शंकर ने आ कर स्वामी जी से जब कपड़े बदलने का आग्रह किया था तो उन्हें याद हो आया था कि आज सोमवार था और उन्हें नारी निकेतन जाना था।

अमरपुर आश्रम के ऊपर शाम ढल रही थी और सूर्य देव अस्ताचल की ओर जा रहे थे। अचानक स्वामी जी ने निगाहें उठा कर समूचे दृश्य को देखा था। नारी निकेतन आज अलग से दिखाई दिया था। वो कभी जाते न थे – नारी निकेतन। लेकिन आज श्रावणी मां की पूजा थी और सभी सुहागिनों ने व्रत पूजा करनी थी तो उन्हें सामूहिक आशीर्वाद देना उनका कर्तव्य बनता था।

औरत को स्वामी जी महा माया मानते थे। उनके अनुभव के अनुसार औरत एक अज्ञात अध्याय था – उनके लिए ही नहीं सब के लिए! सृष्टि का मूल आधार थी औरत! प्रेम का प्रतीक औरत – जननी थी, विज्ञान थी, ज्ञान थी और महान थी। लेकिन उसी सिक्के के दूसरी ओर जो लिखा था वो भी एक शाश्वत सच था। प्रेमी के लिए प्रेम पाने की शर्तें अंकित थीं। दगा देने पर प्रेमी को क्या दंड मिलेगा – लिखा था।

नारी कोमलांगी नहीं थी – बल्कि वज्र से भी कठोर थी – स्वामी जी मानते थे।

क्योंकि वो बैरागी थे, परव्राज्य थे और ब्रह्मचारी थे अतः अब उन्हें नारी से कोई वास्ता न था। फूस की बनी उनकी कुटिया उनके लिए शीश महल थी। सब कुछ पारदर्शी था – उनके जीवन में। वो तो अब निरासक्त थे, निर्विकार थे और सुख दुख से भी परे थे। अपने वैराग्य में उन्हें स्वर्गीय आनंद आता था।

नारी निकेतन आज अतिरिक्त उत्साह से सजाया गया था और वहां एक बड़ा ही प्रेमाकुल वातावरण बना हुआ था। सौभाग्यवती महिलाएं सजधज कर अपने सुहाग की अमर कामना में आकण्ठ डूबी थीं। गीत नाद का सिलसिला भी शुरू था। प्रेमी की अमरता के लिए प्रार्थनाएं की जा रही थीं। पत्नी और पुरुष का प्रेम सराहनीय था और प्रकृति के लिए यही एक ऐसी अनिवार्यता थी जिसके बिना उसका सफल होना संभव नहीं था।

स्वामी जी पहुंचे थे तो सभी ने उनका अभिवादन किया था। वंशी बाबू ने उन्हें सादर प्रणाम किया था और आसन पर बिठाया था। भक्त गण उनके चरण स्पर्श करने लगे थे। और तभी उन्हें अंजली और अविकार सामने खड़े दिखे थे। सरोज सेठानी भी उनके साथ थीं। स्वामी जी अनायास ही अंजली को सजीवजी सुहागिन के रूप में देख भाव विभोर हो उठे थे। उन्होंने उन दोनों को एक साथ आशीर्वाद दिया था।

आज आश्रम में बाहर से भी बहुत सारे विशिष्ट लोग पधारे थे।

श्री राम शास्त्री और अमरीश जी बाहर से आए आगंतुकों के सम्मान और सेवा में संलग्न थे।

श्रावणी मां का अब आगमन होना था। उनकी पूजा अर्चना के लिए सभी सुहागिनें हाथों में दीप दान लिए खड़ी थीं। पूजा अर्चना के लिए पुष्प धरे थे। उनके आसन की शोभा भी अलग ही थी।

“श्रावणी मां का आगमन हो रहा है।” घोषणा हुई थी।

हर्षोल्लास की लहरे उठी थीं और आश्रम के आरपार तक चली गई थीं।

गुलाबी और मंजू आगमन के उस पावन दृश्य को विषैली निगाहों से निहार रही थीं। उनकी निगाहें तो सेठानी सरोज पर ही टिकी थीं। वह जानती थीं कि ये सारा खेल सेठानी ने ही खेला था। वही एक थी जिसे गुलाबी पसंद नहीं थी। किसे चुना होगा श्रावणी मां – यह भी उन्हें अभी तक ज्ञात न था। लेकिन एक बात सिद्ध हो चुकी थी कि अब अमरपुर आश्रम सेठानी सरोज का ही था।

भद्र लोग कितने काइयां और चालाक होते हैं – यह बात आज गुलाबी और मंजू के सामने उदाहरण बनी खड़ी थी। आश्रम की अटूट आमदनी को इन लोगों ने लालची निगाहों से नाप कर अपने नाम लिख लिया था।

“नंगी करके निकालूंगी आश्रम से ..!” गुलाबी को मंजू ने कहते सुना था।

मंजू भी सिहर उठी थी। वह तो जानती थी कि गुलाबी कहीं बड़ी ही कठोर और बेरहम थी।

श्रावणी मां पधार रही थीं।

गुलाबी को भक्क से एक नया रास्ता सूझ गया था। लेकिन ये कोई जीने की राह न थी – एक प्रतिक्रिया की डगर थी गुलाबी के लिए!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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