श्री राम शास्त्री आश्रम में फिर लौट आए थे। शंकर ने तनिक चौंक कर उन्हें देखा था और स्वयं से प्रश्न पूछा था – इनके उस चालाक चेहरे और चोर निगाहों का क्या हुआ?

“मैंने वंशी बाबू से विनय की थी, स्वामी जी!” श्री राम शास्त्री का स्वर विनम्र था। “मुझे केवल आपसे ही ..” कहते-कहते शास्त्री रुक गए थे। संस्कृत महाविद्यालय का सपना आज भी उनके गले में आ कर अटक गया था।

“बैठिए!” स्वामी जी ने बड़े दुलार के साथ शास्त्री जी से निवेदन किया था। “बहुत दुबले हो गए हैं?” स्वामी जी ने तनिक मुसकुराते हुए कारण पूछा था।

“मुझे एक ही चिंता खाए जा रही है, स्वामी जी!” उदास निराश आवाज में कहा था शास्त्री जी ने। “मेरे जीवन का उद्देश्य पूरा होता नजर नहीं आ रहा है। भिक्षा मांगी – नहीं मिली। दान मांगा – नहीं मिला!”

“मांगे कुछ मिलता नहीं है, शास्त्री जी।” स्वामी जी मुक्त भाव से बोले थे। “सब कुछ प्रभु की कृपा से संभव होता है।”

“क्या मेरा सपना भी संभव हो जाएगा?”

“हो जाएगा! अवश्य हो जाएगा!” स्वामी जी प्रसन्न थे। “क्योंकि आपका सपना एक शुभ है और जो शुभ होता है वह श्रेष्ठ भी होता है! उसमें स्वयं में एक ऊर्जा निहित होती है। वह तो पूरा होकर ही रहता है!”

“तो मैं क्या करूं?”

“आप अमरीश जी से मिलिए!” स्वामी जी ने सुझाव दिया था। “सेठ हैं! वानप्रस्थ में आश्रम में आए हैं। उनकी पत्नी भी नारी निकेतन चला रही हैं। वो आपकी बात सुनेंगे और समझेंगे। वही आपका मार्ग प्रशस्त करेंगे – मेरा मत है!” स्वामी जी ने उन्हें विश्वास बांटा था।

श्री राम शास्त्री का चेहरा एकबारगी खिल उठा था।

और जब वो अमरीश जी से मिले थे तो उन्हें विश्वास हो गया था कि इस बार उन्हें परमेश्वर ने अवश्य वरदान देना था!

“इतने बड़े विद्वान हैं आप और यों ठोकरें खाते फिर रहे हैं?” आश्चर्य हुआ था अमरीश जी को।

“कर्म फल है अमरीश जी!” श्री राम शास्त्री उदास थे। “मुझे कभी अभिमान था कि मैं ..”

“अभिमानी को ईश्वर अकेला छोड़ देते हैं! हाहाहा!” अमरीश जी खुल कर हंसे थे। “मैं भी कभी आप की तरह ही ..” रुक कर अमरीश जी ने श्री राम शास्त्री को कई पलों तक निरखा परखा था। “स्वामी जी की शरण में मुझे भी आना ही पड़ा!” वह बता रहे थे।

“मैं भी तो स्वामी जी की शरण में आना चाहता हूँ लेकिन ..”

“लेकिन ..?”

“वो .. वो – वंशी बाबू मुझे चोर समझते हैं!”

“हाहाहा!” जाेर से हंसे थे अमरीश जी। “चोर तो हम सभी हैं, शास्त्री जी!” उनका कहना था। “लेकिन जो दूसरों के लिए चोरी करता है उसे पुलिस नहीं पकड़ती!” उन्होंने मुड़ कर शास्त्री जी की आंखों में झांका था। औरों के लिए जीने का अलग ही आनंद होता है।”

दोनों अचानक चुप हो गए थे। दोनों दो रास्तों पर खड़े-खड़े कोई सामूहिक रूह खोजने लगे थे। श्री राम शास्त्री की समझ में आता जा रहा था कि उन्हें अपना व्यामोह छोड़ना ही पड़ेगा! अब तक वो अपने लिए किए का फल पा रहे थे। बेटे और उसकी बहू ने उन्हें घर से निकाल दिया था। लेकिन क्यों?

“तुम उनके लिए नहीं जीते थे।” उत्तर आया था। “तुम उनके लिए जीते तो वो भी तुम्हारे लिए जीते!”

श्री राम शास्त्री के सामने आज नंगा हुआ सच आ खड़ा हुआ था।

“विद्या दान में दी जाए तभी फलती है शास्त्री जी!” अमरीश जी एक लंबे अंतराल के बाद बोले थे। “लंगोटी लगा कर खड़े हो जाइए मेरी तरह!” वह मुसकुराए थे। “फिर सब सहल है – आसान है! आपका महाविद्यालय बना धरा है!”

अमरीश जी ने शास्त्री जी का मार्ग प्रशस्त किया था और उन्हें आज पहली बार जीने की सच्ची राह के दर्शन हुए थे!

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मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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