प्रेम नीड़ के मेरे विचार को बंशी बाबू ने चार चांद लगा दिए हैं।
हर किसी को यह विचार पसंद आया है और सब ने माना है कि आज के युवा और युवतियां पुरातन की रूढ़ियों को तोड़ रहे हैं लेकिन समाज उन्हें विद्रोही बता रहा है। मॉं बाप को जो पसंद नहीं है – वो युवा पीढ़ी को पसंद है। अब बच्चों को मॉं बाप बेवकूफ लगते हैं तो मॉं बाप को बच्चे विद्रोही।
जैसे कि मैं और गुलनार चुपचाप भागे थे और हमारे मॉं बाप को हम से कोई लेना देना ही न था। कौन आया था हमारे पीछे?
और वो कमरा नम्बर चौबीस – मेरा और गुलनार का प्रेम नीड़ – मन भूला कहां है? हम दोनों कमरा नम्बर चौबीस में अकेले, स्वतंत्र, स्वच्छंद और दुनियादारी को भूले प्रेमाकाश में निडर घूमते थकते कहां थे? मन था कि गुलनार के हुस्न को देख देख कर ही पागल होता रहता था। हम दोनों एक दूसरे का सहारा थे – लेकिन हम थे बेसहारा।
हम एक दूसरे के लिए थे। हम दो अमर प्रेमी थे और हम मन प्राण से एक दूसरे को चाहते थे। हम एक दूसरे के लिए जान तक दे देना चाहते थे। हम थे दो अभिन्न और अमर प्रेमी। गुलनार के कोरे बदन की गंध मैं आज तक नहीं भूला हूँ। न जाने कैसा मोहिनी मंत्र था जो हम दोनों को उन्मादों से भर भर देता था और हम ..
कैसा स्वर्ग था वो – मेरे राम।
“शादी के बाद ..” गुलनार की वो शर्त ही थी जिसने सारा गुड़ गोबर कर दिया था।
मन पर कोई भी और कैसा भी प्रतिबंध लगाना मन को गवारा नहीं होता। मेरा मन भी कुंद हो गया था। मेरे मन को पहली बार शक हो गया था कि हमारा वो प्रगाढ़ परिचय बिना शादी के पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता था और हमारी शादी भी बिना दो रोटी का जुगाड़ लगाये संपन्न नहीं होनी थी।
तब हमें लगा था कि अब हमें सहारा चाहिये था। लेकिन हमारा तो कोई था ही नहीं। कौन देता काम और कैसे होती शादी? जिस दिन मैंने गुलनार की पायल बेची थीं उसी दिन से मैं अपने पुरुषत्व से वंचित हो गया था। और जब स्वामी जी ने हमारी शादी कराई थी उस दिन मेरी जिंदगी का सारा श्रेय स्वामी जी को चला गया था।
पुरुष होने का अर्थ आज मुझे समझ आया है।
तभी तो मैं चाहता हूँ कि प्रेम नीड़ को एक नई परिभाषा दूँ। एक ऐसा चलन स्थापित करूं जहां सहमति और सहयोग से प्रेमी युगलों को संरक्षण मिले और पुरुष नारी पर अपनी मर्यादा कायम करे। वह भी पीतू की तरह पिछवाड़े भट्ठी पर बैठ कचौड़ियां सेकता ही न रह जाए और गुलनार ..
प्रेम की परिभाषा को कायम रखते हुए हमें कुछ इस तरह के प्रयोग भी करने होंगे जहां प्रकृति और पुरुष के विरोधाभास आपस में न टकराएं। काश मैं अपने और गुलनार के बीच आई उस असमानता को जान पाता .. और ..
गुलनार मुझसे कब जुदा हुई? क्यों उसने अपने पीतू को ..?
आज भी मैं इन प्रश्नों के उत्तर नहीं जानता। और आज भी मेरी हिम्मत नहीं होती कि मैं गुलनार से पूछ लूँ कि मुझे मृत्यु दंड क्यों मिला था? मेरा मन तो आज भी गुलनार के लिए छटपटाता है .. लेकिन ..
किसी ऐसी जीने की राह का हम आविष्कार करें अपने इस आश्रम के बनाए इस प्रेम नीड़ में जिसपर प्रेमी द्वय निरंतर चलते चलते – चले जाएं।
ये मेरा मत है।
