“प्रणाम स्वामी जी!” फिर से मैंने बंशी बाबू की आवाज सुनी है।

मैंने आंखें खोली हैं तो मुझे बंशी बाबू कहीं नहीं दिखे हैं। लेकिन हॉं! मुझे पीपल दास के तने से चिपक कर बैठा पीतू दिखाई दे गया है।

बुरे हाल में है पीतू। उसका पूरा तन बदन थकान में चूर है। पानी में भीगा बदन ठंडा होता ही चला जा रहा है। प्राण सूखे जा रहे हैं और वह मरणासन्न है। आंखों में घोर निराशा और विक्षोभ भरा है। पश्चाताप है जो पीतू को खाए ही जा रहा है। उसकी समझ में ही न आ रहा है कि उसे यों मृत्यु दंड क्यों दिया उसके परिवार ने?

और तभी उसने ये संबोधन पहली बार सुना था – प्रणाम स्वामी जी!

आंख खोलने पर बंशी बाबू दिखे थे। सफेद कुर्ता धोती में सजे देव तुल्य बंशी बाबू उसके सामने खड़े थे। उत्तर में वो कुछ नहीं बोला था तो वो लौट गये थे। पीतू ने एक राहत की सांस ली थी। क्यों कहा था उसने स्वामी जी और क्यों किया था उसने प्रणाम – वह तो समझ ही न पाया था। और फिर एक अजब गजब बेहोशी ने उसे घेर लिया था।

“स्वामी जी!” फिर वही संबोधन लौटा था। “भोजन लाया हूँ।” फिर वही आदमी उसके सामने था।

अचानक ही पीतू ने भूख को आवाज दी थी। भोजन तो आ गया था पर भूख मर चुकी थी।

“जो भी मन आये खाएं स्वामी जी!” मधुर आग्रह आया था। “लीजिए! ब्रह्म भोग बना कर लाया हूँ।” वह आदमी कह रहा था।

कितना स्वादिष्ट था उस आदमी का लाया वा ब्रह्म भोग – उन्हें आज तक याद है।

खाना खिला कर उसने आदमी ने अपनी ओढ़ी लोइ उतारी थी ओर उसे दे दी थी।

“ठंड है। आपके काम आएगी!” उसने कहा था – उन्हें याद है।

शाम घिर आई थी। अंधेरा जुटने लगा था। खाने के बाद शरीर में जान लौटी थी। लोइ ओढ़ने के बाद एक अलग से आनंद लौटा था – सर्वानंद सा कुछ कुछ।

वह आदमी भोजन के साथ लाई थाली और लोटा वहीं छोड़ कर चला गया था। कौन था वह – इस प्रश्न का उत्तर पाने से पहले ही उसे गहरी नींद ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था। उस परम सुख के अछूते संसार में पीतू पहली बार जी भर कर सोया था।

आंख खुली थी तो उसने अपने शरीर को टटोला था। फिर खुले खिले आकाश पर उसकी नजर गई थी। शेष तारों का उजास अभी भी धरा को धन्य किये था। मलय पवन छूट गया था। चिड़िया चहकने लगी थीं। प्रकृति में जगार पड़ चुकी थी अत: पीतू ने भी लोइ से बाहर आकर अपना बदन खोल दिया था। कैसा आनंद लुटा रही थी वो बहती बयार – पीतू आज तक नहीं भूला है।

नंगे पैरों चंद्र प्रभा तक चलकर गया था पीतू और किनारे बैठ उसने अंजुरी भर भर कर उसे मीठे पानी का स्वाद चखा था – जो दैवीय था। और फिर नदी को पार कर वह उस पार के घने में गया ही था कि एक शोर गुल उठ खड़ा हुआ था। पतोहर चटकी थी, मोर भागा था, गिलहरी कूदी थी और खरगोश झाड़ी से बाहर कूद भाग गया था।

“ये तुम्हें पहचानते नहीं हैं पीतू!” किसी ने कहा था। “आते जाते रहोगे तो मित्रता हो जाएगी!”

लौटकर पीतू जब चंद्र प्रभा में मल मल कर नहाया था तो उसे लगा था कि उसकी काया कंचन की हो गई थी।

पीपल दास ने भी उसे नई निगाहों से देखा था और आश्रय बांट दिया था।

“भोजन लाया हूँ स्वामी जी!” वही आदमी लौटा था और उसके सामने खड़ा था।

स्वामी जी – लेकिन .. लेकिन .. वो तो पीतू था? अब उसका मन हुआ था कि उसे भले मानुस को बता दे कि वो कौन था और यहां क्यों था।

“मेरा नाम बंशी है।” एस आदमी ने अपना नाम बता दिया था। “ये अमर पुर गांव है – थोड़ी देर पर ओर मैं .. मैं जमींदार हूँ – इस गांव का।”

मैं कुछ बोल कहां पाया था?

हॉं! जब वह चला गया था तब फिर से मेरे कानों में ये स्वामी जी का संबोधन घनघनाने लगा था। स्वामी जी – पीतू नहीं! स्वामी जी – मेरा नया नाम था – किसी ने कहा था। ये पुनर्जन्म है तुम्हारा पीतू – पीपल दास कह रहे थे। अब भूल ही जाओ गुलनार को और अपने उन चारों बेटों को और उस अकारण मिले मृत्यु दंड को!

और अचानक ही एक नई जीने की राह मेरी आंखों के सामने खुल गई थी।

और मेरे कर्णधार थे बंशी बाबू और यही मेरे जन्मदाता हैं।

मेजर कृपाल वर्मा

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