आश्रम में चलती गहमागहमी से कोई भी अनुमान लगा सकता था कि आज शनिवार था।

आज कल अविकार और अंजली ने एक नया भक्ति मार्ग खोज लिया था। दोनों राधे-कृष्ण के अवतार बने हुए थे। दोनों साथ-साथ गाते थे। भजनों का प्रसंग राधे-कृष्ण की प्रेम लीलाएं होती थीं। संगीत के साथ प्रेम कथाएं जब दोनों कहते थे तो कमाल हो जाता था। सभा में रंग बरसता था। श्रोता मुग्ध भाव से सुनते और तालियां बजाते।

अंजली और अविकार दोनों महसूसते कि शनिवार के दिन उन दोनों को जो नई स्फूर्ति मिलती थी और उदात्त प्रेम भावनाएं उत्पन्न होती थीं उन से उन का मन प्राण पूरे सप्ताह काम करने के लिए तैयार हो जाता था। खुले खिले मन से दोनों अवस्थी इंटरनेशनल में अपना संपूर्ण योगदान देते थे। इसका असर पूरी संस्था पर पड़ता था। अवस्थी इंटरनेशनल एक नए प्रगति पथ पर अग्रसर होने लगा था।

अविकार और अंजली व्यवसाय की दुनिया में दो नए सितारों की तरह उदय हो चुके थे।

लेकिन गुलाबी और मंजू हुए हादसे से अभी तक उबर न पाई थीं। उन्होंने जो अपनी हुई हार से अपमान का विषपान किया था वह उसे पचा नहीं पा रही थीं। सरोज सेठानी का रोज ही रुतबा चढ़ रहा था। लेकिन वो दोनों उस नारी निकेतन में चलती गहमागहमी में अपना नया स्थान खोज नहीं पा रही थीं। ठोकर खाने के बाद संभलना आसान नहीं होता – वो दोनों जानती थीं। कोई सुअवसर आने की आस उन दोनों को अभी भी प्राणवान बनाए थी।

स्वामी पीतांबर दास भी गुलाबी को भूल नहीं पाए थे। गुलाबी और गुलनार अब दो थीं – जो उदाहरण की तरह उनके जेहन में बैठी थीं। दोनों ही उनकी पथ प्रदर्शक थीं। दोनों ही दो सबक जैसी थीं – जिन्हें वो जानकर भी भुला नहीं पाते थे।

“गुलाबी ने कम से कम क्षमा याचना तो की!” स्वामी जी के अंतर में द्वंद्व खेलने लगता। “लेकिन गुलनार ..? वह मिली भी लेकिन उसने प्रायश्चित नहीं किया! क्यों? क्या गुलनार गलत नहीं थी? क्या सारा खोट उन्हीं का था?”

गुलनार का यों चुपचाप आश्रम से चले जाना और न लौटना – किसी भी आश्चर्य से कम न था। चार बेटों में से कोई नहीं लौटा? पूरे परिवार ने उनकी सुध नहीं ली लेकिन क्यों? क्या आश्रम में मिला मान सम्मान मिथ्या था? क्या वो दोषी थे – ऐसे दोषी जिसे क्षमा मिल ही नहीं सकती थी।

“गुलाबी ने भी तो कभी मुड़कर अपने पुरुष प्रियतम को नहीं पुकारा!” स्वामी जी ने फिर से सोचा था। “क्या गुनाह किया होगा उस आदमी ने जिसे गुलाबी ने आज तक क्षमा नहीं किया?”

स्वामी पीतांबर दास के पास भी इन प्रश्नों के उत्तर न थे।

लेकिन सरोज सेठानी अब नारी निकेतन में इन्हीं जाहिल प्रश्नों के उत्तर खोज रही थीं। गोष्ठियां होती थीं, प्रवचन होते थे और हर बार नारीगत वही प्रश्न दोहराए जाते थे जिनसे साहचर्य प्रेम टूटता था – टुकड़े-टुकड़े हो कर गृहस्थ बिखर जाता था और कभी-कभी तो इनके भयंकर परिणाम सामने आते थे। नृशंस हत्याएं तक हो जाती थीं। बलात्कार और विभाजन की विभीषिका समाज को दहला कर रख देती थीं।

“नारी चाहे तो कोई भी चमत्कार कर सकती है!” सरोज सेठानी का कहना था। “नारी का योगदान सृष्टि के लिए अत्यंत आवश्यक है। हमारे आज की विपत्तियों का कारण एक ही है – कि नारी न जाने क्यों रूठ गई है। वह देना नहीं चाहती!”

“नारी ही क्यों दे? पुरुष ही प्रवंचक क्यों बना रहे? बराबरी पर आकर ही बात बनेगी – सेठानी जी!” मंजू ने प्रतिरोध किया था।

प्रेम प्रीत के व्यवसाय में तराजू लेकर कौन बैठता था?

परिवर्तन चला आ रहा था। गुलाबी और मंजू को गुलामी नहीं आजादी दरकार थी। उन्हें समाज कहीं निकाल कर नहीं फेंक सकता था। पुरुष प्रश्नों के नीचे आ दबा था। गुलनार शायद गलत नहीं थी – स्वामी जी ने सोचा था। अगर पीतू पव्वा न बना होता तो शायद ..

जीने की नई राहों का निर्माण करते अविकार और अंजली आज प्रासंगिक हो उठे थे। गुलाबी और गुलनार, पीतू और परीक्षित अब संदर्भ विहीन थे।

Major krapal verma

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading