“मुझे वो पल – एक अनूठा पल, एक अनोखा पल आज भी याद है स्वामी जब मुझे विश्वास ही न हुआ था कि जो मेरी आंखों के सामने था – वो सच था! मैं तो .. मैं तो बौरा गई थी, पागल हो गई थी और अनवरत तुम्हारी आंखों में घूरती रही थी – चाहती रही थी कि ये पल मिटे नहीं, हिले नहीं, कहीं गायब न हो जाए और मेरे हाथ से कहीं छूट न जाए – पतंग की तरह।

मैं तुम्हें देख रही थी – साक्षात तुम्हें – अपने पीतू को – अपने सुहाग को – अपने पुरुष प्रियतम को जिसके लिए मेरी रूह न जाने कब से रो रही थी, तुम मेरे सामने थे। तुम दिव्य पुरुष थे। साधू संत थे तुम और हाथ उठा उठा कर लोगों को आशीर्वाद दे रहे थे। तुम ..

एक अनूठा प्रकाश तब मेरे मन प्राण में प्रवेश पा गया था। मैं अब उद्वेलित थी। मैं अब जीवित थी। अचानक ही मेरी आंखें भर आई थीं। मैं .. मैं .. तुम्हारे चरण छू लेना चाहती थी। मैं तुम से क्षमा मांग लेना चाहती थी। मैं चाह रही थी स्वामी कि .. कि तुम से लिपट कर खूब रोऊं और अपने किए पाप का इजहार करूं।” गुलनार ने स्वामी जी को आग्रही आंखों से देखा था।

गुलनार का स्वीकार सुन कर स्वामी पीतांबर दास बेहद प्रसन्न हुए थे। आज गुलनार उनके पास बैठी थी – जैसे बीच में कुछ गुजरा ही न हो। लेकिन उन्हें भी अपना वो पल याद हो आया था जिसे सामने आया देख वो दंग रह गए थे।

“सच मानो गुलनार! मैं भी उस पल में – तुम्हें उस हाल में देख कर बेहोश होने को था। लेकिन संभल गया था। मुझे याद हो आया था कि मैं तो पीतू नहीं स्वामी पीतांबर दास था। गुलनार – थी तो गुलनार ही पर अब मेरी न थी। पराई थी गुलनार – मैंने स्वयं को समझाया था। मैं तो ब्रह्मचारी था, प्रभु का अनन्य भक्त था और एक विपुल वैरागी था। मैं कोई पीतू नहीं था – पियक्कड़ नहीं था – एक प्रबुद्ध पुरुष था।

और मैंने तुम्हें वो आशीर्वाद दिया था जो शायद अभी तक मैंने किसी को नहीं दिया था।”

“क्यों?” गुलनार ने पूछ ही लिया था।

“तुम बीमार थीं। कष्टों से घिरी थीं। और मैं उसे जिसने तुम्हारा ये हाल किया था – श्राप देना चाहता था – उसे! लेकिन – आगे बढ़ो के संदेश पर भक्तों की लाइन आगे बढ़ गई थी और तुम ..?

लेकिन उस समूची रात मैं सो नहीं पाया था – गुलनार।

और जब – उस शनिवार की पहली शाम को हमारी आंखें चार हुई थीं तो मेरा पुनर्जन्म हुआ था।”

“मुझे भी पहली बार सुधबुध लौटी थी – उस शाम! मेरा भी पुनर्जन्म ही था, स्वामी!” गुलनार बता रही थी। “लेकिन .. अब ये क्या रच गया है? तुमने क्यों स्वीकार किया स्वामी कि मैं गुलनार तुम्हारी पत्नी हूँ?”

“यही सत्य है गुलनार!” स्वामी जी ने विहंस कर कहा था। “सत्य की शक्ति अलग होती है! सत्य कभी हारता नहीं! यही कारण है कि तुम असत्य से सत्य के पास चली आई हो!”

“लेकिन अब ..?”

“अब क्या? हम दोनों ब्रह्मचारी हैं, प्रभु के अनन्य भक्त हैं और विपुल वैरागी हैं! हमें क्या चाहिए? जीवन बड़ा ही सरल समीकरण है, गुलनार! जीने के लिए चार लंगोटी, दो अल्फी और दो वक्त का भोजन ही तो चाहिए?” हंस रहे थे स्वामी जी। “सो तो – कभी भी और कहीं भी मिलेगा हमें!” स्वामी जी बता रहे थे। “जीने की तमाम राहें खुली पड़ी हैं – हमारे लिए! अब मुकाम स्वयं चल कर आएगा हमारे पास – देख लेना गुलनार!”

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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