“स्वामी जी! वो औरत फिर बीमार हो गई!” शंकर मुझे सूचना दे रहा है। “न जाने क्या क्या बक रही है। वो किसी पीतू को पुकार रही है स्वामी जी! कह रही है – मुझे माफ कर दो पीतू! पीतू मैं तुम्हारी गुनहगार हूँ .. और ..”
मैं और मेरा समूचा वजूद हिल गया है। मन: स्थिति हचमचा गई है। होश उड़ गये हैं मेरे। मुझे अब शंकर भी दिखाई नहीं दे रहा है। मैं गिरने गिरने को हूँ लेकिन संभल गया हूँ। अचानक एक सहारे की तरह मैंने अपने इष्ट मंत्र को पकड़ा है। मैं मन ही मन जय श्री राम का जाप करने लगा हूँ।
“चलकर उसके सर पर हाथ रख दें स्वामी जी!” शंकर का आग्रह है।
“नहीं! वो बीमार है। उसे दो चम्मच शहद के साथ मसूरी चटा दें!” मैंने मन पर काबू रख सलाह दी है।
शंकर चला गया है। मैं अकेला छूट गया हूँ – विगत के हाथों हलाल होने के लिए! अब क्या करूं – कुछ सोच नहीं पा रहा हूँ। हॉं! हॉं हॉं – चलता हूँ! चंद्र प्रभा की शरण में चलता हूँ – मैंने निर्णय लिया है।
चंद्र प्रभा के दोनों किनारों पर सघन वन उगा है। केले के झुंड के झुंड उगे हैं। झाड़ियों के झुरमुट बने हैं। बीच बीच में अमूल्य जड़ी बूटियां भी उगी हैं। जंगल के आर पार आने जाने के लिए पग डंडियां बनी हैं। ये मेरा मन पसंद अनुराग है। शांति पाने के लिए मैं यहीं चला आता हूँ!
“पीतू ..!” ये तो गुलनार की आवाज है। उसी ने मुझे पुकारा है – शायद!
“जय श्री राम!” मैंने जोरों से मंत्रोच्चार किया है और आगे बढ़ गया हूँ।
लेकिन .. लेकिन मैं महसूस रहा हूँ कि आज मेरा विगत आकर मेरे शरीर से व्यालों की तरह लिपट गया है। सांस रुक रही है। कदम लड़खड़ा रहे हैं। मन डूब रहा है। तन कांप रहा है लेकिन विगत का ज्वार उठता ही जा रहा है!
मैं झाड़ियों के एक लुभावने झुरमुट में बैठ गया हूँ। मैंने बहती चंद्र प्रभा को लम्बे पलों तक निहारा है। मंत्रोच्चार जारी रखते हुए मैंने आसपास के उपवन को सराहा है। जीवन दायी चंद्र प्रभा से प्रार्थना की है कि मुझे ..
“मैं .. मैं मर रही हूँ पीतू!” गुलनार ने फिर मुझे बुलाया है। “आखिरी .. दर्शन – मेरे देवता ..?” उसकी गुहार है।
“ऊंचे आसमान से गिरा था – स्वामी जी! बहुत चोट लगी थी!” विभूति कह रहा है।
हॉं! गिरूंगा तो मैं भी आसमान से अगर गुलनार ने ..
“हे प्रभु!” मैंने ईश्वर को ही पुकारा है। “रक्षा करो प्रभु!” मेरा आग्रह है।
प्रार्थना प्रदत्त शक्ति ने मुझे सहारा दिया है! मैंने साहस के साथ शरीर से लिपटे विगत के सांपों को नोच कर चंद्र प्रभा में फेंक दिया है – डूब जाने को! मैं उठा हूँ और आश्रम की ओर लौटा हूँ!
मुझे आता देख चार पांच सेवक दौड़े हैं!
“कोई कह रहा था – भाग गया मोढ़ा तो!” एक सेवक कह रहा है।
आशीर्वाद पाने के इंतजार में लोग लाइन में न जाने कब से खड़े हैं! मैं वक्त का साथ छोड़ गया था न!
“क्या राह भूल गये थे स्वामी जी?” शंकर ने पूछा है।
“हॉं वत्स!” मैंने हामी भरी है।
ये विगत भी किसी बवंडर से कम नहीं है – मैंने आज पहली बार महसूस किया है!

मेजर कृपाल वर्मा