गतांक से आगे :-

भाग – ७६

सोती पारुल का आज आँखें खोलने का मन ही न हो रहा था ….!!

न जाने क्यों आज उसे अन्धकार ही अच्छा लग रहा था .. सुहाता लग रहा था और कम से कम उसकी हाजरी बजाता – प्रिय मित्र लग रहा था ! उसे लग रहा था कि अब वह निपट अकेली थी .. अनाथ थी. चन्दन उसका नहीं था ..!

आती अनाम आवाजें बता रही थीं कि अब चन्दन ऑफिस जाने वाला था…!

जाए ..! पारुल ने करवट बदली थी. कहीं जाए चन्दन .. उसने स्वयं से कहा था. वह आज भी अपने परिवार का था – कविता का था .. अपने बेटों का था ..! उसकी आँखों में उगे उन अल्हादों को पारुल ने देख लिया था – जब उसने लब्बो शब्बो को देखा था और सोचा था कि वो दोनों उसकी पुत्र-वधु बनेंगी ! सच में चन्दन को इसके आगे मिलना भी क्या था….?

“पर मै .. पारुल तो सर्वस्व हार गई…!” पारुल ने आह रिताई थी. “भावुकता में .. सब दे बैठी .. बावली !” उसे अफ़सोस हुआ था. “तुम्हें बम्बई आकर चन्दन महल नहीं बनाना चाहिए था, पगली ! वहीँ .. काम कोटि के दरबार हॉल में बैठ कर चन्दन जैसे लोगों से कुल दो चार मिनट बात करनी चाहिए थीं .. और ..

चन्दन जा रहा था. वह चला गया था……!!!

अब पारुल उठी थी. उसने अपना हुलिया शीशे में देखा था. आँखों में न जाने कैसी विचित्र उदासी भरी थी. फिर उसने अपने आप को संभाला था. और एक नोंक-झोंक में वह सुबह की सैर करने समुद्र तट की ओर चल पड़ी थी. उसका मन भारी था .. गमगीन था और पैर आहिस्ता-आहिस्ता उठ रहे थे .. चल रहे थे ..

सागर किनारे अकेला बैठा था – राजन..! केतकी चन्दन के जाने के बाद ही अपनी कर में बैठ कर उड़ गई थी. वह उगते सूरज को देख कर सबसे पूछ रहा था – मेरा सूरज क्यों डूबा, मित्रो ? डूबना तो .. ये चन्दन महल चाहिए था ! उसने निगाहें उठा कर चन्दन महल को देखा था ! लेकिन .. ये क्या ..? पारुल जैसी .. कोई परछाई चन्दन महल से निकल बीच की ओर आ रही थी ! राजन उछल पड़ा था. फिर उसने गौर से देखा था – सच में ही पारुल थी .. साक्षात् पारुल ही तो थी….!! उसी ग्रेस के साथ आहिस्ता-आहिस्ता – पारुल उसकी ओर बढती ही आ रही थी ! राजन का मन कूद फांद करने लगा था …!!

“चल – चल ! लगा दे .. अपनी फ़रियाद !!” मन बोला था. “चल-चल कर पकड़ ले उसके पैर ..! चल-चल, पागल ! दौड़ कर .. हाथ बांध कर .. उसके चरणों में लेटजा ! उसे साफ़-साफ बता दे कि .. कि .. तू सब हार गया है .. कि….. तू ..”

लेकिन अन्यमनस्क राजन बौना बन रेत में ही शुतुरमुर्ग की तरह छुप गया था !

पारुल बे-ध्यानी में चली जा रही थी – जैसे उसे अपने तन-मन की सुध ही न थी – वह आहिस्ता-आहिस्ता नीद के नशे में आगे बढ़ रही थी. वह अब दूर निकल गई थी – बहुत दूर .. आँखों से ओझल हो गई थी ..

और राजन पीछे से पागलों की तरह पारुल को जाते देखता रहा था .. देखता ही रहा था……!

“लौटेगी तो जरुर ..?” वह हिम्मत जुटा के बोला था. “पारुल .. लौटेगी .. और इसी रस्ते से चन्दन महल जाएगी !” उसे विश्वास हुआ था. “और कोई रास्ता था कहाँ ?” वह कह रहा था.

और पारुल लौट रही थी…..!

उसी तरह – आहिस्ता-आहिस्ता वह एक मोहक अंदाज में राजन की ओर आ रही थी. कुछ अवश्यंभावी .. घटने को जा रहा था. राजन अब अपने आप को पारुल से मुलाकात करने के लिए तैयार कर रहा था – संवाद चुन रहा था – जुबान को सुधार रहा था – और याद कर रहा था कि पारुल को कौनसे संवाद बेहद पसंद थे……!

जैसे ही पारुल बराबरी पर आई थी राजन उसके सामने आकर खड़ा हो गया था ! एक निर्लज्ज .. हारे हुए जुआरी की भूमिका में .. वह धूल-धूसरित बदन को संभाले पारुल के मुकाबले खड़ा था…..!

वह अब ध्यान से पारुल के चेहरे के रंग बदलते देख रहा था……!!

राजन को सामने खड़ा देख पारुल ठिठकी थी. उसने बड़े ध्यान से राजन को देखा था. फिर उसने राजन को पहचानने की कोशिश की थी. फिर पारुल की नजरें राजन की नजरों से मिलकर चार हुई थीं. और फिर न जाने किस प्रेरणा के तहत .. पारुल ने पुकारा था – ‘अरे, रा ..ज ..न ! त.. त… तुम ….?”

“हाँ ..हाँ !” कठिनाई से बोल पाया था, राजन. “हाँ-हाँ….! योर .. ग्रेस .. मै .. रा-ज-न….!” वह रोने-रोने को हो आया था. “मै .. मै ..” वह कुछ कह न पा रहा था.

“आ -ओ !” पारुल ने उसे बड़े ही स्नेह से पुकारा था. वह चल पड़ी थी. और राजन अब उसके पीछे पीछे चल रहा था.

डरते- डरते राजन चन्दन महल में प्रवेश पा गया था …..!!

“थैंक् गॉड ..!” राजन ने मुड कर देखा था और कहा था. केतकी चली गई थी. वह जानता था. राजन ने एक लम्बी सांस ली थी. “दूती होती तो तुरंत चन्दन को खबर कर देती ?” उसने स्वयं से कहा था. “और .. फिर तो ..”

“नहा-धो, लो….!” पारुल ने विहंस कर कहा था. “नाश्ता साथ-साथ करेंगे…!” उसने निमंत्रण दिया था.

अचरज से आँखें फाड़े राजन लम्बे पलों तक पारुल को देखता ही रहा था……..!!

जो उसने सुना था – क्या वह सच था ? कहीं वह स्वप्न तो नहीं देख रहा था – दिवा-स्वप्न…! ऐसा तो नहीं था कि वह पागल हो गया हो…? वह कहीं .. दिन-दहाड़े .. बहक तो नहीं रहा था ..?

“कपडे बदल लेना !” फिर से उसने पारुल की आवाज सुनी थी. वह जग-सा गया था. “चन्दन के कुरते-पायजामे – कब-बर्ड में हैं…!” पारुल बता रही थी.

और अब अचानक ही राजन को लगा था कि – यह चन्दन महल उसी का था – उसी के लिए तो था – और अब वही वहां रहेगा .. ताउम्र !! उसे अपना खोया हुआ खजाना मिल गया था .. और जब उसने टेबिल पर लगा नाश्ता देखा था – तो उसे विश्वास हो गया था कि पारुल वहां सच में ही मौजूद थी .. और वह राजन को रत्ती भर भी न भूली थी ….!

“मै .. मै .. कौड़ी-कौड़ी के लिए कंगाल हो गया हूँ .. योर ग्रेस !” राजन की आँखों में आंसू लटक आये थे ! गला रुंध गया था और हाथ कांपने लगे थे. “कभी सोचा भी न था कि .. पत्ते मेरे साथ में दगा खेलेंगे ..?”

“जीवन .. खेल ही तो है .. राजू !” सौहार्द पूर्वक कहा था, पारुल ने. “कभी .. कोई जीत जाता है .. तो कभी कोई हार जाता है ! सगा कोई किसी का नहीं होता .. !!” हंसी थी पारुल. “पत्ते तो फिर पत्ते ही हैं ..!”

“मै .. मै .. बहुत ऊँचा खेल खेल बैठा था .. योर ग्रेस !” राजन ने हिम्मत जुटा कर कहा था. “प्यार-घर आबे .. ” राजन रुका था. उसने पारुल के चेहरे के भाव पढ़े थे. लगा था – पारुल को जैसे ‘प्यार-घर आबे’ का कुछ ज्ञान था. “बट .. नाउ वेरी-वेरी फार अवे ..!!” राजन ने हंसने की कोशिश की थी. “सब समुन्दर में डूब गया .. योर ग्रेस !” हाथ झाडे थे राजन ने ! “मेरी जिद ने मुझे हराया .. यही लेकर डूब गई मुझे, योर ग्रेस ! वरना तो .. मै ..?”

“आता-जाता रहता है .. वैभव और पराभव तो राजू !” पारुल ने राजन के रिसते घावों पर मलहम जैसा लगाया था. “आदमी को हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, बस !” उसने पलट कर राजन को देखा था.

“अब .. अब .. तो मै .. यहीं रहूँगा !” राजन न जाने किस झोंक में बोला था. उसे लगा था जैसे पारुल उसे पुकार रही थी और वह पारुल के पास आ जाना चाहता था.

“रोका किस ने है ..?” पारुल जोरों से हंसी थी. “मै .. मै तुम्हें कभी भूल ही न पाई, राजू …..!”

“और मै .. तुम्हारे लिए पागल हो गया .. योर ग्रेस !” राजन ने चोट पर चोट मारी थी.

दोनों ने एक दुसरे को नई निगाहों से देखा था ..!!

“सुनो !” पारुल की आवाज धीमी थी. “कपडे बदल लो ! पीछे बगीचे के रास्ते से निकल जाओ !” वह बता रही थी. “मैं .. रात को फोन करुँगी. चले आना – इसी रास्ते पर. दरवाजा खुला मिलेगा. समझे ..?” वह राजन को आँखों में घूर रही थी. “और .. फिर ..” पारुल ने इशारों में ही सब समझा दिया था. और बाहर जाते राजन के पीछे से दरवाजा बंद कर दिया था.

एक ही छलांग में पारुल चन्दन महल के ऊपर चढ़ आई थी !

शीशे के सामने खड़ी-खड़ी पारुल अपने इस नए रूप को निहार रही थी. वह महसूस रही थी कि जहाँ चाह है वहां राह है ! है जरुर राह .. और अब वह जिस राह पर चलेगी .. वह राह नितांत नई होगी .. उसकी विजय यात्रा .. अब आरम्भ होगी ..!

“गोट इट …!!” पारुल ने जोरों से घोषणा की थी .

और पारुल अपनी दोनों मुट्ठियों को जोरों से कसे शीशे के सामने खड़ी-खड़ी अट्टहास से हंस रही थी .. खिलखिला रही थी .. उछल रही थी .. कूद रही थी ..

चन्दन लौट आया था .. शायद…..!!

क्रमशः-

मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !

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