“तुम क्या सोच रहे हो कि तुम मुझे भूल गये हो? क्या तुम्हें याद नहीं हमारा वो मिलन पीतू?”
गुलनार का प्रश्न है। मात्र इस प्रश्न ने ही मुझे जगा दिया है और झकझोर दिया है। हॉं हॉं मैं पीतू हूँ .. मैं गुलनार का पीतू हूँ .. मैं ..
“हॉं हॉं! वो हमारा प्रथम मिलन, वो हमारा प्रगाढ़ परिचय, हमारी पूर्ण पहचान और हम दोनों के साथ साथ आने का वो अद्भुत अहसास – मैं भूला तो नहीं हूँ। और नहीं भूला हूँ – वो एक दूसरे के लिए जीने की जिम्मेदारी जब हम एक से दो हुए थे और फिर एक हो गये थे।
और हॉं! गुलनार मैं .. मैं .. नहीं भूला हूँ उन आत्मीय और परम प्रिय पलों की गरमाहट को जो हमें कितना कितना सुख देती थी और वो मानवीय मुस्कुराहटें जिन्हें पा कर हम दोनों निहाल हो जाते थे। मुझे याद है गुलनार कि तब हमें वक्त भूल जाता था और हम भी वक्त के कायल न रहते थे। उन सम्पूर्ण समर्पण के पलों में तो हम दोनों ही साथ साथ होते थे। हम दोनों अकेले, निर्वसन और निर्लज्ज कितना कितना हंसते थे और न जाने क्या क्या कर गुजरते थे?
मुझे याद है गुलनार कि तब हम एक दूसरे के लिए बिछ बिछ जाते थे और ..
तुम्हीं मेरे देवता हो पीतू – जब तुमने कहा था तो मैं चौंक पड़ा था, याद है न? मैं देवता कैसे हो सकता हूँ – मैंने तुम्हें पूछ लिया था। मैं .. मैं .. तो ..”
“मेरी आंखों में देखो! एक पत्नी की आंखों से देखोगे – तभी समझ पाओगे!” तुमने तर्क दिया था।
न जाने कब तक मुझे अटपटा लगता रहा था कि मैं .. पीतू – नीम पागल पीतू तुम्हारा देवता था। मुझमें तो तब मनुष्य बनने का पूरा शऊर न था। मुझे तो गुलनार ने न जाने क्यों अपना देवता बना लिया था। वो पति परमेश्वर कहती थी मुझे – मैं भूला कब हूँ।
“लेकिन मैं देवता से दानव कब बना?” मैंने आज मौका पाते ही गुलनार से पूछ लिया है।
चुप है गुलनार। उसकी आंखें ठहर गई हैं। कुछ है – जो गुलनार के भीतर हिलने डुलने लगा है।
“सच कहूँ तो पीतू – जब तुम बनवारी के साथ पीकर लौटते थे तब तुम मुझे देवता की जगह पव्वा नजर आते थे।” रुक रुक कर बताती है गुलनार। “गंधाते, गरियाते और लड़खड़ाते तुम मुझे शर्म के सागर में डुबो देते – मेरे जवान जवान बेटों के सामने .. और ..”
“ओ हॉं!” मान गया हूँ मैं। “बनवारी के साथ बैठकर पीने के बाद तो मैं पीतू नहीं पव्वा ही बन जाता था।”
सच! कितना कितना अजीज लगता था मुझे वो शराब से लबालब भरा पव्वा – मैं बयान नहीं कर सकता! पव्वा को देखते ही मेरी बाछें खिल जाती थीं। फिर कहां याद रहती थी गुलनार और कहां टिकता था उसका देवता?
“स्वामी जी!” शंकर ने फिर मेरा सोच तोड़ा है। आज सुबह से ही कुछ न कुछ होता ही चला जा रहा है! “ये बबलू छुप छुप कर शराब पीता है।” शंकर बता रहा है। “आश्रम के सभी लोग नाराज हैं! कोई नहीं चाहता कि ..”
“निकाल बाहर करो इसे!” मैंने आदेश दिया है।
हंस कर चली गई है – गुलनार!
