रात गहराती जा रही थी लेकिन आश्रम का जर्रा-जर्रा आज जाग रहा था।
उनके श्रद्धेय स्वामी जी – पीतांबर दास सुबह आश्रम छोड़ कर चले जाएंगे – ये गम हर आश्रम वासी को सता रहा था। नारी निकेतन में कोहराम मचा था – जबकि स्वामी जी की कुटिया नितांत खामोशी में डूबी शांत खड़ी थी। एक निर्मोही साधु उसमें सो रहा था। वह पूर्णतया तृप्त था और विरक्त था। वह मुक्त था। अमरपुर आश्रम उसके लिए कोई ऐसा अपनत्व न था जो उसकी राह रोक लेता।
लग रहा था जैसे कल राम का वन गमन था और मंथरा बनी मंजू की साजिश के तहत केकयी बनी गुलाबी अब आश्रम की सर्वेसर्वा बन गई थी।
लेकिन गुलाबी को गालियां पड़ रही थी। नारी निकेतन में आश्रय पाती महिलाओं को मंजू और गुलाबी का ये षड्यंत्र अखर गया था। स्वामी जी का आश्रम छोड़ कर जाना उन्हें पच न पा रहा था। सभी गुलाबी की दास्तान से अवगत थीं। और सभी को सामने खड़ा अशुभ दिखाई दे रहा था।
“कान पकड़ कर इन दोनों मूर्तियों को आश्रम से बाहर करो, सेठानी जी!” आम मांग सरोज के सामने आ खड़ी हुई थी। “क्या आप नहीं जानतीं कि ये गुलाबी कौन से गुल खिला कर ..”
“लेकिन ब्लेम तो मुझे किया जा रहा है कि मैं आश्रम को खरीद रही हूँ और ..”
“आप डरिए मत! हम सब आपके साथ हैं। बुलाइए वंशी बाबू को और दिखाइए इन दोनों को बाहर का रास्ता – अभी इसी वक्त!”
संगीन संदेश जन्मा था नारी निकेतन में और एक अवतार ने जन्म लिया था – जैसे ऐसा कोई चमत्कार हुआ था।
मंजू खबर ले उड़ी थी और जाकर गुलाबी को सूचित कर दिया था।
पहली बार था जीवन में जब गुलाबी डरी थी, कांपने लगी थी और उसे अपना विगत याद हो आया था। अपने पति पुरुष – परीक्षित को उसने डरा कर भगा दिया था – उसे याद आ रहा था। ससुराल के परिवार को उसने तबाही के रास्ते पर डाल दिया था।
“ये तुम्हारी विजय नहीं थी – हार थी गुलाबी!” आज उसका अंतर बोला था। “पति पुरुष को गंवा कर तुमने पाया क्या? स्वामी जी को भगा कर तुम्हें मिलेगा क्या?”
वंशी बाबू सेठानी जी के सामने हाजिर हुए थे। वो मारे क्रोध के बोल नहीं पा रहे थे!
“चुटिया पकड़ कर आश्रम से बाहर कराओ इस चुड़ैल को!” संवेत स्वर में एक मांग वंशी बाबू के सामने आई थी। “और आगे भी आश्रम में ऐसी स्त्रियां जो बद जात हो ..”
“ऐसा कोई नियम नहीं बनाएंगे!” सरोज ने बात में दखल दिया था। “गुलाबी को भी मनाएंगे ..”
“लातों के भूत बातों से नहीं मानते सेठानी जी!” वंशी बाबू अभी भी क्रोधित थे। “ये कोई सुधरने वाली वस्तु नहीं है – गुलाबी!”
“बुला लेते हैं उसे!” सरोज ने आग्रह किया था। “मुझे उम्मीद है कि ..”
और सच में ही गुलाबी ने आकर सेठानी जी के पैर पकड़ लिए थे। खूब रोई थी वह। उसने क्षमा मांगी थी। उसने वायदा किया था कि स्वामी जी के प्रति श्रद्धावान रहेगी वह और आश्रम की परंपरा के विरुद्ध कोई भी काम न करेगी।
प्रातः काल की पुण्य वेला में पूरे आश्रम के श्रद्धालु स्वामी जी की कुटिया के आस-पास मंडरा रहे थे। चंद्रप्रभा में स्नान कर लौटे स्वामी पीतांबर दास ने आंखें पसार कर पूरे दृश्य को देखा था। सब शुभ था – उनके मन ने कहा था। हाथ उठा कर उन्होंने सभी आगंतुकों का स्वागत किया था। स्वामी जी प्रणाम – एक मंत्र की तरह हवा पर तैर आया था। श्रद्धालुओं ने बारी-बारी स्वामी जी के पैर छूए थे।
और गुलाबी जोर की रुला हट के साथ स्वामी जी के पैरों में आ गिरी थी।
“अरे, नहीं-नहीं!” स्वामी जी ने दूर हटते हुए कहा था। “ये तो घोर पाप होगा गुलाबी! उठो-उठो!” उन्होंने आदेश दिया था। “मैं जा रहा हूँ! मुझे सदा थोड़े रहना है संसार में!” वो हंसे थे। “अरे भाई! यहां आना-जाना तो लगा ही रहता है!”
“आप नहीं जाएंगे स्वामी जी!” श्री राम शास्त्री बोले थे। “ये हम सबका अनुरोध है!” उन्होंने आग्रह किया था। “गलती हुई – गुलाबी से! क्षमा दान दीजिए!” हाथ जोड़ कर आग्रह किया था श्री राम शास्त्री ने।
“आप सब के सेवक हैं – हम तो!” हाथ जोड़ कर बोले थे स्वामी जी। “आप का आदेश है तो नहीं जाएंगे!” विहंस गए थे स्वामी जी!
क्षमा दान की एक नितांत नई राह आज जीने की राह में आ मिली थी!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड