क्रिसमस की छुट्टी 83 फिल्म देखने में बिताई। मैंने ठीक 35 साल के बाद फिल्म देखी। बड़ा ही सहज और अच्छा अच्छा लगा। खास बात ये कि टिकट भी मेरे पोते ने खरीदी और दूसरे बॉम्बे में बैठे पोते ने आदेश दिये कि दद्दा को सहेज कर रक्खा जाए। मास्क भी लगाना पड़ा ओर पोते की निगरानी में भी रहा। लेकिन जब लोगों ने तालियां बजाईं तो मैं भी शामिल हो गया। खूब धमाल रहा और भाई लोगों आप भी देख आएं 83 .. रक्षा सुरक्षा का ध्यान तो रक्खें और खूब तालियां बजाएं। मैंने इस फिल्म को पांच में से पांच दिये .. अब आप भी मूड बना लें ओर फिल्म देख लें। और अगर मूड न बन रहा हो तो नीचे लिखा पढ़ लें ..
जब सिनेमा हॉल में तालियां बज रही थीं तो मुझसे भी रहा नहीं गया था। मैं भी तालियां बजा रहा था। प्रसन्न था – महा प्रसन्न और प्रशंसा कर रहा था भारतीय खिलाड़ियों की और उस लार्जर देन लाइफ कपिल देव की जिसने हम सब का मन मोह लिया था।
गबरू जवान कपिल अब हम सब का चहेता था। ठुमके ले ले कर उसका संवाद बोलना, अंग्रेजी के शब्दों पर अटक जाना और दांत पीस कर हार की टीस को निगल जाना हमें जीत हासिल करने का नया फॉरमूला जैसा लग रहा था।
भारत कभी वर्लड कप जीत ही नहीं सकता .. कि भारतीयों की हिम्मत कहां जो इन उन्नत देशों के श्रेष्ठ खिलाड़ियों की टीमों का मुकाबला कर सकें .. कि हमसे कहां होगा – ये करिश्मा? कि हम तो बस यूं ही खेलने चले आये हैं और हम तो बस यूं ही ..
मां कहती है – जीत कर आना है! कहती है पुत्तर जीतना है .. जरूर!
हम ही क्यों हर कोई हंस पड़ता है!
कारण – हम भूल गये हैं कि मां का आशीर्वाद कितना महत्वपूर्ण होता है! लेकिन हमारा चहेता कपिल न तो मां को भूला है ओर न मां के आदेश को नजरंदाज करता है! मातृ शक्ति का मुकाबला ओर कोई शक्ति कर ही नहीं सकती – वह तो जानता है!
तभी तो वह लड़ लड़ बैठता है उन महान और सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों से और मांग बैठता है अपनी जीत – वर्लड कप 83 जबकि कयास है कि चलो खेल तो आये हो! चलो एक नहीं दो मैच जीत लिए! कुछ तो है ही बताने के लिए घर लौटकर! चलो काम चल जाएगा थोड़ा बहुत और भी हो जाए तो ..
लेकिन वह नहीं मानता! कपिल नहीं मानता! मां ने जो कहा था कि – जीत कर आना है बेटे! वह तो जीतेगा .. जरूर जीतेगा ..
टीम – अपनी टीम को अपने आस पास सहेजता कपिल एक चरित्र अभिनेता है – जो हर खिलाड़ी की मंशा को मानता है, उसके सुख दुख को बांटता है ओर उसे प्रेरित करता है – टू गिव हिज बैस्ट! जान लड़ा कर खेलने का आदेश है कपिल का और टीम के खिलाड़ियों का उससे इनकार भी नहीं है!
एक मुट्ठी में सब की जान को बांधकर और प्राणों की बाजी लगा कर खेल के मैदान में उतरता कपिल हंगामा खड़ा कर देता है! आश्चर्य चकित सभी दर्शक इस अनहोनी को अपनी ही आंखों से होते हुए देखते हैं! चौका .. ये मारा छक्का .. ये गई बाउंडरी .. ओर ये लो हो गया खेल!
तालियां .. और तालियां! पूरा सिनेमा हॉल गूंज उठा है तालियों की गड़गड़ाहट से!
देश भक्ति ओर राष्ट्रवाद का इतना उदात्त उदाहरण आपको ओर कहीं देखने को नहीं मिलेगा!
लेकिन कुछ प्रश्न बाद में उठते हैं कि राष्ट्रवाद या देशभक्ति से हमें फिल्मों में परहेज करना चाहिये! लेकिन क्यों? उन तालियां बजाते दर्शकों का हक हम क्यों छीन लेना चाहते हैं? उन भारत के पक्ष में लड़ रहे दर्शकों का हम होंसला क्यों बुलंद नहीं करते? अगर हम नहीं तो हमारे खिलाड़ियों का मनोबल और कौन बढ़ाएगा?
देश की रक्षा सुरक्षा के लिए राष्ट्रवाद या देश भक्ति से बड़ा ओर कौन सा हथियार है? ओर अगर हम शत्रु को नहीं पहचानेंगे तो पराजित होंगे।
और हम शत्रु को भूल भी कैसे सकते हैं! हमारे हर मुकाबले में एक प्रतिद्वंद्वी तो होगा ही! फिर हम उसे कोई भी नाम दे दें या उसे शत्रु ही कह दें तो क्या फर्क पड़ता है?
हमें फिल्में 83 जैसी ही बनानी चाहिये जहां राष्ट्रवाद ओर देश भक्ति का जलवा पैदा हो ओर देश के लोग एक जुट हो कर तालियां बजाएं!