आज शनिवार को भजनानंदी गुरु विशाल आश्रम में कीर्तन करने पधार रहे थे।
वंशी बाबू इस तरह के भजन कीर्तन के समारोह करते रहते थे। बड़ी ही शुभ घड़ी होती थी जब लोग इकट्ठे होते थे और भजन कीर्तन का आनंद उठाते थे। सारा आस पास प्रफुल्लित हो उठता था। प्रभु की महिमा गाते गाते भक्त जन भी भाव विभोर हो कर सारे गम-गायले भूल जाते थे। उन्हें जो आत्मिक बल प्राप्त होता था उसका तो कोई मोल ही न था।
आश्रम में बहुत भीड़ भरी थी। भजनानंदी गुरु विशाल को सुनने के लिए दूर दूर तक से लोग पधारे थे। खूब रौनक थी आश्रम में। मुझे तो केवल वक्त के हिसाब से अपने आसन पर आ बैठना था। शेष सभी तो वंशी बाबू ही संभालते थे।
गुरु विशाल के दर्शन कर मैं भी गदगद हो गया था। साक्षात कोई स्वर्ग से उतरा तपस्वी लग रहे थे। उनका तेजोमय चेहरा जैसे किसी सात्विक ऊर्जा का प्रतीक था – ऐसा लगता था। मैंने जब उनके चरण लिए थे तो उन्होंने मुझे कलेजे से चिपका लिया था।
“ईश्वर के राजदूत हो – तुम स्वामी पीतांबर दास!” उन्होंने साधु वचन कहे थे। “अच्छा सदाचार है भाई!” उन्होंने आश्रम की छटा देख कर कहा था।
“ये सब वंशी बाबू का कमाल है।” मैं बोल ही पड़ा था।
और वंशी बाबू ने भी गुरु विशाल के चरण छू कर आशीर्वाद प्राप्त किया था।
मैं अपने आसन पर बैठा आंखें बंद किए गुरु विशाल की कवित्र वाणी सुन रहा था।
“मदन गोपाल मेरो मदन गोपाल!” वो गा रहे थे। “जसुमति जायो मेरो मदन गोपाल!” धुन बज रही थी। भक्त लोग झूम रहे थे। “गोपियों का प्यारा मेरा मदन गोपाल!” उनकी मंत्र पूत वाणी भक्तों को आनंद बांट रही थी। “मदन गोपाल मेरो मदन गोपाल!” कीर्तन अपने उत्कर्ष की ओर बढ़ रहा था।
सारी कायनात जैसे मदन गोपाल के रंग में रंगी नाच उठी थी।
अंत में आरती हुई थी और गुरु विशाल ने ओम जय जगदीश हरे को अपने अंदाज में गा कर हम सब को जगा सा दिया था। कितनी शक्ति थी इस ईश प्रार्थना में मुझे भी पहली बार ही अहसास हुआ था।
अब उनके प्रवचन हो रहे थे।
“मन के हारे हारे हार है मन के जीते जीत!” गुरु विशाल ने दोनों हाथ उठा कर एक घोषणा जैसी की थी। “मन महान है, मन महा बेईमान है!” वह तनिक हंसे थे। “सब खेला मन का है ओर मनुष्य मन का दास है!” वह बता रहे थे।
और तभी .. हां हां तभी मेरा मन मेरी मुट्ठी से निकल भागा था और उस अथाह भीड़ में गुलनार को खोज रहा था। धूल-धूसरित गुलनार के उस बर्तन साफ करते हुलिए को कई बार लेकर मन मेरे पास लौटा था पर मैंने अस्वीकार कर दिया था। मुझे तो वही गुलनार चाहिए थी! वही गुलनार जिसे मैं ..
“कौन सी मुसीबत टूटी होगी गुलनार पर जो वो खाने खराब हो गई होगी?” मैं सोचे जा रहा था। “कहां थी गुलनार?” मैंने स्वयं से प्रश्न पूछा था। मेरा मन, मेरा तन, मेरी तमाम आस और इच्छाएं अब गुलनार को ही पुकारने लगी थीं।
“कहां बहकी होगी गुलनार?” मैं फिर से अनुमान लगाने लगा था। “क्या .. क्या उसे पीतू – अपने सच्चे प्रेमी को नहीं भुलाना चाहिए था? क्या अपमानित हुए प्रेमी का श्राप ही ले बैठा था उसे?” मैं स्वयं से पूछता ही जा रहा हूँ। “शायद ..”
प्रेम पथ ही जीने की श्रेष्ठ राह है – मैं आज भी ये मानता हूँ! इस मार्ग को भूलने वाला कभी लौटकर नहीं आता!

मेजर कृपाल वर्मा