आश्रम की अकूत आमदनी है – यह मुझे नदिया ने बताया है।
और नदिया ने ही मुझे समझाया है कि मैं क्यों न अपने चारों बेटों को यहां बुला लूं और उन्हें मठाधीश बना कर देश के चारों छोरों पर बिठा दूं ओर फिर मैं अपना नाम और काम इनके साथ जोड़ कर अपनी एक अलग पहचान बना लूँ।
लेकिन मैं प्रसन्न नहीं हूँ। मेरा शरीर टूट रहा है। सर दर्द भी होने लगा है। मुझे डर की कंपकंपी चढ़ने लगी है। मेरे हाथ पैर फूल गये हैं। धन माया का बुलावा, संसार और पैसे धेले का जंजाल हंस रहा है मेरे ऊपर! मैं कितना कायर हूँ – कोई कहता लग रहा है। मेरे आस पास माया है और मैं हूँ कि ..
कानी ने कभी एक कौड़ी भी मेरे हाथ पर न रक्खी थी। पिताजी तो मुझे जैसे भूल ही गये थे। गांव से तो मैं बैरंग ही भागा था। राम मिलन ने भी झगड़े टंटे के बाद मुझे तीन माह की पगार दी थी और तीन माह की रख ली थी। पहली बार ही मैंने नोट गिने थे – नौ सौ!
उस दिन .. हॉं हॉं उसी दिन एक नए नवेले पीतू का जन्म हुआ था।
नौ सौ रुपये मुझे उस दिन अकूत धन लगा था और मैंने गुलनार को भगा कर ले जाने की जुगत बना ली थी। रेल गाड़ी में संभल कर बैठा मैं बार बार नौ सौ रुपयों को गिन रहा था और गुलनार की रखवाली भी कर रहा था। यही दो संपत्तियां थीं मेरी। उस दिन मेरे दोनों हाथों में लड्डू थे। एक मुट्ठी में थे नौ सौ रुपये तो दूसरी मुठ्ठी में थी गुलनार। और मैं इन दोनों की सुरक्षा में तैनात था। रेल गाड़ी में बैठे सभी लोग मुझे चोर उचक्के लगे थे। कोई भी कभी भी हमला कर सकता था और ..
गुलनार की पायल बेच कर हमने धंधा चलाया था – मुझे याद है।
गुलनार कचौड़ी की दुकान की भी अकूत आमदनी थी – यह तो मुझे पता था लेकिन कितनी थी यह मैं नहीं जानता था। उसी तरह राम मिलन कचौड़ी वाले की भी अकूत आमदनी थी पर कितनी थी मैं नहीं जानता था। कचौड़ी बनाना ही जानता था मैं। और मेरी बनी कचौड़ियों पर मेरा कही नाम नहीं लिखा था ये भी नहीं जानता था मैं।
और तब मैं नदिया को भी नहीं जानता था।
मैं केवल और केवल कचौड़ियां बनाना जानता था। बड़े मनोयोग से और मन प्राण फुंक फूंक कर मैं कचौड़ियों का मसाला बनाता था। फिर कचौड़ियों के लिए मैदा तैयार करता था। एक एक कचौड़ी की संरचना मुझे अपना ही एक हिस्सा लगता था। कचौड़ियां खा कर जब लोगों के चेहरे फूलों की नाई खिलते थे तो मैं अपना इनाम पा लेता था। यही था मेरा – माने कि पीतू का एक बेहद सुखी संसार।
आठ आठ घंटों तक भट्टी से चिपक कर बैठा मैं कचौड़ियां बनाता रहता था ओर ग्राहकों की लंबी कतारें देख देख कर खुश होता रहता था ओर कभी भी कचौड़ियों की टूट न पड़ने देता था। न मैं हारता था न मैं कभी बीमार होता था। और न मैं कभी कोई छुट्टी मारता था। कचौड़ियां बनाने में जो आनंद मुझे आता था वही मेरा धन था, मेरा सर्वस्व था और मेरा महान ईमान था।
हारा थका शाम को घर पहुंचता था तो गुलनार हुई बिक्री के पैसे गिन रही होती थी। मैं उसे बिना कुछ पूछे आराम करने लगता था ओर फिर न जाने कब सो जाता था। आंख खुलते ही सबेरा होता था और फिर मैं भट्टी से चिपका कचौड़ियों के ढेर लगा देता था .. और ..
“बंगलौर वाले सेठ ने चढ़ावा भेजा है स्वामी जी!” शंकर मुझे बता रहा है। “उनका बेटा ठीक हो गया है।” शंकर हंस रहा है। “आपके लिए प्रणाम भी भेजा है।” उसने मुझे बताया है।
“कितना चढ़ावा आया है?” आज मैंने पहली बार प्रश्न किया है।
शंकर ने मुझे मुड़ कर देखा है। शंकर के चेहरे का रंग बदला है। शंकर की आंखों में एक शंका ने जन्म लिया है। शंकर नहीं चाहता कि वो मुझे बताए कि बंगलौर के सेठ ने चढ़ावे में क्या और कितना भेजा है।
“पूछ कर बताता हूँ।” शंकर का उत्तर है और वह चला गया है।
“पहले से ही प्रश्न पूछने लगते तो तुम्हारी ये दुर्गति नहीं होती पीतू।” मुझे कोई बता रहा है।
“मेरा उद्धार ही इसीलिए हुआ है मित्र कि मैंने कभी प्रश्न नहीं पूछे।” मैं भी जोरों से हंस पड़ा हूँ। “अगर मैं प्रश्न करता तो पीतू से स्वामी पीताम्बर दास कभी नहीं बनता!”
जीने की राह जितनी सरल और सीधी होगी जीने का आनंद भी उतना ही आयेगा और वांछित फल भी मिलेगा – मेरी मान्यता है।
