आज की खबर से पूरा शहर शर्मसार हुआ लगा था।
अमरीश की बेगुनाही ने पूरे समाज को गुनहगार सिद्ध कर दिया था। लोग स्वयं में शर्मिंदा थे। प्रेस और मीडिया के ऊपर भी मनों मिट्टी पड़ी थी। क्या कुछ नहीं लिख बैठे थे – खोजी पत्रकार और चतुर ऐडीटर। किस तरह एक भयंकर गुनाह होने से बच गया था और किस चतुराई से अंजली ने अविकार को जज के सामने ला खड़ा किया था। यह एक चर्चा का विषय था।
जगदीश एसोसिएट्स को बड़ा सदमा लगा था। सीनियर वकील रोशन मुंह दिखाने लायक भी न रहे थे।
और वो – गोरी-गोरी बांकी छोरी गाइनो जो पवित्र, सत्य मूर्ति और भोली भाली लगती थी, उसके भी जेल जाने से लोग प्रसन्न हुए लगे थे।
अविकार – उर्फ कुमार गंधर्व और अंजली दोनों ही अब लोगों के सुपर स्टार थे! दोनों के प्रेम-प्रीत के चर्चे थे। दोनों ही राधा कृष्ण के समकक्ष प्रेम उपासना के प्रतीक थे, पूज्य थे और सराहनीय तथा श्रेष्ठ थे।
सत्य की जीत हुई थी। असत्य और अपराध की पराजय हुई थी। प्रसन्नता की हिलोरो से पूरा चराचर हिल डुल गया था।
हुए भक्ति उत्सव की सफलता के लिए अमरीश और सरोज ने वंशी बाबू का अपार आभार व्यक्त किया था और अविकार और अंजली की शादी का मुहूर्त निकालने का भी जिम्मा सोंपा था। शादी अमरपुर आश्रम में होगी – यह भी सिद्ध हो चुका था।
“मेरी तो एक ही शर्त है सेठ जी!” वंशी बाबू अर्ज कर रहे थे। “शनिवार के दिन कीर्तन के लिए हमारे दोनों रत्न – कुमार और अंजली हमें चाहिए!”
“और हमारा क्या अचार डालोगे वंशी बाबू?” सरोज ने हंस कर उलाहना दिया था। “अब तो हमें भी आश्रम में स्थान दें!” सरोज ने विनय पूर्वक कहा था। “अब अविकार संभाले अपना साम्राज्य! हम बरी हुए!”
“मैं भी बहुत थक गया हूँ वंशी बाबू!” अमरीश ने भी प्रार्थना की थी। “अब तो हमें आश्रम की शरण में आने दें! वहीं रहेंगे हम दोनों – आपकी सेवा में।”
अविकार और अंजली आश्चर्य से देखते रहे थे – उन दोनों को!
आश्रम में सारी सूचनाएं पहुंच चुकी थीं। अमरपुर का आश्रम नाम पा गया था। लोगों की श्रद्धा बढ़ी थी और स्वामी पीतांबर दास की महिमा में चार चांद लग गए थे। अंजली और अविकार ने जब स्वामी जी के चरण छू कर आशीर्वाद लिया था तो वो भी गदगद हो उठे थे। उनका शक सच निकला था कि कुमार गंधर्व कोई पढ़ा लिखा और किसी अच्छे घर घराने का बेटा था।
“और .. और बबलू?” अचानक ही स्वामी पीतांबर दास को अपना बड़ा बेटा बबलू याद हो आया था। “उसकी भी शादी तय हो गई थी। वो लड़की भी अंजली से कम न थी। लेकिन .. लेकिन ..! सेठ अमरीश का तो घर बस गया!” उन्होंने पलट कर महसूसा था। “फिर उनका घर क्यों उजड़ गया? कहां गायब हो गए गुलनार और उनके चार बेटे!”
“दोष मेरा ही था।” टीस कर रह गए थे स्वामी जी। “पीतू – पीतांबर न बन कर पव्वा बन गया था। जबकि सेठ अमरीश – ईश्वर की शरण में चले आए हैं!”
शंकर ने दौड़ कर भक्त राज के पैर छूए थे और अंजली को प्रणाम किया था। आज वो अतिरिक्त रूप से प्रसन्न था।
“आप श्रेष्ठ हैं – भक्त राज!” शंकर कहता रहा था।
“नहीं! श्रेष्ठ तो शंकर ही है!” अविकार ने उत्तर में कहा था। “तुम्हारा जैसा सेवक ही श्रेष्ठ हो सकता है – शंकर!” स्नेह से अविकार ने शंकर को बांहों में भर लिया था।
औरों की सेवा करना ही जीने की सच्ची राह है – यह आज सिद्ध हो गया था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड