बधाइयां बज रही थीं! हमारा पूरा घरबार उल्लास में नाक तक डूबा था।
सजीवजी गुलनार का हुस्न और हुलिया देखने लायक था। मैं बैठा बैठा उसे ही आते जाते निहार रहा था। यूं तो सजा वजा घर द्वार बड़ा ही मोहक लग रहा था लेकिन मेरी मंजिल तो मेरी गुलनार ही थी! मैं तो मानता था कि ये सब चहल पहल और ये सब घर गृहस्ति गुलनार के कारण ही थी। मैं तो ..
“वो लोग आ रहे हैं मॉं!” बबलू ने सूचना दी थी तो गुलनार ने आखिरी नजर से सब कुछ देख लिया था।
खूब सारी रौनक हमारे घर पर जुड़ी थी। ये पहला ही मौका था जब हम कोई सामूहिक समारोह रचा रहे थे। भोजपुर के इस अंजान माहोल में हमारा परिवार अब आकर मान मर्यादा पा गया था! अब हमें सारा भोजपुर ही जानता था और मानता भी था!
गुलनार के चारों बेटे जैसे चार दिशाओं में हवा को रोके खड़े थे!
मैंने पकवान बनवाए थे। मिठाइयां बनवाई थीं और साथ में कचौड़ियां भी बनाई थीं। आगंतुकों की खातिरदारी में हम सब जुटे थे। लोग हमारे वैभव को आंखें भर भर कर देख रहे थे। मैं तनिक सा घबरा गया था। कहीं लोगों की नजर न लग जाए – मुझे एक विचार आया था और मैंने बेहोशी के उन पलों में भी प्रभु को याद कर लिया था।
हमारे बबलू का रिश्ता आ रहा था!
लड़की वाले धनी मानी लोग थे। बबलू लड़की को जानता था। उन दोनों की प्रेम प्रीत थी और लड़की के आग्रह पर ही ये रिश्ता जुड़ रहा था। अपने परिवार के बुलंद होते सितारों को मैं आंखें भर भर कर देख रहा था। कई बार मैंने बबलू को देखा था। राजकुमारों सा सजा वजा बबलू बेहद आकर्षक युवक लगा था – मुझे! मुझे अपनी छाती चौड़ी हो गई लगी थी।
“ये पव्वा ही बनाता है कचौड़ियां!” मैंने एक ठिगने आदमी को कहते सुना था।
मैं तनिक चौंका था। मैं प्रसन्न हुआ था कि कम से कम लोग मुझे जानते तो थे।
“ऐसा नौकर भगवान हर किसी को दे!” एक सजी वजी महिला ने न जाने कैसी और किसके लिए दुआएं दी थीं।
“अरे ये नौकर नहीं है बहू जी!” बीच में बही ठिगना बोला था। “ये तो मालिक है! यही तो बबलू के बाबूजी हैं!” उसने बताया था।
कोई बम का गोला फटा हो – ऐसा लगा था मुझे!
वह महिला और कोई नहीं लड़की की मॉं थी। अब उसने मुझे अंखिया कर देखा था। मैं तो पव्वा पी कर मस्त था। मैं तो काम में व्यस्त था। लेकिन उसने न जाने कैसे मेरा तो नशा ही उतार दिया था।
“चलो, चलो!” आवाजें सुनी थीं मैंने। “नहीं होगा ये रिश्ता!” एक घोषणा हुई थी। और फिर वो लोग जा रहे थे।
उस दिन – हॉं हॉं ठीक उसी दिन और उन्हीं पलों में मैं गुलनार और उसके चारों राजकुमारों से बेटों के लिए दुश्मन बन गया था। खजूर से गिर कर बबूल में आ अटका था – मैं!
उस दिन ही मेरे परिवार ने मुझे मेरे ही वजूद से हरा देने की ठान ली थी। उन्हें अब बिना नींव के पत्थर के ही अपनी इमारत सुरक्षित लगी थी! और गुलनार भी अब मेरी नहीं रही थी – न जाने क्यों?
और न जाने क्यों अब उसने मुझे फिर से स्वीकार लिया है?
लेकिन अब मेरा उन्हीं राहों पर लौट जाना असंभव लगता है!
