उस रात स्वामी पीतांबर दास और गुलनार सोए नहीं थे। उन्होंने सारे जहान को आज जागते देखा था – साथ-साथ।

गुलनार चंद्रप्रभा में स्नान करके लौटी थी। भीगे गेसुओं को उसने कंधों पर सजाया हुआ था। सपाट उज्ज्वल चेहरा सुबह के पवित्र प्रकाश में और भी उजला लग रहा था। स्वामी पीतांबर दास ने गुलनार को देखा था तो देखते ही रह गए थे। सती जैसा वो स्वरूप उन्होंने पहली बार देखा था। ये पीतू की गुलनार नहीं थी – उन्होंने विहंस कर मान लिया था।

विगत ने स्वामी जी की उंगली पकड़ साथ चलने का आग्रह किया था। लेकिन स्वामी जी नाट गए थे। वो अब लौटना न चाहते थे। वो चाहते थे कि आज की शुरुवात ही उनके आज के जीवन का आरंभ माना जाए।

“शंकर के आने के बाद ही निकलेंगे।” स्वामी जी ने गुलनार से कहा था।

गुलनार ने कोई उत्तर न दिया था। वह चुप थी। वह प्रसन्न थी। उसे स्वामी पीतांबर दास का आदेश एक अमर आदेश लगा था। वह उनके साथ अब कहीं भी जाने को तैयार थी।

“प्रणाम स्वामी जी!” वंशी बाबू पधारे थे। “मैं क्षमा चाहता हूँ! जो आपके साथ हुआ – वो ..!” वंशी बाबू ने गुलनार के सामने निगाहें झुका ली थीं।

गुलनार और स्वामी पीतांबर दास दोनों ने वंशी बाबू को एक साथ देखा था।

“आप क्यों क्षमा मांग रहे हैं?” प्रश्न स्वामी जी ने किया था।

“इसलिए कि – गुलाबी से इनकी रक्षा न कर पाया था – मैं!” वंशी बाबू ने स्वयं अपना कसूर कह सुनाया था।

“गुलाबी का खौफ तो मुझे भी ..” स्वामी जी ने गुलनार को देखा था। “इनका तो उठता ही क्या था उसके सामने! हाहाहा!” स्वामी जी खुलकर हंसे थे। “लेकिन हुआ क्या?” उन्होंने वंशी बाबू से पूछा था।

“गुलाबी के कहने पर ही मंजू ने अंजली का हार चुराया था और मुन्नी ने उस इनके झोले में छुपा दिया था। उसके बाद तो आप सब जानते हैं!”

“पुलिस ने क्या किया?” स्वामी जी ने फिर पूछा था।

“मंजू और मुन्नी को ले गए हैं! गुलाबी गायब हो गई है।” वंशी बाबू ने संक्षेप में बताया था।

गुलनार के चेहरे पर एक अनोखी प्रसन्नता तैर आई थी।

शंकर आ गया था। वंशी बाबू को यों आया देख शंकर भी प्रसन्न हो गया था।

“हम तो अब निकलेंगे, वंशी बाबू!” स्वामी जी ने बड़े ही सहज स्वभाव में सूचना दी थी। “संभालें आप अपने अमरपुर आश्रम को। इतना ही दाना पानी बदा था।” उन्होंने गुलनार की आंखों में झांका था।

“आप ने तो कभी बताया ही नहीं कि ये आपकी पत्नी हैं?” वंशी बाबू बोल पड़े थे। “लेकिन न जाने क्यों स्वामी जी मुझे एक अलग से लगाव था – इनसे। मैं न जाने क्यों इन्हें सहेज कर रखना चाहता था। यही कारण था कि मैंने इन्हें आश्रम की सारी चाबियां पकड़ा दी थीं और ..”

“आप की सज्जनता सराहनीय है, वंशी बाबू!” गुलनार से रहा न गया था तो बोल पड़ी थी। “अमरपुर आश्रम के सही मायनों में मालिक तो आप ही हैं।”

“अब से आगे मालकिन आप होंगी!” वंशी बाबू ने हाथ जोड़ कर गुलनार से प्रार्थना की थी। “आप – श्रावणी मां – अमरपुर आश्रम की मठाधीश होंगी, ये निर्णय हो चुका है।” वंशी बाबू ने घोषणा की थी। “मैं कल जा कर अविनाश जी और सेठानी जी को मना कर ले आऊंगा! और आप भी स्वामी जी ..”

स्वामी पीतांबर दास वंशी बाबू का मुंह ताकते रह गए थे।

“मैं आप को ही लेने आया हूँ!” वंशी बाबू ने गुलनार से आग्रह किया था।

“जाइए! चली जाइए!” स्वामी जी ने गुलनार को आज्ञा दी थी।

एक अनूठी जीने की राह गुलनार के सामने थी और वो ना न कर पाई थी।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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