“ये आप की तरह संत नहीं है!” वंशी बाबू का स्वर तीखा था। “ये शठ है – कोरा शठ!” उन्होंने श्री राम शास्त्री की ओर उंगली उठाई थी। “अमरीश जी! ये आदमी जानता है कि आश्रम के पास पैसा है। इसे पैसा चाहिए। संस्कृत महाविद्यालय तो बहाना है – मतलब नोट कमाना है।” वंशी बाबू तैश में थे।

श्री राम शास्त्री का चेहरा काला पड़ गया था। आज फिर उन्हें एहसास हुआ था कि विद्या धन, धन नहीं था – मात्र एक धारणा थी। और इसी धारणा को लेकर वो नंगे पैरों चल रहे थे। और जब कभी भी उन्होंने धन कमाने की इच्छा जाहिर की तो उनका अपमान ही हुआ था। और अब जब वो एक श्रेष्ठ संकल्प के साथ याचक बन कर खड़े हुए हैं – तब भी ..

श्री राम शास्त्री ने स्वामी जी की ओर देखा था। स्वामी जी चुप थे। असंपृक्त थे।

“संस्कृत महाविद्यालय की संरचना आप क्यों करना चाहते हैं शास्त्री जी?” अमरीश जी ने प्रश्न पूछा था। “लोग तो अंग्रेजी के दीवाने हैं। अपनी गाढ़ी कमाई कॉन्वेंट में देकर अपने बच्चों को ..”

“यही तो मेरा रोना है अमरीश जी!” श्री राम शास्त्री कुछ कहना चाहते थे। “जो शिक्षा हमें बच्चों को देनी चाहिए वो तो हम दे ही नहीं रहे! उलटे अंग्रेजी की ओर भाग रहे हैं।”

“संस्कृत की शिक्षा देने से क्या लाभ?” अमरीश जी ने फिर पूछा था।

“बिना संस्कृत जाने हम अंधे हैं, अमरीश जी। हमारा सारा ज्ञान-विज्ञान तो संस्कृत में लिखा है। और वही हमें लिखनी पढ़नी नहीं आती। सोचिए! आप ही सोचिए कि अंग्रेजी के सहारे हम ..”

“गुलाम ही बने रहेंगे!” अमरीश जी हंस गए थे।

वंशी बाबू ने चौंक कर सेठ अमरीश जी को देखा था। स्वामी जी की भी समाधि टूटी थी। शायद अमरीश जी दूसरी ओर इशारा कर रहे थे।

“दान पुण्य का पैसा है आश्रम के पास सेठ जी!” वंशी बाबू तड़के थे। “इस पैसे को हम लोग ..”

“दान पुण्य में तो लगा ही सकते हैं?” अमरीश जी ने बात काटी थी। “वंशी बाबू! जब पैसा धरा-धरा बढ़ता है तो बदबू छोड़ता है! लेकिन जब पैसा बहता रहता है तो खुशबू छोड़ता है! संस्कृत महाविद्यालय में अगर आश्रम पैसा लगाता है तो पुण्य का काम करता है! एक ऐसी शुरु वात होगी ये जो बहुत पहले हो जानी चाहिए थी! उधार की भाषा पर कब तक गुजारा करेगा देश!”

“मैं समझा नहीं अमरीश जी!” वंशी बाबू बोल पड़े थे। “ये तो इस शास्त्री का विद्यालय होगा और ये ..”

“नहीं! ये आश्रम का महाविद्यालय होगा!” अमरीश जी ने बात काटी थी। “और एक ही नहीं देश में अनेक संस्कृत महाविद्यालय होंगे, वंशी बाबू! आप के महाविद्यालय और आश्रम के महाविद्यालय! शिक्षा सब के लिए होगी, पूरे देश के लिए होगी और विश्व स्तर पर होगी!” मुसकुरा रहे थे अमरीश जी। “मुझे तो मेरा अभिसार पथ मिल गया है वंशी बाबू!”

स्वामी पीतांबर दास ने अमरीश जी को नई निगाहों से देखा था।

“शिक्षा के साथ-साथ हम पैसे का उपयोग स्वास्थ्य सेवाओं में भी करेंगे!” अमरीश जी फिर से बोले थे। “निशुल्क स्वास्थ्य सेवाएं विश्व स्तर पर!” वो बता रहे थे। “देश को अब इसकी आवश्यकता है, वंशी बाबू!” अमरीश जी ने तनिक सहज हो आए वंशी बाबू को पढ़ा था। “आप का पैसा जितना खर्च होगा उससे दो गुना हो कर लौटेगा! समाज आपका आभारी होगा तो देश आपकी आरती उतारेगा!” हंस रहे थे अमरीश जी।

अनायास ही वंशी बाबू की बात समझ में आई थी और उन्होंने अमरीश जी के चरण छू लिए थे।

“अब से आगे आप ही दिखाएं ये नए रास्ते!” वंशी बाबू ने अमरीश जी का समर्थन किया था।

अमरपुर आश्रम के लिए आज का दिन नया दिन था – एक नई राह थी।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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