न जाने ऐसा क्या है कि मैं भूखी भूखी आंखों से गुलनार को खोजता ही रहता हूँ।

न जाने कहां है? न जाने कैसी है? शायद .. लौट गई हो? उसका बेटा आया होगा और वह अपने बेटे के साथ ..

“स्वामी जी!” एक श्रद्धालु भक्त ने मेरा सोच तोड़ा है। “संतान नहीं है, स्वामी जी!” उसने हाथ जोड़ कर बड़े ही विनम्र भाव से कहा है। उसकी पत्नी ने भी मुझे अपांग देखा है। “आप का आशीर्वाद लेने आए हैं।” उन दोनों की सामूहिक विनती है। “सब कुछ करके देख लिया है।” वह भक्त बता रहा है। “आप के बारे सुना तो चले आये हैं!” भक्त की आवाज डूब गई है।

उन्हें आशीर्वाद देने उठे अपने हाथ को मैंने रोका नहीं है।

हॉं! आशीर्वाद देते समय मैंने – श्री राम अपने इष्ट का स्मरण किया है और उन दोनों भक्तों ने भी मेरे साथ जय श्री राम का उच्चारण किया है। अब मुझे पूर्ण विश्वास है कि इनकी मनोकामना अवश्य पूरी होगी।

यह एक विज्ञान है – जिसे अब मैं समझने लगा हूँ।

ये आश्रम भक्तों की इच्छाओं और मनोकामनाओं को उनके आगमन पर ग्रहण कर लेता है और उन्हें धो मांज कर, पवित्र बना कर आशीर्वाद के रूप में लौटा देता है। यहां कुछ ऐसा है जो सही वक्त पर घटता है। मैं तो मात्र एक सहारा और संयोग हूँ। लेकिन आश्रम का एक सत्य है जो पवित्र है और ग्राह्य है।

आश्रम में विश्वास लेकर आये भक्त विश्वास लेकर ही लौटते हैं और कभी निराश नहीं होते – ये मेरा आज तक का अनुभव है। अत: आशीर्वाद देते वक्त कभी भी मेरा हाथ न डगमगाता है न डोलता है।

संतान होना प्रकृति और पुरुष के लिए संपूर्ण होना है – यह तो मैं भी जानता हूँ।

“मैं .. मैं ..!” मेरे आगोश में समाई गुलनार मुझसे कुछ कहना चाह रही थी। लेकिन कह न पा रही थी। “मेरा मतलब है .. पीतू कि तुम .. कि मैं ..”

“कुछ कहोगी भी?” मैंने गुलनार को दुलारते हुए पूछा था। प्रसन्नता उसकी आंखों में लबालब भरी थी और मन में कुछ उमड़ घुमड़ रहा था। वह लजा रही थी, लिपट रही थी और मुसकुरा रही थी। “मैं कोई पराया हूँ क्या” मैंने उसे उलाहना दिया था।

“मैं .. मैं मॉं बनूंगी पीतू और तुम ..” कह दिया था गुलनार ने। इस सूचना ने हम दोनों का कायाकल्प ही कर दिया था।

मुझे एक एक भाव और भावना आज भी याद है।

मुझे याद है कि मैंने किस तरह से गुलनार को एक अमानत की तरह संभाला था। कि तरह मैंने गुलनार को सहारा दिया था और उसका साथ दिया था मुझे याद है। किस तरह से हम दोनों ने एक दिवा स्वप्न देखा था और बेटा होगा या बेटी इस प्रश्न पर भी हम खूब खूब लड़े थे। बच्चे का भविष्य हम किस तरह से निर्माण करेंगे इस पर हम विस्तार से बातें करते थे।

गुलनार के शरीर में होते उन सारे परिवर्तनों को मैंने छू छू कर देखा था और समझा था। अब गुलनार एक से अनेक होने वाली थी – मैं समझ गया था। मैं समझ गया था कि अब मैं भी पीतू से कुछ और संज्ञा पा जाऊंगा क्योंकि वो मुझे नए नए नामों से पुकारेगा .. तो ..

एक नया सा संसार बसने लगा था – वहां।

और सच में ही हमने एक नई जीने की राह खोज ली थी जिसपर मैं और गुलनार बबलू की उंगली पकड़ कर अग्रसर हुए थे!

मेजर कृपाल वर्मा

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