स्वामी पीतांबर दास सामने खड़ी गुलाबी को अपांग देखते रहे थे।
गुलाबी सुंदर थी – बहुत सुंदर। गुलाबी गुलनार से भी इक्कीस थी। गुलाबी की आंखों में एक अलग चमक थी। कुछ ऐसा था – जो घट गया था और उसने गुलाबी को उद्दंड बना दिया था। गुलाबी और गुलनार ..
हां हां! स्वामी जी स्त्री स्वभाव और सम्मान को खूब जानते थे। वो जानते थे कि गुलनार के लिए वो पूर्ण समर्पित थे लेकिन गुलनार कब बदली – उन्हें पता ही न चला था। उनके लिए तो गुलनार ही सब कुछ थी। लेकिन गुलनार के लिए पीतू कब हेय बना और त्याज्य बना – उन्हें तो खबर ही न लगी थी!
गुलाबी भी अपने परिवार को परास्त करके आश्रम में आई थी। उसका पति भी कहीं भाग गया था और आज तक न लौटा था। फिर भी गुलाबी को कोई गम न था! जैसे कि वो जानते थे कि गुलनार को भी ..
“त्रिया चरित न जाने कोई! पति मार कर सति होई!” अचानक ही स्वामी जी के दिमाग में उनके पिता का बोला संवाद आ खटका था। “वो कानी से बहुत डरते थे। जब कानी ने पीतू को पीटा था और वो खूब रोया था – डकराया था – तब भी पिताजी मौन ही बने रहे थे। त्रिया चरित्र खेलती कानी को उन्होंने कुछ भी नहीं कहा था। घर से भागने के बाद भी तो कभी उन्होंने उसकी खोज खबर ही न ली थी।
और आज गुलाबी को यों सामने खड़ा देख स्वामी पीतांबर दास थर-थर कांपने लगे थे।
“गुलनार के हाथों तो नहीं मरे लेकिन गुलाबी के हाथों अवश्य मारे जाओगे पीतू!” उनके स्व ने उन्हें आवाज दी थी। “भाग लो पीतू!” फिर उनका अंतर बोला था। “बहुत हुआ ये स्वांग! भागो! वैराग्य को लेकर कहीं भी अंतरध्यान हो जाओ!”
“कहां जाना होगा?” पीपल दास ने हंस कर पूछा था।
“फिर किसी आप जैसे पीपल के नीचे जा बैठूंगा!” तनिक विहंस कर उत्तर दिया था स्वामी पीतांबर दास ने। “आसमान अपना है, धरती मां मेरी है और मैं इन्हीं का बेटा हूँ! यही सुध लेंगे मेरी!” एक बड़ा ही निरासक्त उत्तर दिया था स्वामी पीतांबर दास ने। “अब मैं डरता नहीं हूँ पीपल दास जी!” वो मुसकुरा रहे थे।
जमा लोग अब तक स्वामी जी के निर्णय का इंतजार कर रहे थे।
“हम आज भक्तों को आशीर्वाद देकर सुबह आश्रम छोड़ कर चले जाएंगे!” स्वामी जी ने घोषणा की थी। “आप का रहा आश्रम – गुलाबी!” वो मुसकुराए थे। “हमारा कभी था नहीं और न आज है। आपका है – आप संभालें!” उन्होंने अन्य सभी को चलती निगाहों से देखा था। “वो वंशी बाबू जा रहे हैं, अमरीश जी और सरोज सेठानी चले जाएंगे और शास्त्री जी भी ..” रुक कर उन्होंने एक नजर आश्रम को देखा था।
गुलाबी मौन थी। गुलाबी कुछ न बोली थी। गुलाबी इस सारे प्रकरण को समझने का प्रयास कर रही थी। उसे समझ आ रहा था कि उनमें से कोई भी कहीं नहीं जाएगा। उन सब को उसके आश्रम छोड़ कर चले जाने का इंतजार था।
लेकिन गुलाबी जाती भी तो कहां जाती?
सभा बिचर गई थी। स्वामी जी भी उठ कर चले गए थे। आश्रम में संदेश पहुंचने लगा था। स्वामी जी का आश्रम छोड़ कर जाना तो आश्रम का अंत था – यह सभी जानते थे। बिना स्वामी जी के वहां था कौन जो उमड़ती श्रद्धालुओं की भीड़ को आशीर्वाद देता! वहां था कौन जिसके नाम पर आश्रम चलता?
“ये क्या कर बैठी तू ..?” अब गुलाबी की आत्मा जागी थी। “एक घर उजाड़ा और अब आश्रम ..?”
“जमे रहना गुलाबी!” मंजू ने कान में चुपके से कहा था। “पकड़ लेंगे कोई दूसरा मोढ़ा – आशीर्वाद देने के लिए! कौन पसीने छूटते हैं!” मंजू मुसकुरा रही थी।
“तूने घर भी तो भागवंती की राय पर तोड़ा था?” आज गुलाबी ने गुलाबी से प्रश्न किया था। “अब तू मंजू की राय से आश्रम तोड़ेगी?”
आज पहली बार गुलाबी हार गई थी। उसकी आंखों के आगे अंधकार बिछा था – जीने की कोई राह सूझ ही न रही थी।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड