
केसर क्यों नहीं लौटी ?
केसर क्यों नहीं लौटी ? मुझे तो जल्दी है …मैं तो चाहता हूँ कि ..उस के आते ही हम हिन्दू राष्ट्र का शिलान्यास करें …आरंभ करें अपनी यात्रा …जो जब अधूरी रह गई थी !!
दिल्ली का मौसम मुझे अचानक ही पुकार लेता है . रिम-झिम ….रिम-झिम बादल बरस रहे हैं . पूरी प्रकृति सर झुकाए बरसते बादलों को प्रणाम कर रही है . हवा के छोटे-छोटे झोंके मेरे मन को गुदगुदा कर चले जाते हैं . पानी के छोटे-छोट धारे ज़मीन पर कछुओं की तरह रेंग-रेंग कर बह रहे हैं . और मेरा भी मन है कि …मैं भीग लूं …खूब गहरे पानी में डूब-डूब कर नहा लूं .
“अरे,कौन है …ये जो विरहा गा रहा है …?” मैं अपने आप से प्रश्न पूछता हूँ . “खंडहरों में गूंजती …विरह की आवाज़ …प्रेमी की गुहार ….बिलखती कोई आत्मा – फड-फडाती डोल रही है . खोज रही है …अपने बिछुड़े …सजन को ! शायद मेरी तरह ही …इस की भी केसर बिछुड़ गई है …? शायद मेरी तरह ही …इस का भी कोई ….सुपन अधूरा रह गया होगा ….और शायद …..हाँ,हाँ, …शायद क्यों …अवश्य ही इसे किसी ने मेरी तरह ही मौत देदी होगी !”
विचित्र नगरी है – ये दिल्ली !
पूरा प्रदेश ….खंडहरों से …नांक तक भरा है ! कहीं न कहीं …कोई न कोई प्रेमी -परिंदा …..बादशाह …दरवेश …और …आक्रमणकारी पुराना अपना निशान छोड़ कर गया है . अपने कारनामों को …अपने नाम के साथ ….दर्ज कर के मरा है ! बता कर गया है …कि अगर मैं लौटा तो ….लोगो …मेरे काम और नाम मुझे सुरक्षित मिलने चाहिय ! वरना …….
“मैं खून की नदियाँ बहा दूंगा …!” एक दहाड़ खंडहरों से उठ कर आसमान पर गूँज जाती है .
कौन है , ये ….? नादिरशाह …..औरंगजेब …..बाबर …..और फिर कोई और भी हो सकता है ? सिकंदर से लेकर ….कोई भी कलंदर …दिल्ली पर अपना अधिकार मांग सकता है !
“अब तो उठो , हिन्दुओ …!” मैंने चीख कर आवाज़ दी है . “बहुत भुगतली -गुलामी ! कब तक इन खंडहरों के नीचे दबे बैठे रहोगे …?” मैं पूछ लेता हूँ . “अरे, देश तो तुम्हारा है ….तुम्हारा ही था ….और …..”
“पानी लाओ ….! जमुना बचाओ ….!!” अचानक मैं नए नारे सुनने लगता हूँ . “शर्म खाओ …..जमुना बचाओ ….!!” भीड़ है ….जुलूस है ….लोग हैं – नारे लगाते लोग ….दहाड़ते लोग हैं …..!
मैंने अचानक मुड कर यमुना को भरपूर निगाहों से देखा है . हे,भगवान् ! ये तो बिलकुल ही सूख गई ….रुड गई …! ये तो ….ये तो ….!!” मैं रोने-रोने को हूँ . मुझे याद है ….जब मैंने इसे पहली बार कादिर के साथ देखा था ! तब मैंने …इतने बड़े दरिए को बहते पहली-पहली बार देखा था . मैंने ,’प्रणाम ! यमुना मैया !!” कह कर इस की प्रार्थना की थी . तब ये उफान पर थी ….ज़वानी पर थी …..कगार खाती ….खेलती-कूदती ….न जाने किन यादों के साथ बहती थी …?
“हिन्दू राष्ट्र ….अगर बना तो ….ये बेचारी सूखी नदी ….किस-किस की प्यास बुझाएगी …?” मैं प्रश्न कर बैठा हूँ . “राजधानी ….हो तो …पानी दरकार होगा ….! पानी के बिना …..?” मैं अटक जाता हूँ .
पानी को पकड़ मैं ….अकेला खड़ा-खड़ा दिल्ली को देख रहा हूँ . सूखी झीलों …तालाबों …और .पोखरों मैं डूब-डूब कर मरते लोगों को देख ….मुझे आश्चर्य हो रहा है ….! ढहता ही चला जा रहा है – मेरे हिन्दू राष्ट्र का स्वप्न !!
“केसर …..! तुम कहाँ हो , केसर ….?” मैंने जोरों से पुकारा है , केसर को ! “तुम कहाँ हो …? मैं डूब रहा हूँ …. रेत में डूब कर …….मैं …”
हाँ.हाँ …! रेत …!! वो रेगिस्तान ….वो बिना पानी का प्रदेश …..और वो विस्तार ….अचानक आ कर मेरे गले मिलते है !
“हमें …छोड़कर भाग आए , महाराज ….!” मैं आवाजें सुनता हूँ . “अपने राज्याभिषेक पर हमें नहीं बुलाया ….?” उन का उल्हाना है .
मैं लौट कर ….किसी चमत्कार के तहत – अपने यौवन से आ मिला हूँ .
मजेदार किस्सा है ! याद आते ही मैं स्वयं हंस पड़ा हूँ . मैं स्वयं कुल्लाहचें मार ऊंट की कमर पर जा चढ़ा हूँ . मैं ….हूँ कि …पूरे परिवेश में …मैं समां नहीं पा रहा हूँ ….! खुला-खुला ये प्रदेश मेरी ननिहाल थी – कोट कपूरा !! मेरे नाना -जोराबर सिंह का ये एक छोटा सा साम्राज्य था ! कोट-कपूरा – राजिस्थान के दिल्ली की ओर वाले छोर पर बसा था . अरावली की पहाड़ियों के दामन में एक छोटा सा गाँव था ! पर था बहुत ही आकर्षक …अजीब,अनोखा …और …मेरे सपनों का सहोदर !! हाँ,हाँ ! यहीं आ कर ही तो मैंने सपने देखना शुरू किया था . यहीं आ कर मैंने ….
मैं अपने गाँव देवली से बीमारी की हालत में आया था .
बहुत कमजोर काया थी – मेरी !!
अपने सारे बहिन-भाइयों में मैं ही था – जो मरियल था ….कमजोर था …रोगी था …पर था ज़हीन ! मेरे दिमाग का जोड़ नहीं था . मैं हंसमुख …खिलंदड …और खुश मिजाज़ तो था – पर था कहीं से कुंठित ! मेरी कुंठा का स्रोत …आज तक किसी भी हकीम के हाथ नहीं लगा था .
“मैं ले जाता हूँ , इसे !” मेरे नाना साहिब ने मेरी माँ को धीरज देते हुए कहा था . “चरा ने दो , ऊंट …इसे कुछ दिन ! ठीक हो जाएगा !!” उन का आश्वासन था .
मैं भी उन के साथ ख़ुशी-ख़ुशी कोट -कपूरा चला आया था . मुझे आते के साथ ही अपनी ननिहाल बेहद पसंद आ गई थी . बड़ा ही विचित्र लोक था – वो मेरी ननिहाल ! एक दम …खुले आसमान पर सतरंज के खेल की तरह बिछा ये -कोट-कपूरा , मुझे पुकार बैठा था ! मेरा परिचय होते न होते ….मुझे जच गया था कि ….यहाँ अपनी गोट बैठ जाएगी !!
“उटवाडीयों के साथ ….नाश्ता खा कर निकल जाओ ….खाना साथ ले जाओ ….और फिर घूमो-फिरो …!” मेरे नाना साहिब का सरकारी हुकुम था . “और हाँ , गिर-गिरा मत जाना – ऊंट से …? कहीं हाथ-पैर तोड़ लो ….!!” उन्होंने हिदायत दी थी.
सुबह-सुबह नानी ने मुझे छाछ के साथ नमकीन रोटी का नाश्ता कराया था . दिन के लिए टेंटी के अचार के साथ चार रोटियां बाँध दीं थीं …और हंस कर विदा किया था ! चोकर – जो नाना का मुख्य उट-वारिया था , मुझे देख कर दंग रह गया था . क्रश -काया का धनी – मैं ..नन्हा-सा …हेमू …उस विशालकाय उट-वारिया के सामने …चींटी-सा खड़ा था …! वह हंसा था . उस ने मुझे ..न जाने कैसे दुलार किया था .
“राना पर चढो , कुंवर जी !” उस का आदेश था . “ये भी नया है ! बहुत ही जौमदार जानवर है ! आप की जोड़ी सही रहेगी .” उस का अनुमान था .
था भी ठीक ही अनुमान ! राना ने मुझे बिना किसी हीलो-हुज्जत के स्वीकार लिया था . न जाने क्यों – राना से आँख मिलते ही हमारी दोस्ती हो गई थी .
आप माने न मानें …पर मैं तो आज भी मानता हूँ कि ….राना की पीठ पर बैठ कर मैंने अपने नए स्वर्ग को निहारा था . मीलों के विस्तार थे …..खुला आसमान था ….लंबी-लंबी डगर थीं ….जो साँपों-सी चलती ही चली जाती थीं . अरावली के उस रम्य प्रदेश में …उन करेला , खंडहार , पीलू और ….खेजरी के जंगलों में मेरी आत्मा इस तरह रमी थी ….मानो मैं इन का ही ….एक अंग था …इन का ही कोई सहोदर था ….और हर-हर तरह से वो मेरे मित्र थे ,सलाहकार थे …साथी थे ….!
“ये पीलू खा सकते हो , कुंवर जी ! पेंचू खाओ …गुल्ककाक ..लाल-लाल पकी हो तो ….खाओ ! पर ये कंटू कभी न खाओ !” चोकर ने मुझे सीख दी थी . “जो ऊंट न खाए …आप भी मत खाना …कुंवर जी !” उस ने राना की और देखा था . “राना आप का ….”
“समझ गया , शाह जी !” मैंने स्वीकार में कहा था . “बड़े स्वादिष्ट लगते हैं – ये मुझे !”
“गुण कारी बहुत हैं , कुंवर जी ! आप की काया कंचन हो जाएगी ….” चोकर ने विहंस कर मुझे बताया था .
और सच में ही मेरी काया कंचन हो गई थी !
कैसा आकर्षक और पुष्ट बना था – मेरा शारीर ….मैं स्वयं दंग रह गया था ! वह मेरा राज कुमारों सा ..सौष्ठव देख कर …..कोट-कपूर के लोग भी भ्रमित रह गए थे . मेरे नाना साहेब जोराबर सिंह की निगाहें …मुझ पर आ कर ठहर जातीं तो ….घंटों तक मेरा शारीर सहलातीं रहतीं . अब मैं एक दर्शनीय और …..कर्मठ युवक के रूप में विख्यात हो गया था .
चोकर शाह को जयपुर जाना था . मुझे सब कुछ सौंप कर वह जयपुर के लिए कूंच कर गए थे . मेरा भी यह पहला ही मौका था ….जब मैं उट -वारियों का मुखिया था …और मेरा हुकुम चलना था . चला तो सब ….हुआ भी सब ….लेकिन एक भयंकर चूक हो गई ! पानी न लाने की -भयंकर चूक !! और एक ऐसी चूक ….जो शायद मेरी किस्मत खोलने के लिए आवश्यक भी थी !
आज भी मैं मानता हूँ कि ….जो भी होता है ….इश्वर की मति के अनुरूप होता है ! वरना तो मैं ….
“प्यासे मर जाएंगे , कुंवर जी !” उट-वारिया मांग कर रहे थे . “लौट लो …डेरे पर …!” उन का सुझाव था .
‘नहीं !” मैंने आदेश दिया था . “हरगिज़ न लौटेंगे ….!!” मैंने दुहराया था . “मैं …..पानी की तलाश करता हूँ ….!!” मेरी घोषणा थी . “तुम लोग ….चराओ ….ऊंट ….! मैं अभी लौटा ,,,,” कह कर मैंने राना को टहोका था …और वह मेरे इशारे पर सरपट भाग लिया था .
मैं और राना भागते ही चले जा रहे थे ….पानी की तलाश में ….और भागते-भागते बे-दम हो गए थे …..फिर भी खूब भागे थे – उन रेतीले विस्तारों मैं …कटीली झाड़ियों के बीच से …..लेकिन …..
बहुत ऊंची एक चट्टान के सर पर आ कर राना खड़ा हो गया था ! सामने पानी था ! भेड़ों का रेबड़ था . चंद झोंपड़े नुमा घर थे . लोग भी थे . पर उन तक पहुँचना असंभव था !
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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!