“हर रूह ईश्वर से निकलती है और ईश्वर में ही मिलती है! जन्म के बाद मृत्यु ही सच और शाश्वत है। बाकी सब तो कर्म और अकर्म में बह जाता है। आता है – चला जाता है। लेकिन संगीत एक ऐसा सत्य है जो स्वयं स्फूर्त है, अमर और अविनाशी है – परमात्मा की तरह!” गुरु कविराज कौशल अविकार को समझा रहे थे। “तुम्हारी वाणी में अमृत है – अविकार! गाते हो तो छलक छलक आता है!” तनिक मुसकुराए थे गुरु जी। “आज के लिए क्या गा रहे हो?” उन्होंने पूछ लिया था।

शनिवार था। आज कीर्तन का लग्न था। लोगों में अतिरिक्त उत्साह भरा था। आज कल अविकार को सुनने के लिए भीड़ जमा होने लगी थी। अविकार को भी एक अलग ही आनंद आने लगा था। न जाने कैसे ..

“छोटी छोटी गइया, छोटे छोटे ग्वाल!” अविकार बताने लगा था। “छोटे छोटे मेरे नंद कुमार!” नया प्रयोग करूंगा गुरु जी।

“सुंदर! बहुत सुंदर!” प्रसन्न हो उठे थे गुरु जी।

स्वामी पीतांबर दास अपने आसन पर आ बैठे थे। आश्रम अपार भीड़ से नाक तक भरा था। आश्रम में लोग आज कल कुमार गंधर्व – उर्फ भक्तराज के भक्ति प्रयोग सुनने उमड़ पड़ते थे। शनिवार एक उत्सव की तरह मनाया जाने लगा था। एक परंपरा जैसी शाम मनाई जाने लगी थी। गुरु कविराज कौशल को एक परिवर्तन शनै शनै समाज में आते दिखाई दे गया था। कुमार गंधर्व पर उन्हें गर्व हो आया था।

“छोटी छोटी गइया, छोटे छोटे ग्वाल!” कुमार गंधर्व ने भजन आरम्भ किया था। “छोटे छोटे मेरे दोनों नंद कुमार!” अब जब ढोलक पर थाप पड़ी थी तो लगा था – नंद गांव बरसाना और वृन्दावन धाम आश्रम में उजागर हो गए थे।

अब कृष्ण बलराम धेनु चराने वन जा रहे थे। अब बाल कृष्ण कालिया नाग नाथ रहे थे। तो दाऊ थे कि छोटे कृष्ण की खिल्ली उड़ा रहे थे। मां यशोदा का सुलहनामा सामने आया था तो अब गोपियों ने कृष्ण को घेर लिया था – कुंजों में और अब ..

भक्ति भाव का ये उन्माद था जो आश्रम पर हर ओर से छा गया था!

गायकी के बाद जब कुछ लोगों ने कुमार गंधर्व के चरण छूने की कोशिश की थी तो उसने उन्हें रोक दिया था।

“मैं तो तुम्हारा जैसा ही एक युवक हूँ मित्रों!” कुमार गंधर्व का स्वर विनम्र था। “बड़े तो वो हैं!” उसने स्वामी पीतांबर दास की ओर इशारा किया था। “उन्हें प्रणाम करो! मैं भी तो उन्हीं को भजता हूँ!” वह मुसकुराता रहा था।

स्वामी पीतांबर दास ने कुमार गंधर्व को यह सब कहते हुए सुन लिया था!

अलग से एक भाव उनके मन में कुमार गंधर्व के लिए उगा था। और फिर न जाने कैसे बबलू – अपने बेटे का चेहरा सामने आ गया था! बबलू – उनका बड़ा बेटा उन्हें बड़ा ही होनहार लगा था। कितना कितना स्नेह था बबलू के प्रति! लेकिन ..

अविकार अब अकेला बहती चंद्रप्रभा के किनारे आ बैठा था!

कितना जल बह गया था – अविकार अनुमान नहीं लगा पा रहा था। चंद्रप्रभा भी कहां के लिए जाती थी, कितना कितना पानी ले जाती थी और वो जान ही न पाता था कि उसका जीवन कब तक था, क्यों था ..

और फिर चंद्रप्रभा के दो किनारों की तरह आश्रम और सेंट निकोलस अविकार के सामने खड़े खड़े हंस रहे थे। दे वर टू आब्जैक्टिव्स बट वाइड अपार्ट! सेंट निकोलस में उसे एक सफल कोरपोरेट बनने की शिक्षा मिली थी तो यहां आश्रम में आ कर तो उसका जीवन प्रवाह ही बदल गया था।

सेंट निकोलस के बताए सुख और सभ्यता शायद सच नहीं थे! एक कोरपोरेट का कैरियर ले कर वो शायद ही चल पाता! जो सीखा – वो अब उसे ज्ञात था! वह तो पापा की एक इच्छा पूर्ति का प्रयत्न मात्र था!

लेकिन यहां – इस आश्रम में वह न जाने कितनों का मन प्राण था! वह स्वयं भी आश्चर्य चकित रह जाता था – जब परमात्मा का कीर्तन उसके मधुर शब्दों में स्वयं आ कर व्यक्त होता और लोग मंत्र मुग्ध हुए उसे सुनते रहते!

कहां के लिए चला था अविकार और आज कहां पहुंच गया था!

विचित्र ही होती हैं ये जीने की राहें!

मेजर कृपाल वर्मा

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading