलनार! “मैं तुम्हारी सेवा किया करूंगी पीतू! तुमने बहुत दिया है .. मेरे भरतार!” गुलनार की स्वीकारोक्ति अभी तक जीवित थी।

बसने को ही था हमारा साम्राज्य लेकिन न जाने किसकी बुरी नजर खा गई।

“आ ही गई थी गुलनार तो तुमने मुझे गहा क्यों नहीं, पागल!” ये प्रश्न मैंने ही स्वयं से पूछा था। “कोई जो कहता सो कहता! है तो तू मेरी पत्नी ही!” एक कटु सत्य की आवृत्ति हुई थी। “अब कहां गई कौन जाने?” पश्चाताप फिर लौटा था। “बुरा मान गई होगी! तुमने भी तो उसकी रसीद तक नहीं ली! तुम तो स्वामी जी हो न! पूज्य हो .. परमात्मा हो ..! पागल!” मैं अपने आप को अनायास ही गरिआने लगा हूँ। मैं इस स्वामी के आडंबर को उतार कर फेंक देना चाहता हूँ। मैं वंशी बाबू से कह देना चाहता हूँ कि ..

“अब क्या फायदा?” तर्क लौटा है। “अब क्या मिलेगा?” शंका है मुझे। “क्या पता उसने किसी कुआं पोखर में कूद कर जान दे दी हो?” डर – डर ही है जो लौटा है और इसने मुझे अधमरा कर दिया है।

“तू भी डूब मर पीतू!” मेरे दुखी मन ने अपनी व्यथा बताई है। “गुलनार के बिना भी क्या जीना?” उसका सुझाव है। “चंद्रप्रभा में चलकर जल समाधि ले लो!” एक अलग सा सुझाव सामने खड़ा खड़ा मेरा इंतजार कर रहा है।

मैं कुटिया से बाहर आया हूँ। मैंने गमछा कंधे पर डाला हुआ है। सूर्यास्त होने को है। सारा वनांतर ललोंही आभा में आत्मलीन है। अस्ताचल को जाता सूरज आज मुझे भी अलविदा कहने लगा है। मैं अब सीढ़ियां उतर रहा हूँ। कदम दर कदम मैं अपने अंत की ओर अग्रसर हो रहा हूँ।

मैं प्रसन्न हूँ कि इस अंत के आगे मैं गुलनार से जा मिलूंगा! उसे अपने चारों बेटों का पता पूछ कर और चारों दिशाओं में फैल फूट कर अपना नया साम्राज्य स्थापित करूंगा!” गुलनार भी प्रसन्न है और बाहें पसारे मुझे बुला रही है।

Major krapal verma

मेजर कृपाल वर्मा

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